Wednesday, October 17, 2012

पौराणिक कथा सत्संग से मुक्ति


भगवद्भक्त गोकर्ण सुदंर पुष्पों से सज्जित व्यासपीठ पर गौरवपूर्ण आसीन है। श्रीमद्भागवत कथा का शुभारंभ होना है।  कथा धुंधुकारी प्रेतात्मा की मुक्ति के निमित्त् सात दिन क लिए आयोजित है। मंगलाचरण के बाद गोकर्ण ने अपनी मधुरवाणी से भागवत की कथा प्रांरभ की। ठीक उसी समय धुंधुकारी प्रेत ने भी कथामंडप  में प्रवेश किया और बैठने के लिए अपना स्थान तलाशने लगा। उसे कोई भी उपयुक्त स्थान नजर नहीं आया। गोकर्ण ने उसे एक बाँस की ओर संकेत किया, जिसमें सात गाँठें थी। गोकर्ण ने कहा -’’ धुंधुकारी! तुम इसी बाँस में वायु रूप में समा जाओ और अपनी मुक्ति के लिए ध्यान से भागवत की कथा सुनो।
प्रथम दिन की भागवत कथा समाप्त होते ही वहाँ खड़े बाँस की एक गाँठ बड़ी कड़कड़ाहट के साथ टुट गई इसको टुटते हुए सभी ने देखा और आवाज भी सुनी, पर किसी को यह पता नहीं चला कि यह आखिर क्यों हुआ? कथा के अंत में गोकर्ण ने धुंधुकारी को वहीं बाँस में रहने की हिदायत दी और कहा- ‘‘ हे भ्राता! आप निशिचिंत हो जाएँ। आप इस प्रेतयोनि से मुक्त हो जाएँगें, अत: आप इस कथामंडप के आस-पास ही बने रहे। यहाँ से बाहर न जाएँ। ‘‘गोकर्ण और प्रेत के बीच यह संवाद चल रहा था। वहाँ खड़े सभी लोगों ने गोकर्ण को एक बाँस के साथ बात करते देखा और हैरानी प्रकट करने लगें। रात्रि भोजनपरांत गोकर्ण विश्राम करने लगे। उसी समय उनके घर उनकी रिश्ते की एक बहन दीपाली आई और अपने बड़े भ्राता के चरण स्पर्श करके उनके पास बैठ गई। दीपाली अपने प्रिय भ्राता को जानती थी। वह उनके तपस्वी वे सेवाभावी जीवन, संवेदनशीलता, तेजस्विता, बुद्धिमत्ता आदि दिव्य गुणों से खुब परिचित थी। उनके प्रेत से बात करते समय वह भी वहाँ उपस्थित थी। दीपाली ने पुछा-’’ भैया! एक बात पुछें। मना तो नहीं करेंगे न!’’ गोकर्ण ने कहा-’’ अरे! कैसी बात करती हो। पछो, जो पुछना है। आज तुम्हारें भैया तुम्हारी सभी जिज्ञासाओं को शांत करेंगे। ‘‘ तो फिर आप ये बताइए कि आप बाँस से बात कर रहें थे या किसी और से?’’ गोकर्ण मुस्कराया और कहा-’’ अच्छा, तो तुम भी वहाँ खड़ी थी दीपाली! यह एक लंबी कहानी है, जो मेरे जीवन से जुड़ी हुई है।’’
गोकर्ण को अपने अतीत की सुनहली स्मृतियाँ ताजा हो आई और वे कहने लगे-’’पूर्वकाल में दक्षिण भारत की तुंगभद्रा नदी के तट पर एक सुंदर नगरी थी। वहाँ आत्मदेव नामक एक सदाचारी, विद्वान एवं संपन्न ब्राह्मण रहते थे। उनकी पत्नी थी धुंधुली। पत्नी बड़ी कर्कश, कलहकारिणी एवंत माम दुर्गुणों से युक्त थी। उन दंपती को सभी प्रकार के सांसारिक सुख प्राप्त होने पर भी संतान का अभाव घनघोर पीड़ा देता था।
