Sunday, October 14, 2012

स्व-सम्मोहन से मानसोपचार


सेल्फ हिप्नोसिस-स्व सम्मोहन एवं ऑटो सजेशन स्व-संकेत ऐसे शब्द है, जो अपने अंदर गहन अर्थ समाहित किए हुए है।,’हिप्नोसग्रीक शब्द है  जिसका अर्थ है-गहन निद्रावस्था। इस अवस्था में शरीर के समस्त अंग-अवयव भावी क्रियाओं को सम्पन्न करने के लिए फिर से तैयार हो जाते है। यह अवस्था तब आती है, जब शरीर और मन पूर्णत: शिथिल हो जाते है।  दैनिक जीवनक्रम में शारीरिक एवं मानसिक तनाव के कारण निद्रावस्था में भी तनाव बना रहता है, जिसके फलस्वरूप शारीरिक एवं मानसिक क्षमताओं में गिरावट आ जाती है। सेल्फ हिप्नोसिस अथवा आत्मशिथिलीकरण वह विद्या है जिसको अपनाने से मस्तिष्क की गुप्त रचनात्मक शक्तियों का जागरण होता है और नस-नाड़ियों में स्नायुतंतुओं में नए कार्य को संपादित करने के लिए नवचेतना का संचार हो जाता है। यह लाभ सामान्य जीवनक्रम से संभव नहीं हो पाता।
वस्तुत: यह एक सुविदित तथ्य है कि मनुष्य स्वंय समस्याओं को उपजाता है और मकड़ी की तरह ताने-बाने बुनकर स्वंय को उसमें उलझाता है। उसका निवारण किसी बाह्म प्रेरणा या शक्ति से संभव नहीं है, वरन स्वंय ही अपनी आत्मचेतना को उस योग्य बनाना आरंभ कर दिया जाए, तो सहज ही समाधान निकलना आंरभ हो जाता है। सुप्रसिद्ध रूसी मनोवैज्ञानिक ब्लादीमिर रायकोव का कहना है कि आत्मशक्ति के जागरण के लिए मनुष्य को स्वंय ही अपने को निर्देश देना पड़ता है। शिथिलीकरण के क्रियात्मक एवं भावनात्मक पक्ष इससे ही संबंधित है। दैनिक जीवन में शारिरीक एवं मानसिक क्रियाकलापों में यदि पवित्रता, निर्मलता एवं निश्छलता-निष्कलटता है अथवा यों कहें कि विधेयात्मक पक्ष का समन्वय है, तो रात्रि में भी सोते समय सहज ही चिंतन-चेतना विधेयात्मक पक्ष का पथ अपनाएगी। इसका लाभ यह भी मिल सकता है कि जिन कार्यो का संपन्न करने के लिए दिन भर सक्रियता बनी रही, उतनी ही सक्रियता रात्रि में भी बनी रहेगी और उसका सत्परिणाम भी अच्छा ही मिलने की संभावना रहेगी। अनुसंधानकर्त्ता चिकित्सा मनोविज्ञानियों के अनुसार अधिकांश शारीरिक रोगों की जड़ें मन में गहराई तक धँसी होती है। यह भी कहा जा सकता है। कि अधिकतर रोग शारीरिक नहीं मानसिक होते है। अत: ‘‘आत्म-निर्देश या स्व-संकेत’’ की प्रक्रिया अपानाकर मानसिक अस्त-व्यस्तता से उत्पन्न रोगों का उपचार सरलतापूर्वक किया जा सकता है। इस विधा के अंतर्गत अपने विचारों एवं भावनाओं को किसी एक बिंदु पर केंद्रित करके उनके शिथिल होने एवं रोग-मुक्त होने की कल्पना एवं भावना की जाती है। ये सहज, सरल एवं सर्वोपयोगी उपाय है, जिन्हें प्रकृतिक निदान भी कह सकते है। हृदय रोग,उच्च रक्तचाप एवं उदर संबंधी रोगों का संबंध मन से ही जुड़ा हुआ है। प्राकृतिक शिथिलीकरण एवं आत्मनिर्देश से उत्पन्न हुई  शिथिलता अंग-प्रत्यंगों में नवशक्ति का सदुपयोग विधेयात्मक क्षेत्र में करना चाहिए। निषेधात्मक पक्ष हमेशा हानिकारक एवं अनुपयोगी होता है। इस तरह के शिथिलीकरण से जिस रचानात्मक शक्ति का विकास होता है, उसका नियोजन किसी भी क्षेत्र में किया  जा सकता है। निद्रावस्था में भी यह विधयात्मक सत्परिणाम देता है। यह एकाग्रता एवं चिंतन-चेतना को एक लक्ष्य पर केंद्रित करने पर ही संभव है। आत्मनिर्देश इसमें अहम भूमिका निभाते है। आत्मसम्महोन एवं स्व-संकेत से व्यक्ति के अंदर छिपी हुई रचनात्मक शक्ति का रूपांतरण हो जाता है। ध्यान, शिथिलीकरण, एकाग्रता दिव्यशक्ति की जननी है। इनके अभ्यास को दैनिक जीवन का अभिन्न अंग बनाकर हर कोई लाभान्वित हो सकता है।

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