Saturday, October 20, 2012

तीनों गुणों से पार-मुक्ति का द्वार


सत्त्वं रजस्तम इति गुणा: प्रकृतिसम्भवा:।
निबन्धन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।।
श्रीमद्भगवतगीता 14/5
‘‘हे अर्जुन! सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण-ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीवात्मा को बाँधते हैं’’ तमोगुण अज्ञान से उत्पन्न होता है। वह जीवात्मा को प्रमाद( इंद्रियों और अंत:करण की व्यर्थ चेष्टाओं का नाम), आलस्य( कर्त्त्ाव्य कर्म में अप्रवृ​ित्त्ारूपी निरूद्यमता का नात) और निद्रा के द्वारा बाँधता है। राग रूप रजोगुण कामना और आसक्ति से आविभ्र्ाूत होता है। वह इस जीवात्मा को कमोर्ं के और उनके फल के संबंध से बाँधता है। सत्त्वगुण निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला और विकाररहित है। वह सुख के संबंध से और ज्ञाता-ज्ञान के संबंधों से अर्थात अभिमान से बाँधता है, पंरतु कर्मयोग द्वारा तमोगुण से, निष्कामता के द्वारा रजोगुण से एवं भक्ति के द्वारा सतोगुण के उपर उठा जा सकता है।
तमोगुण के बढ़ने पर अत:करण और इ्रद्रियों में जड़ता आ जाती है। कार्य करने की इच्छा समाप्त हो जाती है। मन में नकारात्मक विचारों का जमघट लग जाता है। शरीर बस यों ही पड़ा रहता है और आलस्य का घर बन जाता है। जब व्यक्ति सोता है तो फिर उसे कोर्इ होश ही नहीं रहता है। निद्रा उसकी अभिन्न सहचरी बन जाती है। व्यक्ति यों ही निश्चेष्ट, निष्क्रिय और मुरदे के समान पड़ा रहता है। तमस् के मुख्य लक्षण है जड़ता। शरीर, मन सभी जड़वत् हो जाते हैं और हृदय में भाव जगता ही नहीं है कुछ करने के लिए। ऐसा व्यक्ति दूसरों के दु:ख से संवेदित नहीं हो सकता।
तमोगुणी घोर स्वाथ्र्ाी और दूसरों पर आश्रित होता है। वह स्वतंत्र रूप से कोर्इ भी कार्य नहीं कर सकता है और करता है तो केवल अपने लिए,दूसरों के प्रति वह कुछ नहीं कर सकता है। वह आलस्य, प्रमाद और निद्रा की जीती-जागती मूर्ति होता है। इस अवस्था में एक अजीब सी जड़त छार्इ रहती है, जिसमें मनुष्य और पशु के बीच कोर्इ विभेदक दीवार दिखार्इ नहीं देती। दोनों के बीच समानता दृष्टिगोचर होती है। पतंजलि ने इसे मूढ़ावस्था की संज्ञा दी है। इस अवस्था में चित्त्ा सिकुड़ता है और वह मनुष्य योनि से कीट, पशु आदि निम्न योनियो को तथा नरक को प्राप्त होता है।
रजोगुण क्रियाशीलता को प्रतीक है। इसके बढ़ने पर लोभ, अति महत्त्वाकांक्षा, विषय-भोगों की घोर लालसा, स्वार्थबुद्धि प्रकट होती है। जब मनुष्य इस अवस्था में आता है तो कुछ पाने की लालसा से अति कर्म करने लगता है। इसके करने में पाने की तीव्र इच्छा समार्इ रहती है। वह करता है ही कुछ पाने के लिए। जितना अधिक करता है, उतना अधिक पाने का सपना सँजोता है। इसकी नियति बन जाती है-बस करते जाओ और विभिन्न चीजों को उपलब्ध करते जाओ। इसकी यह यात्रा थमती नहीं, बस, अंतहीन पथ पर सब कुछ पाने के लिए चलती रहती है। इससे उसके अंदर लोभ पैदा हो जाता है। लोभ तो ऐसी अग्नि की ज्वाला है, जो कभी बुझती नहीं है। इच्छा और महत्त्वकांक्षा के हविष्य से यह और भी धधकने लगती है। यह है रजोगुण की क्रियाशीलता।
