किसी से मत कहो कि ‘तुम बुरे हो’
बस कहों कि ‘तुम अच्छे हो,
और भी अच्छे बनो।’
यह दुर्भाग्य की बात है कि हम आत्मिक उन्न्ति के मूल्य पर सांसारिक सुखों को खरीदते हैं।
म्न के लिए स्वाध्याय वैसा ही है,
जैसा “ारीर के लिए व्यायाम।
स्ंसार में अपने पंखों को फैलाना सीखो, दूसरों के पंखों के सहारे उड़ना सम्भव नहीं।
मोह जैसा कोर्इ बन्धन नहीं, तृश्ण जैसी कोर्इ वेगधारा नहीं, राग जैसी कोर्इ अग्नि नहीं - तीनों से दूर रहो।
सच्चे सौन्दर्य का रहस्य सच्ची सरलता है।
साधन निरन्तर अपने मन से संघर्शरत रहता है।
जब ज्ञान-दीप से मनुश्य का अन्र्तमन प्रकाषित हो जाता है,
तो वह आत्मा की स्वतन्त्रता का अनुभव करता है।
ये पाँच मनुश्य जल्दी नश्ट हो जाते हैं - दुराग्रही, लोभी, अभिमानी, कामी और द्वेशी।
आचार्य चाणक्य
सफलता का मार्ग खतरो का मार्ग है। जिसमें खतरों से लड़ने का साहस और संघर्ष में पड़ने का चाव हो, उसे ही सिद्धि के पथ पर कदम बढ़ाना चाहिए।
जो खतरो से डरते है,
जिन्हें कष्ट सहने से भय लगता है,
कठोर परिश्रम करना जिन्हें नहीं आता उन्हें अपने जीवन को उन्नतिशील बनाने की कल्पना नहीं करनी चाहिए। अदम्य साहस,
अटूट साहस,
अविचल धैर्य,
निरन्तर परिश्रम और खतरों से लडने वाल पुरूषर्था ही किसी जीवन को सफल बना सकता है।
‘‘
देख-देख कर बाधाओं को पथिक न घबरा जाना।
सब कुछ करना सहन किन्तु मत पीछे पैर हटाना।।
यह न समझना चला गय मैं,
हूँ सर्वदा तुम्हारे पास।
है विश्वाश कि पूर्ण करोगे,
तुम सब परिजन मेरी आस।।
तुम रहना नििश्चंत न पग में,
ठोकर भी लगने दुँगा।
अब भी तत्पर हूँ तुमको,
देने को निर्मल मृदुहास।।
कर इड़ा पिगला को जाग्रत में,
अजर अमर हो जाता हूँ।
ब्रह्मरन्ध के महाशुन्य में,
जब चाहे खो जाता हूँ।।
- श्री राम आचार्य
तपस्वी व साहसी इन्सान कभी तूफानों से घबराया नहीं करते।
वो क्या बंदें मुसीबत में जो मुस्कराया नहीं करते।
गिराये जांए गिरि से या गिरी ही आ पड़े उन पर।
भंयकर मौत भी आए तो भय खाया नहीं करते।
सदाकत के लहू से सीचं कर पाले है जो गूंचे।
खिंजा भी आए तो वो फूल कुम्हलाया नहीं करते।
भरोसा है जिन्हें अपने सिदक पर और र्इश्वर पर।
तमन्नाओं में वो दामन को उलझाया नहीं करते।
जो अवसर राज आने का समझ जाते है।
वो जग तें एक दफा आकर भी फिर आया नहीं करते।
‘‘हजारों टन सिद्धातों की अपेक्षा गा्रम भर आचरण अधिक लाभप्रद्र है प्रारम्भ में केवल थोंड़े से ऐसे संकलपों का चयन कीजिए जिनसे आपको स्वभाव और चरित्र में भले ही थोंड़ा पंरतुु निश्चित सुधार हो। - स्वामी शिवानंद
‘‘आदर्शो के अपनाने का शुभ मुहूर्त आज का ही होता है। कल की प्रतीक्षा में बैठे रहने वालो का कल तो मरण के उपरांत ही आती है।’’
‘‘सुबह का बचपन हँसते देखा,
दोपहर की मस्त जवानी।
शाम का बुढ़ापा ढलते देखा,
रात को खत्म कहानी।।’’
‘‘
हे राजन्!
