मंदिर वस्तुत: जन जागरण का केंद्र थे।
सिक्खों के गुरूद्वारों को आप देखते है।
किसी जमाने में जब मुसलमानों का दबदबा बहुत ज्यादा था, अत्याचार भी बहुत होते थे, तब सिक्खों के गुरूद्वारे में जहाँ एक
ओर भगवान् की भक्ति की बात होती थी, वहीं
दूसरी ओर इस बात को भी स्थान दिया गया कि एक हाथ मे माला और दुसरे हाथ में भाला
लेकर के सिख धर्म के अनुयायी खड़े हों और समाज में जो अनीति फैली हुई है, उसका मुकाबला करें। मंदिर थे, गुरूद्वारे थे, पर तब उन में लोकसेवा की, लोकमानस के परिष्कार की कितनी
प्रक्रिया विद्यमान थी।
ये चीजें जो भगवान् को मंदिरों के
माध्यम से जो भगवान् के निमित्त् चढ़ाइ जाती है, उनके पीछे सिर्फ एक ही उदेद्श्ये छिपा था कि लोकसेवी को, जो एक तरीके से भगवान् के प्रतिनिधि
कहे जा सकते है, जिन्होंने अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की
तिलांजलि दी और अपनी व्यक्तिगत सुविधाओं को ताक पर रख दिया, जिन्होंने केवल लोकमंगल का ही ध्यान
रखा, केवल भगवान् के संदेशों का ही ध्यान
रखा, भगवान् के प्रतिनिधि न कहें तो क्या
कहें? भगवान् के प्रतिनिधियों को जीवनयापन
करने के लिए निवास से लेकर भोजन, वस्त्र
तक और दुसरी चीजों के खर्च की आवश्यकेता के लिए मंदिरों का बनाया गया। यह एक
मुनासिब क्रम था।
मित्रो! समर्थ गुरू रामदास ने भी यही
किया था। जब अपना देश बहुत दिनों तक पराधीन हो गया, तो उन्होंने कि जनता को संघबद्ध करने के लिए, जनता को दिशा देने के लिए और
जन-सहयोग का केन्द्रीकरण करने के लिए कोई
बड़ा काम किया जाना चाहिए। समर्थ गुरू
रामदास ने महाराष्ट्र भर में घूम-घूमकर सात सौ महावीर मंदिर बनाए। वे मंदिर केवल
हनुमान जी को मिठाई या चूरमा-लडडू खिलाने के लिए नहीं बनाए गए थे। हनुमान जी तो
पेड़ पर चढ़कर भी अपना फल,
लडडू-चूरमा खा सकते है। उन्हें क्या
गरज पड़ी है कि वे किसी का चूरमा और लडडू खाएँ?
वे तो अपने हाथ-पाँव से मेहनत करके खुद
खा सकते है और सैकड़ों बंदरों को भी खिला सकते है। वे किसी का लडडू और चूरमा खाने
के लिए भूखें कहाँ है? लेकिन महावीर स्थान, जो जगह-जगह सारे महाराष्ट्र में समर्थ
गुरू रामदास के द्वारा बनाए गए, उसका
एक ही उद्देश्य था कि इनमें था कि इनमें जो काम करने वाले व्यक्ति है, वे जनता से सीधा संपर्क बनाएँ। उन सात
सौ महावीर मंदिरों में ऐसे तीखे और भावनाशील पुजारी रखे गए, जिन्होंने गाँव को ही नहीं, पूरे इलाके को जगा दिया। वह सात सौ
इलाकों में बँटा हुआ महाराष्ट्र एक तरिके से संगठित होता हुआ चला गया।
समर्थ के मंदिर व्यायामशालाएँ
साथियों! समर्थ गुरू रामदास ने छत्रपति
शिवजी से सिर पर हाथ रखा और कहा कि भारतीय स्वाधीनता के लिए, भारतीय धर्म की रक्षा करने के लिए
तुम्हें बढ़-चढ़कर काम करना चाहिए। शिवजी ने कि मेरे पास वैसी साधन-सामग्री कहाँ
है? मैं तो छोटे से गाँव का एक अकेला छोकरा, इतने बड़े काम को कैसे कर सकता हूँ।
समर्थ गूरू रामदास ने कहा,’’
मैंने पहले से ही उसकी व्यवस्था सात सौ
गाँवों में महावीर मंदिर के रूप में बनाकर के रखी है। जहाँ जनता का काम करने वाले
बड़े प्रकांड, समझदार एवं मनस्वी लोग काम करते है।
पुजारी पद का अर्थ मरा हुआ आदमी, बीमार, बुढा, निकम्मा, बेकार आदमी नही है। पुजारी का
अर्थ-जिसे भगवान् का नुमाइंदा या भगवान् का प्रतिनिधि कहा जा सके। जहाँ ऐसे समर्थ
व्यक्ति हों, समझना चाहिए, वहाँ पुजारी की आवश्यकता पूरी हो गई ’’
पुजारी तो भगवान् जैसा ही होना चाहिए।
