Sunday, October 14, 2012

सदगुरू


पीरों के पीर है वो, है शाहों के शहनशाह,
मौला मस्त फकीर वो, फिर भी बादशाह।
न सजे हीरे मोती से, न सिर पर शाही ताज,
सादा सा लिबास पहने, है दुनिया के महाराज।।

धो डालते है ये आंसू, मेरे पाप विकारो को,
अंतर के विचारो को, जन्मों के संस्कारो को।
जला रही है अग्नि मेरे कर्मो का खाता,
क्या कहूँ तेरी तपन में कैसा भेद छिपा दाता।
मन को कुंदन बनाता है तू, इसलिए तपाता है तू,
है निर्माणकारी कितना, तू कल्याणकारी कितना।
तू सागर है दया का गुरुवर, तू करुणा का अवतार,
तेरे इक इशारे पर, मेरा सब कुछ है न्योछावर।।


योग साधना में, और पूर्ण योग की साधना में तो विशेषकर, गुरू के अन्त:प्रेरण और कठिन अवस्थाओं में, उनके नियन्त्रण और निकट उपस्थिति की अनिवार्य आवश्यकता हुआ करती है। इनके अभाव में बिना भटके-भूले और ठोकर खाए आगे बढ़ना दुष्कर रहता है। कभी-कभी तो असम्भव ही हो जाता हैं जहाँ तक श्री अरविंद की बात है, उनके पत्रों और संध्याकालीन प्रवचन-वार्ताओं से एक हल्का आभास मिलता है कि अपने शिष्यों को वे कितनी-कितनी सहायता देते थे और किस प्रकार मार्गदर्शन करते थे। वास्तव में तो उनका सारा कार्य अन्त्रिक्र्याओ और अन्त:सम्प्रेषण के द्वारा ही होता था’’
एक स्थान पर उन्होंने कहा है: ‘‘गुरू तो एक ऐसा पुरूष होता हैं जो अपने सहयात्री बन्धुओं को सहारा दे रहा हो, एक ऐसा बालक जो अन्य बालकों की अगुवाई करता चल रहा हो एक आलोक जो दूसरे दीपों में जोत जगा रहा हो, एक ऐसी जाग्रत आत्मा जो अन्य आत्माओं को जाग्रत करने में लगी हो’’ और सचमुच यही सब तो जीवन भर उन्होंने किया भी! उनका एक भी शिष्य न था जिसके आगे उन्होंने मार्ग की एक-एक कठिनाई का स्पष्ट न कर दिया हो।
‘‘बड़े धन भागी हैं वे सतशिष्य जो तितिक्षाओं को सहने के बाद भी अपने के ज्ञान और भारतीय संस्कृति के दिव्य कणों को दूर-दूर तक फैलाकर मानव मन पर व्याप्त अंधकार को नष्ट करते रहते है। ऐसे सब शिष्यों का शास्त्रों में पृथ्वी के देव कहा जाता है’’………आशा राम बापू
‘‘ गुरू का स्थान माता पिता से उँचा है। वह आध्यसत्मिक शिक्षक और सर्वोपरि ईश्वर दोनों का सम्मिलित स्वरूप है। गुरू शिष्य के हृदय के गुप्त तन्तुओं और गहराइयों को समझता है।…………..स्वामी विवेकानंद (वाडमय)
अहंकार रहित होकर अपना सर्वस्व श्री भगवान के अर्पण कर देना ही  समर्पण-आत्मनिवेदन-भक्ति है।

हमको दर्शन दे दो गुरूवर!
तू हमारा पिता है गुरूवर, हम तेरे जिगर के लाल
एक बार तो आकर देखो, रोते बच्चों का हाल
बिन माली के जैसे बगिया, वैसे फूल ये सूखे हैं
हमको दर्शन दे दो गुरूवर, हम तेरे प्यार के भूखे हैं
कितनी गलतियाँ कितने पाप, हमसे हैं जरूर हुए
अपने अपराधों के कारण, तेरे चरणों से दूर हुए
ईर्ष्या-द्वेष से भरे हुए, हम काम-क्रोध से चूर हैं
फिर भी तेरे लिए ऐ गुरूवर, हृदय में प्रेम जरूर है
याद तुझे है हर पल करते, चाहे भाव हमारे रूखे हैं
याद तुझे हैं हर पल करते, चाहे भाव हमारे रूखे हैं
हमको दर्शन दे दो गुरूवर, हम तेरे प्यार के भूखे हैं।
भीख माँगते तुमसे गुरूवर, हम तेरे प्यार के भिखारी हैं
तेरा दर्द बस तेरी टीस है, हम तेरे ही दुखारी हैं
एहसास है अपनी खामियों का, पश्चाताप में आँसू बहूत हैं
कर दे क्षमा, ओ क्षमावान, सब तुझको करूणानिधान कहते हैं
तड़प रही है रूह हमारी कि हमसे गुरूवर रूठे हैं
हमको दर्शन दे दो गुरूवर हम तेरे प्यार के भूखे हैं
गोपियों जैसा भाव नहीं है, शबरी-सा तो इंतजार नहीं है
पर ऐसा तो न कहो गुरूवर कि हमको तुम से प्यार नहीं है
हर दिन आँखों में पड़ती है, झलक तेरे दीदार की
फिर भी हमको लगती है जरूरत, तेरे रूप साकार की
अब थक गए हैं, हार गए हैं, हम अन्दर से टूटे हैं
हमको दर्शन दे दो गुरूवर, हम तेरे प्यार के भूखे हैं

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