आत्मदेव इसकी पीड़ा से अधिक पीड़ित थे, परंतु उनकी पत्नी को इन सबसे कोई अधिक वास्ता न था। वह तो अपनी ईर्ष्या , द्वेष एवं कलह की दुनिया में विचरण करती रहती थी और खाली समय में अपने पति को कटाक्ष एवं व्यंग्य बाणों से घायल करती रहती थी। अपने इस कार्य से उसे जरा भी दु:ख नहीं होता था। आत्मदेव जितना संवेदनशील एवं सेवापरायण थे, धुंधुली उतनी ही कठोर, रूक्ष एवं स्वार्थी थी। इसके बावजूद आत्मदेव को अपनी पत्नी से कोई  शिकायत नहीं थी, वे अपना भोग समझकर सब कुछ झेल जाते थे।
‘‘ संतान न होने के दु:ख से दुखी आत्मदेव तुंगभद्रा नदी के तट पर बैठे देख रहे थे कि कैसे नदी की लहरें किनारे को सहला रही है। नदी की इस धारा से उनको एक संगीत उभरता नजर आया, जिसमें अपने आप बिते जीवन का स्वर समाहित हो रहा था। इससे उनका दर्द और बढ़ गया। महात्मा देखते ही आत्मदेव की पीड़ा भाँप गए। आत्मदेव ने सारी कहानी उन्हें कह सुनाई  । व्यक्ति अपने दु:ख को बाँटना चाहता है, किसी को कहना चाहता है आतुर होकर। महात्मा ने सब कुठ धैर्यपूर्वक सब कुछ सुना और कहा-हे ब्राह्मण देव! जिस संतान की चाहत लिए तुम डोल रहे हो, उसका सुख न तो तुम्हें इस जन्म में प्राप्त होगा और न ही अगले सात जन्म तक ही प्राप्त होगा। तुम्हारे सात जन्मों तक संतति का योग नहीं है। विधि का यही विधान है। यह तुम्हें स्वीकारना ही पड़ेगा। अत: तुम्हें संतान सुख की इच्छा त्यागकर स्वाध्याय करना चाहिए। परमार्थ कार्य करना चाहिए।
‘‘ आत्मदेव ने कहा-’’ हे महात्मा! आप मेरे भविष्य को इतनी सूक्ष्मता से जान सकते है तो आप में यह भी सामथ्र्य होगी कि आप मेरे सूने जीवन में बहार ला सकें। हे देव! आप ऐसा कर सकते है। यदि यह फिर भी संभव न हो सका तो मैं इस नदी में कूद कर अपने प्राण विसर्जित कर दूँगा। महात्मा को यह अजीब तमाशा लगने लगा। उन्होंने सोचा-सच ही कहा गया है कि संन्यासी को किसी भी गृहस्थ दूर रहना चाहिए। महात्मा ने बहुत समझाने का प्रयास किया, परंतु उसे कुछ समझ में नही आया। अंत में महात्मा ने एक फल दिया और कहा-हे ब्राह्मण! इसे ले जाकर अपनी पत्नी खिला देना, परंतु ध्यान रहे, संतान होने तक तुम्हारी पत्नी सदाचरण करे, पवित्र जीवन व्यतीत करे, दान करे और एक समय का अन्न ग्रहण करके रहे। इससे तुम्हें श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति होगी।
‘‘ आत्मदेव अत्यंत आनंदपूर्वक अपनी पत्नी के पास आए। उनका दु:ख पल भर में तिरोहित होकर सुख में परिवर्तित हो गया था। उन्होंने अपनी पत्नी को वह फल दिया और महात्मा द्वारा कही हुई सारी बात समझा दी। धुंधुली ने सोचा- फल खाने से नियमपूर्वक रहना पड़ेगा, गर्भधारण के कष्ट से गुजरना पड़ेगा और पुत्र उत्पन्न होने पर उसका लालन-पालन भी तो करना पड़ेगा। इससे तो बाँझ रहना ही अच्छा है। यह सोचकर उसने वह फल गाय माता को खिला दिया। उन्हीं दिनों धुंधुली की छोटी बहन को एक पुत्र हुआ और उसने उसे धुंधुली को सौंप दिया। सबको बता दिया गया कि यह धुंधली का पुत्र है और उसका नाम धुंधुकारी रखा गया। कुछ महीने बाद गाय को भी एक बालक उत्पन्न हुआ। उसके सभी अंग- अवयव मनुष्य के समान थे, केवल उसके कान गाय के समान थे, इसलिए उसका नाम गोकर्ण रखा गया। ‘‘
