Sunday, October 14, 2012

श्री अरविंद के शब्दों में योग


साधारणत: मनुष्य अपने केवल एक छोटे से ही अंश के प्रति सचेतन होता है। मन, जिसके द्वारा वह सोचता और काम करता है, प्राण-शक्ति, जो उसे चलाती और जीवित रखती है और शरीर जिसमें मन और प्राण दोनों अवस्थित है, यही वह सब कुछ है जिसे मनुष्य जानता है। किंतु यह तो केवल उसकी बाह्म-सत्ता है, उसका एक छोटा सा अंश है। उसकी एक विशलतर आंतरिक सत्ता है, जिसकी या बाह्म-सत्ता वास्तव में एक प्रक्षेपण मात्र (Projection) है।
साधारण मन के पीछे जो  अपने ज्ञान-प्राप्ति के साधनों और कार्य-पद्धतियों में सीमित है, एक आंतरिक मन होता है जिसे महतर शक्तियाँ प्राप्त है और जिसका क्षेत्र कहीं अधिक विस्तृत है। सीमाओं में घिरी और उनसे अवरूद्ध प्राण-सत्ता है जिसे एक अधिक मुक्त और वर्हत्ताकर  क्रिया-शक्ति प्राप्त है। और भौतिक शरीर के अनुरूप ही जो अत्यंत स्पष्ट रूप से सीमाओं में बँधा हुआ है, एक सूक्ष्म-भौतिक (Subtle-Physical)  शरीर भी है जिसका क्र्रिया क्षेत्र अधिक विस्तीर्ण है। आंतरिक त्त्आंतरिक प्राण-शक्ति तथा आंतरिक भौतिक सत्ता -’’उपनिषदों क मनोमय पुरूष, प्राणमय पुरूष और अन्नमय पुरूष’’-इन तीनों से मिलकर मनुष्य की आंतरिक सत्ता का गठन हुआ है। इनसे भी अधिक भीतर गहराई में इनके जीवन-क्रम विकास में इन्हें धारण करने वाली एक और भी अन्य प्रभावी सत्ता है, ‘‘आत्मा’’, ‘‘अंतरात्मन्’’, जो भागवत सत्ता की एक सजीव चिन्गारी है। यह अंतरातम सत्ता मनुष्य में स्थित दिव्य तत्व है जिसके चारों ओर उसकी शेष सत्ताएँ अपनी जीवन यात्रा की सार्थकता के लिए केंद्रित होती है यह सत्ता जिसे श्री अरविंद के द्वारा दिया गया नाम है-’’चैत्य सत्ता (psychic Being) ‘‘चैत्य सत्ता विशुद्ध चेतना से युक्त सत्ता जो सर्वथा उपयूक्त है, हृदय की आंतरिक गहराइयों में, ‘‘हृदय गुहायाम्’’- भौतिक हृदय में नहीं बल्कि हृदय-केंद्र (Cardiac Centre) के पीछे वह अवस्थित है।
इस आंतरिक सत्ता की शक्तियाँ और अंतर्निहित क्षमताएँ बाह्म उपरी सतह की सत्ता की शक्तियों की अपेक्षा अनंत गुना अधिक वृहद् एवं व्यापक है और जिस अनुपात में वह बाहर प्रकट की जाती है और सामने लायी जाकर सक्रिय बनाई जाती है उसी के अनुसार मनुष्य अधिक या कम प्रभावी एवं सक्षम होता है। यही से ज्ञान, शक्ति, सौंदर्य और आनंद की सच्ची गति-क्रियाएँ प्रवाहित होती है, किंतु बाह्म उपकरण-रूप मन-प्राण-शरीरात्मक सत्ता की सीमाएँ इस अभिव्यक्ति को क्षीण, मंद, यहाँ तक कि विकृत भी कर देती है। श्री अरविन्द हमें समझाते है कि सत्ता के इन आंतरिक क्षेत्रों को खोलना और उनकी अंतर्निहित क्षमताओं को मनुष्य के विकास और पूर्णता के लिए प्रकट करना योग की कुछ मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं द्वारा ही संभव है।

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