Wednesday, October 17, 2012

Hindu mythology Quotations


न तदसिद्धौ लोकव्यवहारो हेय: किन्तु फलत्यागस्तसाधनं च कार्यमेव।।
अर्थात- जब तक भक्ति में सिद्धि न मिले, तब तक लोकव्यवहार का त्याग नहीं करना चाहिए, बल्कि फलत्याग कर निष्काम भाव से उस भक्ति का साधन करना चाहिए।
मूढै: प्रकाल्पितं दैवं तत्परास्ते क्षयं गता:।
प्रज्ञास्तु पौरूषार्थेन पदमुत्त्ामतां मता:।।
-योगवासिष्ठ,
अर्थात-भाग्य की कल्पना मूढ़ लोग करते है और भाग्य पर आश्रित होकर वे अपना नाश कर लेते है। बुद्धिमान लोग तो पुरूषार्थ द्वारा ही उत्कृष्ट पद को प्राप्त करते है।
भारतीय संस्कृति कहती है- ’’तेनत्यक्तेनभुज्जीथा’’ (र्इशावास्योनिषद्) अर्थात त्याग के साथ भोग हो। मर्यादा के साथ भोग हो। आज तो त्याग एवं मर्यादा की बात ही नहीं है, केवल भोग ही भोग है और इस भोग ने इन्सान को एकदम खोखला बना दिया है, जीवन मूल्य छीन लिए है, पंरतु जहाँ त्याग होगा, एक-दूसरे के प्रति सहयोग एवं सहकार की भावना होगी, संवेदनशीलता अर्थात दूसरों के सुख-दु:ख को अनुभव करने की क्षमता होगी, वहाँ मानवीय संस्कृति का विकास होगा। इसी से मानीवय मून्यों की स्थापना होगी, मानीवय गुणों का विकास होगा तथा भविष्य में नए मानव के जन्म का पथ प्रशस्त होगा। ऐसी संस्कृति की आवश्यकता है।
नत्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपा:।
न चैव न भविष्याम: सर्वे वयमत: परम्।।2/12।।
आत्मा नित्य है, इसलिए शोक करना व्यर्थ है। वास्तव में ऐसा नहीं है कि मैं किसी काल में नहीं था अथवा तू नहीं था अथवा ये राजा लोक नहीं थे, न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदु:खसुखं धीरं सो·मृतत्वाय कल्पते।।2/15
हे पुरुषश्रेष्ठ सुख दु:ख को समान समझने वाले जिस धीर पुरूष को इन्द्रियों के विषय व्याकुल नहीं करते हैं वह मोक्ष के योग्य होता है।
य एनं वे​त्ति हन्तारं यष्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतौ नायं हन्ति न हन्यते।।2/19
जो आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते, क्योंकि आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी के द्वारा मारा जाता है।
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।
अजो नित्य: शाश्वतो·यं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।2/20
यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्म लेता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।
देही नित्यमवध्यो·यं देहे सर्वस्य भारत!
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि।2/30
हे अर्जुन! यह आत्मा सबके शरीरों में सदा ही अवध्य (जिसका वध नहीं किया जा सके) है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिये तू शोक करने योग्य नहीं है।
ध्यायतो विषयान्पुंस: सड़्गतेषुपजायते।
सड़्गत्सा´जायते काम: कामात्क्रोधे·भिजायते।।2/62।।
विषयों का चिन्तन करने वाला पुरूष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पडक्ष्ने से क्रोध उत्पन्न होता है।
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनो·तु विधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।2/67
क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुर्इ इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरूष की बुद्धि को हर लेती है।
विहाय कामान्य: सर्वान्पुमा´चरति नि:स्पृह:।
निर्ममो निरहंकार: स शान्तिमधिगच्छति।।2/71
जो पुरूष सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममता रहित अहंकार रहित और स्पृहा रहित हुआ विचरता है, वही शान्ति को प्राप्त होता है।
हस्तस्य भूषणं दानं सत्यं कण्ठस्य भूषणम्।
श्रोत्रस्य भूषणं शास्त्रं भूषणै: किं प्रयोजनम।।1।।
अर्थ: हाथ का गहना दान देना, गले का गहना सत्य बोलना, कान का गहना शास्त्र सम्मत बातों को सुनना, जिनके पास ये गहने हैं उनको अन्य धन सोने-चाँदी के गहनों से क्या मतलब? अर्थात् कुछ भी मतलब नहीं।
विद्या ददाति विनयं, विनयात् याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद् धनमाप्नोति, धनाद्धर्म: तत: सुखम्।।2।।
अर्थ: विद्या विनम्रता देती है, विनम्रता से योग्यता आती है, योग्यता से धन प्राप्त होता है, धन से धर्म होता है, धर्म से सुख की प्राप्ति होती है।
पिबन्ति नद्य: स्वयमेव नाम्भ: स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षा:।
धाराधरो वर्षति नात्महेतो: परोपकाराय सतां विभूतय:।।3।।
अर्थ: जिस प्रकार नदियाँ स्वयं जल नहीं पीती, वृक्ष स्वयं फल नहीं खाते, मेघ स्वयं के लिए वर्षा नहीं करते, उसी प्रकार सज्जनों की विभूतियाँ भी दूसरों की भलार्इ के लिए होती हैं।
व्यायामपुष्टगात्रस्य, बुद्धिस्तेजो यशोबलम्।
प्रवर्धन्ते मनुष्यस्य, तस्माद् व्यायाममाचरेत।।4।।
अर्थ: व्यायाम से मनुष्य का शरीर पुष्ट होता है, बुद्धि तीव्र होती है तथा यश और बल की वृद्धि होती है, इसलिए व्यायाम करना चाहिए।
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनौरथै:।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुखे मृगा:।।5।।
अर्थ : परिश्रम करने से ही कार्य की सिद्धि होती है, इच्छाओं से नहीं, क्योंकि सोए हुए सिंह के मुँह में हिरन स्वयं प्रवेश नहीं करते हैं, अर्थात् कर्म करने से ही कार्य सिद्ध होते हैं।
संतवाणी
दोहे
निम्नांकित दोहे कण्ठस्थ कीजिए और भावार्थ समझने का प्रयत्न् कीजिए-
दु:ख में सिमरिन सब करैं सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करै दु:ख काहे को होय।।!।।
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहे थोथो देय उड़ाय।।2।।
मीठी वाणी बोलिए तजि माया, अभिमान।
ना जाने किस वेश में मिल जाये भगवान।।3।।
रहिमन देखि बड़ेन को लघु न दीजिए डारि।
जहाँ काम आवै सुर्इ कहा करै तरवारि।।4।।
कपट भाव मन में नहीं सबसे सरल स्वभाव।
नारायण ता भक्त की लगे किनारे नाव।।5।।

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