भगवान् राम के पुजारी कौन थे? हनुमान
जी थे। अत: कुछ इस तरह का पुजारी हो, तो
कुछ बात भी बने। इसी तरह के पुजारी समर्थ गुरू रामदास ने सारे के सारे महाराष्ट्र
में रखे थे। इन सात सौ समर्थ पुजारियों ने उस इलाके में जो फिजा, वो परिस्थितियाँ पैदा कीं कि छत्रपति
शिवाजी के लिए जब सेना की आवश्यकता पड़ी, तो
उन्हीं सात सौ इलाके से बराबर उनकी सेना की आवश्यकता पूरी की जाती रही।
इसी प्रकार जब उनको पैसे की आवश्यकता
पड़ी, तो उन छोटे से देहातों से, जिनमें कि महावीर स्थापित किए गए थे, वहाँ से पैसे की आवश्यकता को पूरा किया
गया। अनाज भी वहाँ से आया। उसी इलाके में जो लौहार थे, उन्होंने हथियार बनाए। इस तरह जगह-जगह
से छिटपुट हथियार बनते रहें। अगर एक जगह पर हथियार बनाने की फैक्ट्री होती तो शायद
विरोधियों को पता चल जाता और उन्होंने उस स्थान को रोका होता। वे सावधान हो गए
होते। मिलिट्री एक ही जगह रखी गई होती, तो
विरोधियों को पता चल जाता और उसे रोकने की कोशिश की गई होती। लेकिन सात सौ गाँवों में पुजारियों के
रूप में एक अलग तरह की छावनियाँ पड़ी हुई
थी। हर जगह इन सैनिकों को टे्रनिंग दी जाती थी। हर जगह इन छावनियों में
दस-बीस वालंटियर आते थे और वहीं से पैसा धन व अनाज आता था। इस तरिके के मंदिरों के
माध्यम के समर्थ गुरू रामदास ने छत्रपति शिवाजी को आगे करके इतना बड़ा काम कर
दिखाया।
मूल उद्देश्य हम भूल गए
मित्रों! मंदिर जन-जागरण के केंद्र
बनाए जा सकते है। मंदिरों का उपयोग लोकमंगल के लिए किया जा सकता है। क्योंकि उसके
पास इमारत होती है। इमारत तो हर सेवा केंद्र के पास होनी चाहिए, परंतु इसके अलावा वह व्यवस्था भी होनी
चाहिए, जिससे कि उस क्षेत्र के कार्यकर्ताओ का, निवसियों का, गुजारे का प्रबंध किया जा सके। इस ।
गुजारे का प्रबंध तभी हो सकता है, जब
आजीविका के स्त्रोतों से जनता, इसके
लिए त्यागवृति पैदा की जा सके। मनुष्य में यह भावना पैदा की जा सके कि हमने भगवान्
को दिया है, तुमको नहीं। इससे आदमी का मन हलका होता
है। त्याग और सेवा की वृति पैदा होती है। वह धन का एक केंद्र पर इकठठा् होने से
समाज के लिए उससे उपयोगी काम किए जा सकते है।
प्राचीनकाल में मंदिर इसी उद्देश्य से
बनाए गए थे। समाज में सत्प्रवृतियो का विकास वास्तव में भगवान् की सेवा का एक
बहुत बड़ा काम है। लेकिन आज मैं क्या कहूँ! मंदिरों को देखकर रोना आता है। आज
मंदिरों पर मंदिर बनते चले जा रहे है। करोड़ों रूपया खरच होता है। क्या ऐसा संभव
नहीं था कि करोड़ों रूपयों से बनने वाली इमारत को इस ढंग से बनाया गया होता कि
वहाँ लोकसेवा की प्रवृतियो के लिए गुंजाइश रहती और भगवान् के निवास की भी, एक जगह बना दी गई होती। अब तो सारी की
सारी इमारतें इसी काम के लिए बनाई जाती है कि उसमें केवल भगवान् बैठे।
लोकसेवा की प्रवृतियो का केंद्र हो
मंदिर
मित्रो! मंदिरों की इमारतों को अगर इस
ढ़ग से बनाया गया होता कि जिनमें मंदिर के साथ-साथ पाठशाला, प्रौढ़पाठशाला, संगीत विद्यालय, वाचनालय और कथा-कीर्तन का कक्ष भी बना
होता, उसके आस-पास व्यायामशाला भी होती और
थोड़ी-सी जगह में चिकित्सालय का भी प्रबंध होता, बच्चों के खेलने की भी जगह होती। इस तरीके से लोकमंगल की, लोकसेवा की, लोकसेवा की अनेक प्रवृतियो का एक
केंद्र अगर वहाँ बना दिया गया होता और वहीं एक जगह भगवान की भी स्थापना होती, तो जो धन मंदिरों में चढ़ाया जाता है, उसका ठीक तरिके से उपयोग होता। ऐसी
