दिन और रात की तरह मनुष्य जीवन में
प्रिय और अप्रिय घटनाक्रम आते-जाते रहते है। इन उभयपक्षी अनुभूतियों के कारण जीवन
की शोभा और सार्थकता है अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण उपलब्ध होने वाली
सुविधा-असुविधा का इतना महत्व नहीं जितना मानवीय सद्गुणों का। पुरूषार्थ, साहस, धैर्य, संतुलन, दूरदर्शिता जैसे सद्गणों का विकास और परिक्षण प्रतिकूल परिस्थितियों
में ही संभव है। यदि सदा अनुकूलता बनी रहेगी तो फिर ढर्रे का जीवन जीने वाले गुणों
की दृष्टि से पिछड़े ही पडे़ रहेंगे। इस प्रकार के विकास की उन्हें आवश्यकता ही
अनुभव न होंगी। अनुकूल स्थिति के लाभ उठाकर हम अपने सुविधा साधनों को बढ़ाएँ और
प्रतिकूलता के पत्थर से घिसकर अपनी प्रतिभा पैनी करें-यह उचित है और यही उपयुक्त।
कई व्यक्ति प्रतिकूल स्थिति में मानसिक
संतुलन खो बैठते है और बेहिसाब दु:खी रहने लगते है। एक बार प्रयत्न करने पर कष्ट
दूर नहीं हुआ या सफलता नहीं मिली तो निराश हो बैठते है। कई व्यक्ति इससे भी आगे
बढ़े-चढ़े होते है और भविष्य में विपत्ति आने की आशंका करते रहते है। प्रस्तुत
असुविधा के समाधान का पुरूषार्थ करें, उपाय
सोचें, इसकी उपेक्षा वे चिंता, भय, निराशा, आशंका, उद्विगन्ता जैसी उलझनें खड़ी करके अपने को उसमें फँसा लेते है और स्वनिर्मित
एक नई विपत्ति गढ़कर खड़ी कर लेते है।
साहसी व्यक्ति कठिनाइयों को अपने पौरूष
के लिए एक चुनौती मानता है। आत्मविशवासी अपने पुरूषार्थ के बल पर बड़ी दीखने वाली
कठनाई को तुच्छ सिद्ध करते है। कठिनाइयों से ग्रस्त व्यक्ति भी यदि धैर्य और
संतुलन से काम लें तो उन्हें कोई न कोई रास्ता अवश्य मिल सकता है। वर्तमान पर
केन्द्रित रहना सीख लिया जाय तो चिंता करने के लिए न तो अवसर मिलेगा और न ही
आवश्यता प्रतीत होगी। जिसे बदला नहीं जा सकता उसे शांति से सहन करना चाहिए। कठनाई
की घड़ी में अपेक्षाकृत अधिक साहस और अधिक पुरूषार्थ की जरूरत पड़ती है। इन दोनों
महान अवलंबनों को चिंता की आग में जलाकर स्वंय असहाय बन जाने में कुछ बुद्धिमानी
की बात नहीं है।
सफल समुन्त जीवन का सूत्र
शरीर में शक्ति का अभाव नहीं। वह इतनी
प्रचुर मात्रा में मौजूद है कि यदि उसे ढ़ग से खर्च किया जाय तो आमतौर से लोग
जितना काम करते है उसकी तुलना में कम से कम दूना काम तो सहज ही किया जा सकता है।
होता यह है कि सार्थक प्रयोजनों में जितनी शक्ति खर्च होती है उससे कहीं अधिक
निरर्थक कार्यो में खर्च होती रहती है। यदि सतर्कता से काम लिया जाय तो इस
अनावश्यक अपव्यय को बचाया जा सकता है और ऐसे कार्यो में लगाया जा सकता है जिनसे
कुछ प्रयोजन सिद्ध होता है।
कितने ही व्यक्ति जीवनक्रम के साधारण
उतार-चढ़ावों को आकाश-पाताल जैसा
बढ़ा-चढाकर देखते है। और उनसे असाधारण रूप से उद्धिन्ग-उतेजित हो जाते है। मानसिक
उद्वेग जितनी शक्ति नष्ट करता है उसे यदि सृजनात्मक चिंतन में लगाया जाय तो न केवल
असाधरण ज्ञान वृद्धि हो सकती है वरन् वर्तमान स्थिति से उँचे उठने, आगे बढ़ने के उपाय भी सामने आ सकता है।
जो व्यक्ति जितना ही मानसिक तनाव या दबाव अनुभव करेगा, उतना ही शरीर और मन रूग्ण एवं अस्त-व्यस्तता
कहा जा सकता है। ऐसी मन:स्थिति का व्यक्ति अपने लिए और अपने साथियों के लिए एक
समस्या बनकर रहता है। न वह स्वंय चैन से बैठता है और न दूसरों को बैठने देता है।
जब काम करना है तब पूरे मन,
पूरे श्रम, पूरे मनोयोग के साथ पूरी दिलचस्पी और
तत्परता के साथ उसे करने में जुटना चाहिए। इस प्रकार तन्मयता से काम किया जाय तो
वह अधिक मात्रा में भी होगा और उसका स्तर भी उँचा रहेगा। अन्वेषक और विज्ञानी यही
करते है।
शक्ति को अनावश्यक कार्यो से बचाना, उसे उपयोगी कार्यो में लगाना, हल्के मन से किंतु पूरी दिलचस्पी से
साथ काम करना, श्रम और विश्राम को एक दूसरे से जोड़कर
चलना ऐसे सूत्र है जिन्हें अपनाकर अच्छा और अधिक काम किया जा सकता है।
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