रजोगुण में पाप-पुण्य, दोनों प्रकट होते है। इसमें मन चंचल होता है। सुख, दु:ख, चिंता, परेशानी सतत बनी रहती है। जब व्यक्ति कोर्इ सत्कर्म करता है तो पुण्य में वृद्धि होती है। पुण्य से साधन-सुविधाओं का अंबार खड़ा हो जाता है। चारों ओर सुख का वातावरण बन जाता है। सुख-भोग के समय उसका अहंकार बढ़ जाता है। कि वह कुछ भी करे तो उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा। बस, क्या है कि वह उन्मादी होकर पापकर्म करने लगता है, जिसके परिणामस्वरूप उसे दु:ख, कष्ट, आदि भोगने पड़ते है। इस अवस्था में साधना नहीं हो पाती।
सत्वगुण निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला और विकाररहित होता है। इससे ज्ञान उत्पन्न होता है। इसका फल सुख, ज्ञान और वैराग्य कहा गया है। सत्त्वगुण में पुरूष स्वर्गादि उच्च लोकों को प्राप्त करता है, पंरतु यह ज्ञान से संबंधित होने के कारण अभिमान को उत्पन्न करता है। जिससे मनुष्य का पतन होने की संभावना रहती है। सतोगुणी को श्रेष्ठ अवस्था कहा जाता है, क्योंकि यह अध्यात्म का प्रवेशद्वार है। इसी द्वार से अंतपर््रज्ञा के विभिन्न आयाम प्रकट होते है।
सत्, रज, तम गुणों से निवृ​ित्त्ा के लिए भी योगीजन साधन एवं साधना का विधान देते है। तमोगुण से कर्मकांड द्वारा निवृत्त्ा हुआ जा सकता है तमोगुण अर्थात जड़ता एवं दु:खद संस्कार। दु:ख्निवारक कर्मकांड, ज्ौसे दुर्गा, गायत्री, हनुमान, महामृत्युजय आदि का पाठ, जप एवं ध्यान करने से अंतर में अंधकार छँटता-मिटता है। कर्म करने पर आलस्य एवं प्रमाद मिटते है और व्यक्ति क्रियाशील होने लगता है। क्रियाशीलता रजोगुण का लक्षण है। अत: विभिन्न प्रकार के क्रियाकलापों द्वारा तमोगुण को क्षीण किया जा सकता है।
रजोगुण में कार्य एवं उसकी उपलब्धि, दोनों चरम पर होते है। कर्म की जितनी तीव्रता होती है, उसके फल को पाने की लालसा भी उतनी ही अधिक होती है। इस अवस्था में बहुत कुछ पाने की धुन समार्इ रहती  है, पंरतु निष्कामता से इसका शमन होता है। निष्कामता अर्थात श्रेष्ठतम एवं तीव्रतम कर्म, पंरतु इसके परिणाम को पाने की चाहत का न होना। जैसे-जैसे निष्कामता सधती जाती है, रजोगुुण गिरता जाता है और रजोगुणयुक्त पुरूष सत्त्वगुण में प्रतिष्ठित होने लगता हैं। गुरू अपने शिष्य में पहले जड़ता को समाप्त करने के लिए कर्मकांड कराता है, फिर उसकी महत्त्वाकांक्षा को बढ़ाता है, जिससे वह कर्म में प्रवृत होता है। जब महत्त्वाकांक्षा और लोभ की ज्वाला जलने लगती है तो वह भक्ति का जल उँड़ेल कर उसे शांत कर देता है और उसे सत्त्वगुण में प्रतिष्ठित कर देता है।
सत्त्वगुण से प्राप्त सुख एवं ज्ञान से जो अभिमान उठता है, वह भी अत्ंयत हानिकारक होता है, पंरतु भक्ति एवं सेवा के द्वारा वह अभिमान गल जाता है। भक्ति की जलधारा में सत्त्वगुण का अभिमान बह जाता है और बचती है तो केवल भक्ति। भक्ति और अहंकार, दोनों साथ-साथ नहीं रहते-एक के रहने पर दूसरा नहीं रहता और दूसरे के रहने पर पहला नहीं होता है। अत: भक्ति की भावधारा में सत्त्वगुण से उत्क्रांति कर जाना चाहिए। इस प्रकार भगवान कृष्ण कहते है कि जो पुरूष सत्त्वगुण के कार्यरूप प्रकाश को, रजोगुण के कार्यरूप प्रवृ​ित्त्ा को तथा तमोगुण के कार्यरूप मोह को न तो प्रवृत होने पर उनसे द्वेष करता है और न निवृत होने पर उनकी आकांक्षा करता है, वह भक्तियोग के द्वारा मुझमें तदाकार-तद्रूप हो जाता है।
अखंड़ ज्योति जून 2011

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