स्थिति में मंदिरों के द्वारा कितना बड़ा लाभ होता।
साथियों! आपने गिरजाघरों को देखा है। वहाँ
कहीं मरियम की मूर्ति लगी रहती है, तो
कहीं-कहीं ईसा की प्रतिमा लगी रहती है। एक छोटा सा प्रार्थनाकक्ष होता है। कहीं
इसमें अस्पताल या दवाखाने वाला हिस्सा होता है। कहीं पादरियों के रहने का हिस्सा
होता है। कहीं एक छोटा सा दफतर बना होता है। इस तरह भगवान् का एक छोटा-सा केंद्र
बनाने के बाद में बाकी सारी की सारी इमारत, सारा
स्थान लोकमंगल के लिए होता है। पहले भारतवर्ष में भी ऐसा ही किया जाता था और किया
भी जाना चाहिए, लेकिन आज तो मंदिरों की दशा देखकर हँसी
आती है और क्रौध भी। आज मंदिरों का सारा का सारा धन कुछ चंद लोगों के निहित स्वार्थ के लिए खर्च हो जाता
है। जो कुछ भी चढ़ाया या दान आया, कुछ
निहित स्वार्थ के लिए मठाधीशों और मंदिरों के स्वामी और दूसरे महंतों के पेट में
चला गया।
प्रगतिशील मंदिरों की आवश्यकता
मित्रों! अब समय आ गया है, जबकि मंदिरों का स्वरूप बदल दिया जाए।
नमूने के लिए अब ऐसे मंदिर बनाए जा सकते है, जिनमें
प्रयोगशाला के तरीके से लोग देख पाँए कि मंदिरों का सही इस्तेमाल क्या हो सकता है
और क्या होना चाहिए? हमने गायत्री तपोभूमि का मंदिर लोगों
के सामने एक नमूना पेश करने की खातिर बनाया है। यों तो अपने देश में इतने सारे
मंदिर है। भगवान् तो एक ही है। उनको ही शंकर कह दिजिए, हनुमान कह दिजिए। अनेक भगवान् नहीं हो
सकते, हाँ उनके नाम अनेक हो सकते है। मंदिर
में मूर्ति रख देना ही काफी नहीं है। वरन् मूर्ति के साथ-साथ उन भगवान् से संबंधित
वृतियो को आगे बढ़ाया जाना और फैलाया जाना भी आवश्यक है। अपने यहाँ यही तो होता
है। कितने कार्य होते है-विद्यालय वहाँ चलता है, प्रकाशन वहाँ होता है, देश
भर के लिए कार्यकर्ता वहाँ से भेजे जाते है और न जाने क्या-क्या किया जाता है।
लेकिन उस मंदिर तक ही हम सीमाबद्ध नही है। यदि सीमाबद्ध हो जाते, तो उसको प्रगतिशील मंदिर नहीं कहा जा
सकता था। अब हमको प्रगतिशील मंदिरों की स्थापना की आवश्यकता है। समाज का नया
निर्माण करने के लिए नए-नए रचनात्मक केंद्र खोले जाने चाहिए।
अध्यात्म-चेतना के विस्तार में नियोजन
हो
साथियों! मंदिरों के नाम पर
कराड़ों-अरबों रूपये की संपतियाँ ऐसे ही पड़ा रहने दें, यह कैसे हो सकता है। इस संपत्ति को ठीक
तरिके से इस्तेमाल किया जाना चाहिए। उसके लिए समझदार लोगों का, धार्मिक लोगों को आगे आना चाहिए और इस
आवश्यकता को महसूस करना चाहिए कि यदि धर्म को जिंदा रहना है, तो वह ढोंग के रूप में नहीं जिएगा। वह
केवल कर्मकांड के रूप में जिंदा नहीं रहेगा। बेशक धर्म के साथ में कर्मकांडरूपी
कलेवर जिंदा रहे, लेकिन कर्मकांडों के साथ-साथ उन
सत्प्रवृत्तियो को भी जीवित रखा जाना चाहिए, जिनसें
लोक-मंगल की और समाज की आवश्यकताएँ पूरी होती है। धर्म केवल कर्मकांड नहीं
है। धर्म केवल आडंबर नहीं है। धर्म केवल
पूजा-पाठ की प्रक्रिया नहीं है, वरन्
इस पूजा -पाठ की प्रक्रिया और धार्मिक-कृत्यों के पीछे और साथ-साथ में एक महती
आवश्यकता जुड़ी हुई है कि हम व्यक्ति के अंतरंग को, उसकी भावनाओं को कैसे उँचा उठाएँ। समाज के अंदर फैली हुई धार्मिक
व्रतियो को कैसे बढ़ाएँ। यह सारे-के सारे
क्रियाकलाप जिस माध्यम से और जिस आधार पर पूरे किए जा सकते है, उसके लिए केंद्र या एक स्थान होना ही
चाहिए। वह जगह हमारे मंदिर ही हो सकते है।
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