र्इश्वर तो उन अकिचंनो (विरलों)
का धन है,जिन्होंने सब वस्तुओं का त्याग कर दिया है-यहाँ तक कि अपनी आत्मा के संबंध में भी इस भावना का कि यह मेरी है,
पूर्ण त्याग कर दिया है।’’ - पवहारी बाबा
‘‘इंद्रियाँ ऐसी बलवान है कि चारों और से उपर नीचे दशो दिशाओं से जब उन घेरा डाला जाता है तभी कब्जे में रहती है।’’
- महात्मा गाँधी
‘‘
मनुष्य के सामने दो ही मार्ग है-तप या पत,
दोनों एक दूसरें के उलटे है तप का अर्थ है उपर उठना,
पत का अर्थ है पतित होना। जो तप नहीं करता उसका पतन होना स्वाभाविक है और जो आत्मिक पतन से बचना चाहता है,
उसे तपन के लिए अग्रसर होना पडेगा। दोनों में से एक ही मार्ग को चुना जा सकता है।’’ - आचार्य श्री राम
नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादातपसो वाप्यलिगांत्।
यह आत्मा किसी बलहीन को प्राप्त नहीं होती और न ही तप में प्रमाद करने वालो को।
‘‘
तपश्चर्या में जीवन के विविध-विधि बिखरावों को रोककर उद्देश्यपूर्ण प्रयोजन में ही उन्हें नियोजित करने का कौशल सीखाना पड़ता है।’’
- आचार्य श्री राम
‘‘
कष्ट सहिष्णुता को परमाथ्र्ाी जीवन को एक अनिवार्य साधना माना जाए। स्वार्थ का परमार्थ पर उत्सर्ग करने के लिए यही करना पड़ता है। त्याग बलिदान का परिचय दिए बिना आत्म कल्याण की साधना में एक इंच भी प्रगति नहीं हो सकती। सच्चे आत्मवादी को तो त्याग,
बलिदान के अंतिम चरण तक पहूँचना पड़ता है’’
- आचार्य श्री राम (
प्रसुप्ति से जागृति की ओर 4;13)
व्यक्ति सीखना चाहे तो जीवन की प्रत्येक भूल उसको शिक्षा दे सकती है। समुद्र तूफान में भी अपनी गंभीरता नहीं छोड़ता,
उसी प्रकार विपित्त्ा काल में मानव को साहस नहीं छोड़ना चाहिए।
‘‘हम क्या करते है इसका महत्त्व कम है,
किंतु हम उसे किस भाव से करते है इसका बहुत अधिक महत्त्व है’’ आचार्य श्री राम
‘‘युवैव धर्मशील स्यात्’’
जाग ऐ मानव!
जब तक यौवन की यह घटा विद्यमान है,
तब तक कुछ कर लें,
तब तक आत्मा को पाने का यत्न कर। यह घटा सदा नहीं रहेगी,
इसे एक दिन समाप्त होना है। यह तेरे जीवन को स्वर्ण युग है,
इस स्वर्ण काल को व्यर्थ की बातों में खोएगा तो स्मरण रखना,
फिर वृद्धावस्था आएगी निश्चित रूप से,
उस समय हाथ काम नहीं करेंगे,
फिर क्या करेगा?
उस समय शरीर चलेगा नहीं फिर आत्मा का दर्शन पाने के लिए जाएगा कहाँ?
उस समय घुटनों में दर्द होगा,
तब आसन में कैसे बैठेगा?
उस समय कान सुनेंगे नहीं, तब सत्संग में जाने से क्या लाभ होगा?
नहीं मेरे भार्इ। मेरी बच्चें समय अब है,
अब आगे बढ़। इस स्वर्ण युग स्वर्ण पथ पर चलो। इसलिए हमारे पूर्वजो ने कहा-’’युवैव धर्मशील:
स्यात्। अर्थात यौवन में धर्मशील बनो। वृद्धावस्था में बहुत कुछ होने वाला नहीं।
- महात्मा आनंद स्वामी
सदैव याद रखिए कि आपकी निंदा करने वाला आपका मित्र है जो कि आपको बिना मूल्य एक मनोचिकित्सक की भाँति आपकी गलतियों व आपकी खामियों की तरफ ध्यान खिंचवता हैं।
कराची में एक सार्वजनिक अस्पताल बन रहा था। निर्माता उसके लिए दान माँग रहे थे। दस हजार देने वाले के नाम का पत्थर अस्पताल की दीवार पर लगाने की घोशणा थी।
एक उदार दानी मानकदास ने दस हजार में एक रूपया कम दिया ताकि उनके दान का विज्ञापन न हो और पुण्य क्षीण न हो।
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