दीपाली ध्यान से सारी बातें सुन रही थी। वह कह उठी-’’भैया! आप ही वह गोकर्ण है और धुंधुकारी वह प्रेत, जिनसे आप बात कर रहे थे?’’ गोकर्ण ने कहा -’’हाँ, यही सच है। परंतु धुंधुकारी का जीवन घोर दुष्कर्मों से भरा था। उसने हर कुकर्म किया, जिससे परहेज किया जाता है। संवेदनशील आत्मदेव को इससे गहरा सदमा पहुँचा। वे मेरे कहने से घर छोड़कर कहीं और चले गए, जहाँ वे दीन-दुखियों की सेवा करते और समय मिलने पर परमात्मा का ध्यान करते। पिता के चले जाने के बाद धुंधुकारी ने सारा धन नष्ट कर दिया और माता को सताने लगा। माता धुंधुली को भी तो अपने कर्मो का फल भोगना था। वह इतनी दु:खी हुर्इ कि कुएँ में कुद कर मर गई । इधर घर में वेश्याओं का आवागमन बढ़ गया। मैं घर छोड़कर तीर्थयात्रा करने निकल गया।’’
गोकर्ण ने आगे कहा-’’वेश्याओं ने धुंधुंकारी की सारी संपदा हड़प ली और एक दिन उसे मार दिया। धुंधुकारी अपने दुष्कर्मो से प्रेतयोनि में पहुँच गया। उसकी मृत्यु का समाचार प्राप्त होने पर मैंने श्राद्ध किया और विभिन्न तीर्थों में जाकर पिड़दान किया, परंतु उसको शांति नहीं मिली थी। मैं जब घर वापस आया तो देखा कि उसने उत्पात मचाया हुआ है। एक दिन मेरे सामने आकर घोर पश्चाताप किया और भीषण यातना से छुटने के लिए प्रार्थना की। उसकी मुक्ति के लिए मैंने सूर्यनारायण से परामर्श किया। उन्होंने बताया कि सात दिन तक उसके निमित्त् भागवत कथा कहने से उसकी मुक्ति हो सकती है। दीपाली! यही इस कथा का रहस्य है। ‘‘ दीपाली ने कहा-’’ आप महान है भ्राता!’’ यह कहते हुए उन्हें प्रणाम करके वह चली गई । गोकर्ण विश्राम करने लगे।
दुसरे दिन भागवत कथा फिर से प्रारंभ हुई । कथा की समाप्ति के बाद बाँस की दुसरी गाँठ टूट गई  । इस प्रकार तीसरे दिन तीसरी गाँठ, चौथे दिन चौथी गाँठ टूटी और सात दिन में बाँस की सातों गाँठें टूट गई और कथा की पूर्णाहुति के बाद धुंधुकारी प्रेत योनि से मुक्त हो गया।
श्रावण के महिने में गोकर्ण ने इस प्रकार श्रीमद्भागवत की कथा कही। कथा समाप्ति के दिन स्वंय भगवान विष्णु अपने पार्षदों सहित अनेक विमानों को लेकर वहाँ प्रकट हुए। विष्णु भगवान ने अपना शंख बजाया और अपना चतुभुज रूप दिखाकर गोकर्ण को हृदय से लगाया एवं भागवत कथा का लाभ सबको मिला।
(अखंड ज्योति जून 2011)

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