Sunday, October 14, 2012

पूज्य गुरूदेव-वंदनीया माता जी


तप के धनी ज्ञान के सागर, सदचिंतन उद्गाता।,,
युगद्रश्टा, युगस्द्रश्टा ऋशिवर, जीवन ज्योति प्रदाता।।
साधक के रूप में उन्होंने आश्यर्च के अनेकों मानदंड़ स्थापित किए। इन्हीं में से एक था- विश्व जीवन का केंद्र बनकर किया गया प्रचंड साधनात्मक पुरूषार्थ। सामान्यतया साधक स्वयं के जीवन को ठीक बनाने, परिशोधित करने, मोक्ष के रूप में जीवन लक्ष्य पाने का पुरूषार्थ करते रहते हैं, पर उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा-’’मेरी साधना का उद्देश्य किसी मोक्ष या निर्वाण की खोज नहीं है। इसका मुख्य उद्देश्य जीवन एवं अस्तित्व का परिवर्तन है।’’ ये विश्व चेतना का केंद्र बन सकें, क्योंकि- पीड़ित मानवता की, विश्वात्मा की व्यक्ति और समाज की व्यथा-वेदना अपने भीतर उठने और बेचैन करने लगी। आँख, दाढ और पेट के दर्द से मनुष्य व्याकुल फिरता है कि किस प्रकार, किस उपास से इस कष्ट से छटुकारा पाया जाए। लगभग अपनी मनोदशा ऐसी ही है। अपने सुख-साधन जुटाने की फुरसत किसे है? विलासिता की सामग्री जहर सी लगती है। विनोद आराम के साधन जुटाने की बात कभी सामने आर्इ तो आत्मग्लनि से उस क्षुद्रता का धिक्कारा जो मराणासन्न रोगियों के प्राण बचा सकने में समर्थ पानी के एक गिलास को अपने पैर धोने की विड़म्बना में बिखेरने के लिए ललचाती है।
विश्वमानव के प्रति उफनती संवेदना से जो विश्वास-बोध जाग्रत हुआ, उससे प्रचंड साधनात्म्क पुरूषार्थ उतुंग गिरि शिखर की तरह उठ खड़ा हुआ। इसलिए कि ‘‘ अर्जुन को, हनुमान को जो अनुदान मिला, वही इस युग के महामानवों को देना होगा। जो सौभाग्य हमने पाया, वहीं अब अन्य असंख्यों को दे दें।’’ उनकी जीवन साधना के परिणामों को उन्हीं के शब्दों में आत्मसात करें।  ‘‘ हमारी तपश्चर्या का प्रयोजन संसार के हर देश में जनजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भगीरथों का सृजन करना है।’’ ‘‘ नवनिर्माण के उदीयमान नेतृत्व के लिए परदे के पीछे हम आवश्यक शक्ति  तथा परिस्थितियाँ उत्पन्न करेंगे।’’
एक अन्य स्थान पर उनकी लेखनी से उमगते भाव हैं- ‘‘ हम जिस अग्नि में अगले दिनों तपेंगे, उसकी गरमी असंख्य जाग्रत आत्माएँ अनुभव करेंगी। भावी महाभारत का संचालन करने के लिए कितने कर्मनिष्ठ महामानव अपनी वर्तमान मूच्र्छना छोड़कर आगे आते हैं, इस चमत्कार को अगले दिनों प्रत्यक्ष देखने के लिए सहज ही हर किसी को प्रतीक्षा करनी चाहिए। लोकसेवियों की एक ऐसी उत्कृष्ट चतुरंगिणी खड़ी कर देना जो असंभव को संभव बनाए, नरक को स्वर्ग में परिणत कर दे, हमारे ज्वलंत जीवनक्रम का अंतिम चमत्कार होगा।’’
पूज्य गुरूदेव ने लिखा,’’ माताजी भगवान के वरदान की तरह हमारे जीवन में आई । उनके बगैर मिशन के उदय और विस्तार की कल्पना करना तक कठिन था। उन्होंने अपने आने के पहले दिन से ही स्वंय को तिल-तिल गलाने का व्रत लिया। विरोध का तत्त्व तो उनमें जैसे था ही नहीं। यदि वे चाहतीं, तो साधारण स्त्रियों कि तरह मुझ पर रोज नई फरमाइशो के दबाव डाल सकती थी। ऐसे में न तो तपश्चर्या बनतीं और न लोक सेवा के अवसर हाथ लगते। फिर जो कुछ आज तक हो सका, उसका कहीं नामोनिशान तक नहीं होता।
वंदनीय माता जी ने लिखा है-’’जहाँ तक कष्ट सहने का प्रश्न है, सारा जीवन तितीक्षा के अभ्यास में ही लगा है। गुरूदेव की छाया में रहकर अधिक नहीं, तो इतना तो सीखा ही है कि आगत आपत्तियों के समय धैर्य, साहस और विवेक को दृढतापूर्वक अपनाए रहना चाहिए। व्यथा को इस तरह दबाए रहना चाहिए कि समीपवर्ती किसी अन्य को उसका आभास न होने पाए। मानव जीवन सुखों के  साथ दुखों का भी युग्म है। संपतिया ही नहीं विपत्तिय भी भगवान मानव कल्याण के लिए भेजते है। गुरूदेव के संपर्क में ऐसे पाठ पढ़ती रहीं हुँ कि रूदन को मुस्कान में कैसे बदला जाना चाहिए।
वंदनीया माता जी ने हम लोगों के लिए लिखा है,’’ श्रवणकुमार की तरह मुझे व मेरी गुरू सत्ता को घर-घर पहुँचाओं। घर-घर तक नूतन चेतना का संदेश पहुँचाओं। कर दो आलोकित युग चेतना के प्रकाश से हिमालय से विंध्याचल व विंध्याचल से सतपुडा  दंडकारण्य एवं अरावली से कन्याकुमारी तक के हर क्षेत्र को। इन पावन सरिताओं की हर बूँद को व मातृभुमि को सांसकृतिक दासता से मुक्ति दिलाकर इसे पुन: देव संस्कृति की चेतना स अनुप्राणित कर दो। आगे तुम्हें और भी बड़े-बड़े कार्य करने है। सारे राष्ट्र को जगाना है। तुम सभी मेरे वरिष्ठ पुत्रों में से हो। अब इस संस्था परिवार में अहंकारियों का कोई स्थान नहीं है। तुम सभी अच्छे हो, मुझे आशा है, तुम में से किसी का अहंकार टकराएगा नहीं व टीम-भावना के साथ तुम काम करते चले जाओगे। स्वभाव में जहाँ कहीं भी थोडी बहुत कमियाँ है, उन्हें दूर करके अच्छी आदतों में बदलनें की कोशिश करो। अपनी-अपनी योग्यता बढ़ाओं। तुम समर्पण करोगें, तो गुरूजी की आवाज तुम्हारें चोगे से निकलेगी। तुम सबको देखना है कि आगे क्या होता है, जो काम होगें, वो माताजी नहीं बेटे जी करेगें ये और भी शानदार होंगे। अब हम मिशनरी भावना की तरह फैलते चले जाएँगे। देखते-देखते कई गुना हो जाएँगे। तुम में से विवेकानंद निकलेंगे, दयानंद निकलेंगे और देखते जाओ तुम से वह करा लेंगे, जो तुमने सोचा भी नहीं था।

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