जो मनुष्य स्वाधीन एवं प्रेमभाव से
कर्म करता है वह फल की परवाह नहीं करता। किंतु गुलाम कोडे लगाने पर ही कर्म करने
का अभ्यस्त होता है और सेवक अपना वेतन चाहता है। ऐसा ही सम्पूर्ण जीवन में होता
है। उदाहरण स्वरूप सार्वजनिक जीवन का ही लें। सार्वजनिक वक्ता अपने श्रोताओं से
थोड़ी प्रंसशा फुसफसाहट एंव तालियों की अपेक्षा करता है। यदि तुम उसे वह नहीं दे
सकते तो तुम उसके उत्साह को ठंडा कर दोगे क्योंकि वह उसका भूखा रहता है। वह दासवत
कार्य करता है ऐसी परिस्थितियों में बदले की कुछ उपेक्षा रखना ही मनुष्य का स्वभाव
बन जाता है। प्रत्येक सफल मनुष्य के जीवन में अटूट निष्ठा, तीव्र प्रामाणिकता का कोई न कोई केंद्र
अवश्य रहता है और वही उसके जीवन में सफलता का मूल स्त्रोत होता है, हो सकता है वह पूर्णतया नि:स्वार्थ न
बन सका हो, किंतु
वह उस ओर बढ़ रहा हो यदि वह पूर्णतया निष्काम बन गया होता तो वह भी बुद्ध या ईसा
के समान सफलता के महान शिखर पर ही पहुँच गया होता नि:स्वार्थता की मात्रा के
अनुपात में ही सफलता की मात्रा होती है।
वस्तुत: सच्ची सफलता और सच्चे सुख का
महामंत्र यही है। जो किसी प्रकार का प्रतिफल नहीं चाहता ऐसा पूर्णयता निष्काम
मनुष्य ही सबसे अधिक सफल रहता है। यह बड़ा विरोधाभास लगेगा। क्या हम नहीं जानतें
कि प्रत्येक नि:स्वार्थ व्यक्ति को जीवन में धोखा मिलता है हानि उठानी पड़ती है? उपर से देखने पर यह सत्य है। ईसा
नि:सवार्थ थे, किंतु
उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया। यह सच है, किंतु हम जानते है कि उनकी
नि:स्वार्थता ही उस महान विजय का एकमेव कारण है, जिसके परिणाम स्वरूप लाखों जीवनों को
सच्ची सफलता के मुकुट ने सुशोभित किया।
यह अहं भाव कि ‘मैंने अमुक किया’ ‘मै। अमुक कर सकता हुँ’ योग मार्ग का अवलम्बन करते समय शेष
नहीं रहता। पाश्चात्य लोग यह बात नहीं समझ पाते वे कहते है कि यदि अहं चेतना तनिक
न रहे, यह
अहंभाव बिल्कुल समाप्त हो जाय तो मनुष्य काम ही कैसे कर सकता है? किंतु जिस समय कोई मनुष्य स्वंय को
बिल्कुल भुलाकर एकाग्र मन से कार्य करता है, उस समय जो कार्य होता है वह लाख गुना
अच्छा होता है। वह अनुभव हममें से प्रत्येक ने अपने जीवन में प्राप्त किया होगा।
हम भोजन पचाना आदि अनेक कार्य अनजाने में करते है, अनेक कार्य चेतनापूर्वक करते है और कुछ कार्य में हम अपने
क्षुद्र अहं को बिल्कुल भुला देते है तब मानो समाधि अवस्था में पहुँच कर करते है।
यदि चित्रकार अपनी अहं चेतना को बिल्कुल खोकर अपनी कलाकृति में ही पूर्णतया खो जाए
तो वह कला के अद्वितीय नमूने निर्माण कर सकेगा। जो योग के द्वारा उस महाप्रभु के
साथ एक हो जाता है, वह अपने समस्त कार्यो को एकाग्र मन से करता है और किसी व्यकिगत लाभ
की अपेक्षा नहीं करता। इस प्रकार कार्य करने से संसार का केवल भला ही होता है उससे
कभी हानि नहीं हो सकती। गीता का संदेश है कि प्रत्येक कार्य इसी भावना से किया
जाना चाहिए। व्यकिगत अहं चेतना ही वह सुदृढ़ दिवार है जिसमें हम स्वंय को बंद कर
लेते है। प्रत्येक वस्तु का नाता अपने आप से जोड़ लेते है सोचते है मैंने यह किया
मैंने वह किया इस क्षुद्र मैं से छुटकारा पाओ। अपने अंदर घुसी होई इस पैशाचिकता को
मार डालो मैं नहीं तू ही यही कहो, यही अनुभव करो, इसके अनुसार ही जिओ। जब तक हम ‘अहं’ निर्मित इस संकुचित दुनिया का परित्याग
नहीं कर देते तब तक हम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते।
शक्ति के पुंज वे मौन पुरूष है जो केवल
जीवित रहते है और स्नेह करते है तथा चुपचाप अपने व्यक्तित्व का कार्यक्षेत्र से
हटा लेते है। वे कभी ‘‘मैं’’ और ‘‘मेरा’’ की रट नहीं लगाते। वे केवल निमित बनने में ही स्वंय को कृतार्थ मानते
है। ऐसे मनुष्यों में से ही ईसा और बुद्ध प्रकट होते है। वे मानव रूप में पूँजीभूत
आदर्श मात्र होते है, इसके अविरिक्त कुछ नहीं। परमात्मा ने स्वंय को सर्वोतम ढ़ग से छिपा
रखा है अत: उसका कार्य ही सर्वश्रेष्ठ है।
‘कर्म के मार्ग का उद्देश्य है मनुष्य
के प्रत्येक कर्म का सर्वोच्च संकल्पशक्ति के प्रति समर्पण। इसका आरंभ कर्म क
समस्त अहं भाव युक्त उद्देश्य के त्याग से और स्वार्थ पूर्ण उद्देश्य की, किसी सांसरिक परिणाम की खातिर किए गए
कर्म के त्याग से होता है। इस त्याग के द्वारा वह मन और संकल्पशक्ति को इतना शुद्ध
कर लेता है कि हम सरलता से उस महान वैश्व शक्ति के प्रति संचेतन हो जाते है तथा
उसे ही अपने समस्त कार्यो का शासक मानने लगते है, साथ ही हम उस शक्ति के स्वामी को कर्मो
का शासक और संचालक भी मानते है,जबकि व्यक्ति केवल उपरी आवरण या बहाना होता है, कर्म और दृश्यमान संबंध का एक चेतन
केंद्र मात्र होता है। कर्म का चुनाव और उसकी दिशा अधिकाधिक चेतन रूप में इसी
सर्वोच्च संकल्पशक्ति और वैश्वशक्ति पर छोड़ दिए जाते है। इसी को हमारे कर्म और
हमारे कर्मो के परिणाम अंतर में समर्पित कर दिए जाते है।
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