गुरूवर, तेरा सुन्दर मंदिर, है मेरा ये मानव तन
तेर पद पंकज धोने को हैं बहते, नैनों से ये अश्रुकण
स्नेह भरा जलता है नित, मेरा ये दीपक मन
श्वांस-श्वांस में होती गुरूवर, तेरी पूजा, तेरा अर्चन
श्री रामचंद्र दत्त गृहस्थी शिष्य थे
ठाकुर रामकृष्ण परमहंस के। वे अपने गुरूदेव से अनन्य प्रेम किया करते थे। जब भी
बाजार में कोई अच्छी वस्तु देखते, उसे तुरंत खरीद लेते। अपने लिए नहीं अपने गुरूदेव के लिए! फिर जब
ठाकुर के दर्शन के लिए जाया करते, तो काफी सारें फल-मिठार्इयाँ-वस्त्र व वह खरीदी हुई वस्तु लेकर जाते।
उस दिन दत्त महाशय श्री ठाकुर के दर्शनार्थ दक्षिणेशवर पहुँचे। ठाकुर के चरणों में
ज्यों ही प्रणाम किया, ठाकुर एक बालक की नाई बोले ‘दिखा तो आज मेरे लिए क्या-क्या लाया है?’ दत्त महाशय ने अपनी पोटली खोली और
एक-एक वस्तु ठाकुर के चरणों में रखने लगे। पर ठाकुर आज बेहद अधीर हो गए थे।
उन्होने रामचंद्र दत्त के हाथ से पोटाली खींच ली और बोले-ला, इधर दे मुझे! क्या धीरे-धीरे हाथ चला
रहा है। फिर एकाएक ठाकुर को बड़ा कौतुक सूझा। उन्होने पोटली से एक वस्तु निकाली और
पास बैठे शिष्य की ओर उछाल दी । वह शिष्य उस वस्तु को प्रसाद रूप में ग्रहण कर
बेहद प्रसन्न हुआ। फिर दूसरी वस्तु निकाली और उसे दूसरे शिष्य की ओर हवा में उछाल
दिया इस तरह ठाकुर ने रामचंद्र दत्त की सारी वस्तुएँ अपने शिष्यों में बाँट दी। यह
देख रामचंद्र के मन को ठेस लगी। उनकी व्यवसाचत्मिक बुद्धि हरकत में आ गई । वे
सोचने लगे ये क्या करते है ठाकुर? इतनी किमती चीजें इन मुफ्तखोर लड़कों में उड़ा दी! कितना अच्छा होता
यदि इन सभी चीजों को ठाकुर अपने पास रख लेते। इनका लम्बे समय तक उपयोग करते। तब
मेरा धन सार्थक होता। पर अब यूँ ही व्यर्थ चला गया। इतना सोचना था कि ठाकुर की
भावदशा ही बदल गई । कहाँ वे अभी अबोध बालक की तरह वस्तुओं से खेल रहे थे और कहाँ
वे एकदम गंभीर हो गए! आवेश में आकर अपने आसन से खड़े हो गए और पोटली रामचंद्र की
ओर फेंक दी। बोले-’ले जा, ले जा अपनी चीजें वापिस नहीं चाहिए मुझे तेरा कुछ भी और जो भी आज तक
तुने मुझे दिया है, वह भी लौटा दूँगा। काली माँ से कहुँगा तुझे दुगुणा करके लौटा दे पर आज
के बाद तू मुझे अपना मुँह मत दिखाना यहाँ भी पटवारी बुद्धि चला रहा है! गणित में
लगा हुआ है, अरे
तेरा धन व्यर्थ नहीं गया। ये मुफ्तखोर लड़के नहीं है। ये तो युवा सन्यासी है, जो कल विश्व के नायक बनेगें पर तु क्या
समझेगा? दूर
हो जा मेरी नजरों से दो-चार चीजें देकर मुझे खरीदना चाहता है! मेरे शिष्यों से
मुझे जुदा करना चाहता है। आज के बाद मुझे कभी अपनी सुरत मत दिखाना। ठाकुर तेज
कदमों से अपने कक्ष की ओर चले गए और सांकल लगा ली।
रामचंद्र दत्त तो जैसे आसमान से किसी
अतल खार्इ में जा गिरे। उनकी जिह्म लंगड़े अश्व की तरह छटपटाने लगी।’ ठाकुर ठाकुर उन्होनें ठाकुर के कक्ष के
द्वार पर जाकर क्षमा माँगी। जार-बेजार हो गए। पर ठाकुर के द्वार नहीं खुले। ठाकुर
को इस हद तक रूष्ठ किसी ने पहले नहीं देखा था। रामचंद्र का हाल बेहाल हो गया था।
समझ नहीं पा रहे थे कि वे ठाकुर का कैसे मनाएँ। साधना के लिए बैठे तो ठाकुर के वचन
गूँजने लगे घबराकर खडे़ हो गए। ठाकुर के स्वरूप के आगे प्रार्थना में हाथ जोड़े, तो सहमा हृदय भावों की लड़ी न पिरो
सका। अंत में, रामचंद्र
दत्त् को केवल एक मार्ग दिखा। उनके कण्ठ से, प्राणों से, हृदय से ओम नमो भगवते रामकृष्णाय बहने
लगा। घड़ियाँ बीतने लगीं। संध्या ढ़ल गई रात गहराने लगी। पर रामचंद्र दत्त लीन हो
अपने ठाकुर रामकृष्ण परमहंस का स्मरण करते रहे। आखिरकार, कक्ष के द्वार खुले ठाकुर बाहर आ गये। रामचंद्र दत्त को कंधों से
पकड़कर उठाया और अपने गले लगा लिया। बोले-चल बहुत हुआ! हो गया तेरा परिमार्जन! अब
यूँ ही मुझे पुकारता रहा, तो मैं कैसे तेरा चिंतन किए बिना रह पाउँगा जा, खुद भी आराम कर और मुझे भी आराम कर
लेने दे।
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