Saturday, October 20, 2012

परम पूज्य गुरूदेव की अपने अंग-अवयवों से अपेक्षा


परम पूज्य गुरूदेव द्वारा सूक्ष्मीकरण के पहले मार्च 1984 में लोकसेवी कार्यकर्त्त्-समयदानी-समर्पित शिष्यों को दिया गया महत्त्वपूर्ण निर्देश। यह पत्रक स्वंय परम पूज्य गुरूदेव ने सभी को वितरित करते हुए इसे प्रतिदिन पढ़ने और जीवन में उतारने का आग्रह किया था।
परम पूज्य गुरूदेव की अपने अंग-अवयवों से अपेक्षा
1-यह मनोभाव हमारी तीन उँगलियाँ मिलकर लिख रही है। पर किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि जो योजना बन रही है और कार्यन्वित हो रही है, उसे प्रस्तुत कलम, कागज या उँगलियाँ ही पूरा करेंगी। करने की जिम्मेदारी आप लोगों की, हमारे नैष्ठिक कार्यकर्त्त्ााओ की है। 
2-योजना बड़ी हैं। उतनी ही बड़ी, जितना कि बड़ा उसका नाम है-’’युग परिवर्तन।’’ इसके लिए अनेक वरिष्ठों का महान् योगदान लगना है। उसका श्रेय संयोगवश किसी को भी क्यों न मिले।
3-प्रस्तुत योजना को कर्इ बार पढ़ें। इस दृष्टि से कि उसमें सबसे बड़ा योगदान उन्हीं का होगा, जो इन दिनों हमारे कलेवर के अंग-अवयव बनकर रह रहे है। आप सबकी समन्वित शक्ति का नाम ही वह व्यक्ति है, जो इन पंक्तियों को लिख रहा है।
4-कार्य कैसे पूरा होगा? इतने साधन कहाँ से आएँगें? इसकी चिन्ता आप न करें। जिसने करने के लिए कहा है, वही उसके साधन भी जुटाऐगा। आप तो सिर्फ एक बात सोचें कि अधिकाधिक श्रम व समर्पण करने में एक दूसरे में कौन अग्रणी रहा?
5-साधन, योग्यता, शिक्षा आदि की दृष्टि से हनुमान उस समुदाय में अकिंचन थे। उनका भूतकाल भगोड़े सुग्रीव की नौकरी करने में बीता था, पर जब महती शक्ति के साथ सच्चे मन और पूर्ण समर्पण के साथ लग गए, तो लंका दहन, समुद्र छलांगने और पर्वत उखाड़ने का, राम-लक्ष्मण को कंधे पर बिठाये फिरने का श्रेय उन्हें ही मिला। आप लोगों में से प्रत्येक से एक ही आशा और अपेक्षा है कि कोर्इ भी परिजन हनुमान से कम स्तर का न हो। अपने कतर्ृव्य में कोर्इ भी अभिन्न सहचर पीछे न रहे। 
6-काम क्या करना पड़ेगा? यह निर्देश और परामर्श आप लोगों को समय-समय पर मिलता रहेगा। काम बदलते भी रहेंगे और बनते-बिगड़ते भी रहेंगे। आप लोग तो सिर्फ एक बात का स्मरण रखें कि जिस समर्पण भाव को लेकर घर से चले थे ( हमसे जुड़े थे) उसमें दिनों-दिन बढ़ोत्त्ारी होती रहे। कहीं कोर्इ रार्इ-रत्त्ाी भी कमी न पड़ने पाये।
7-कार्य की विशालता को समझें। लक्ष्य तक निशाना न पहुँचे, तो भी वह उस स्थान तक अवश्य पहुँचेगा, जिसे अद्भुत, अनुपम, असाधारण और ऐतिहासिक कहा जा सके। इसके लिए बड़े साधन चाहिए, सो ठीक है। उसका भार  दिव्य सत्त्ाा पर छोड़े। आप तो इतना ही करें कि आपके श्रम, समय, गुण-कर्म, स्वभाव में कहीं कोर्इ त्रुटि न रहे। विश्राम की बात न सोचें, अहर्निश एक ही बात मन में रह कि हम इस प्रस्तुतीकरण में पूर्णरूपेण खपकर कितना योगदान दे सकते है? कितना आगे रह सकते है? कितना भार उठा सकते है? स्वंय को अधिकाधिक विनम्र, दूसरों को बड़ा मानें। स्वंयसेवक बनने में गौरव अनुभव करें। इसी में आपका बड़प्पन है।
8-अपनी थकान और सुविधा की बात न सोचें। जो कर गुजरें, उसका अहंकार न करें वरन् इतना ही सोचें कि हमारा चिंतन, मनोयोग एवं श्रम कितनी अधिक उँची भूमिका निभा सका? कितनी बड़ी छलाँग लगा सका? यही आपकी अग्नि परिक्षा है। इसी में आपका गौरव और समर्पण की सार्थकता है। अपने साथियों की श्रद्धा व क्षमता घटने ने दें। उसे दिन दूनी-रात चौगुनी करते रहें।
9-स्मरण रखें कि मिशन का काम अगले दिनों बहुत बढ़ेगा। अब से कर्इ गुना अधिक। इसके लिए आपकी तत्परता ऐसी होनी चाहिए, जिसे उँचे दर्जे की कहा जा सके। आपका अन्तराल जिसका लेखा-जोखा लेते हुए अपने को कृत-कृत्य अनुभव करे। हम फूले न समाएँ और प्रेरक सत्त्ाा आपको इतना घनिष्ठ बनाए, जितना कि राम पंचायत में छठे हनुमान् भी घुस पड़े थे।
10-कहने का सारांश इतना ही है, आप नित्य अपनी अन्तरात्मा से पूछे कि जो हम कर सकते थे, उसमें कहीं रार्इ-रत्त्ाी त्रुटि तो नहीं? आलस्य-प्रमाद को कहीं चुपके से आपके क्रिया-कलापों में घुस पड़ने का अवसर तो नहीं मिल गया? अनुशासन में व्यतिरेक तो नहीं हुआ? अपने कृत्यों को दूसरे से अधिक समझने की अंहता कहीं छदम रूप में आप पर सवार तो नहीं हो गयी?
यह विराट् योजना पुरी होकर रहेगी। देखना इतना भर है कि इस अग्नि परीक्षा की वेला में आपका शरीर, मन और व्यवहार कहीं गड़बड़ाया तो नहीं। उँचे काम सदा उँचे व्यक्वित्व करते है। कोर्इ लम्बार्इ से उँचा नहीं होता, श्रम, मनोयोग, त्याग और निरहंकारिता ही किसी को उँचे बनाती है। अगला कार्यक्रम उँचा है। आपकी उँचार्इ उससे कम न पड़ने पाए, यह एक ही आशा, अपेक्षा और विशवास आप लोगों पर रखकर कदम बढ़ रहे है। आप में से कोर्इ इस विषम वेला में पिछड़ने न पाए, जिसके बाद में पशचाताप करना पड़े।

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