Saturday, October 13, 2012

समर्पण का अनुठा उदाहरण--थेरेसी न्यूमेन


कोनेर सेरिथ (बेवेरिया) की थेरेसी न्यूमेन का जन्म गुड फ्राइडे के दिन हुआ। बीस वर्ष तक की आयु में थेरेसी के जीवन में किसी भी प्रकार की विशेषता दिखायी नहीं दी। बीस वर्ष की आयु में एकाएक दुर्घटना हुई जिसमें उनकी दोनों आँखे और दोनों हाथ-पाँव जाते रहे। मनुष्य जब तक संसारिक सुखों के भोग की क्षमता रखता है तब तक कम ही लोग आध्यात्मिक सत्यों की शोध की ओर तत्पर होते है पर यह कैसी विडम्बना है कि कष्ट पड़ते ही मनुष्य भगवान् की, अध्यात्म की शरण लेता है यदि मनुष्य अशक्त होने से पहले ही अपना जीवन लक्ष्य निर्धारित कर ले तो उसे मनुष्य शरीर सार्थक करने में असुविधा न हो, समय की चूक अन्तत: पश्चाताप का ही कारण बनता है और जो जीव भगवान के घर से असीम क्षमताँए लेकर जन्मता है, वह सब यहाँ खोकर हाथ मलता हुआ चला जाता है। अंधी और अपंग हो जाने पर थेरेसी न्यूमेन को याद आया कि बेवेरिया में कोई थेरेसी नाम के महान संत है, उन्होनें संत थेरेसी से सम्पर्क स्थापित किया और उन्हें आध्यात्मिक मार्ग दर्शक के रूप में याद करने लगी। 1923 में पहली बार उनके जीवन में एक विलक्षण घटना घटी वह थी कि उनका अंधापन और अपंगता का दूर हो जाना। अब थेरेसी न्यूमेन को सांसारिकता से पूर्ण अरूचि हो गई और व भगवान ईसा मसीह का ध्यान और जप करने लगी। उन्हें धीरे-धीरे स्वादयुक्त भोजन और पेय से भी अरूचि हो गई क्योंकि मन की चंचलता के वही सब से बड़े कारण थे। भगवान में मन एकाग्र करने के लिए शुद्ध और सात्विक आहार की आवश्यकता थी। थेरेसी ने वही लिया। पूजा मे चढ़ाइ गई एक छोटी सी केक ही वह लेती और उठते बैठते महाप्रभु ईसा कर का ही ध्यान करती। महाप्रभु र्इसा की आत्मा से तदाकर के सूक्ष्म आत्मिक गुणों को समझना सम्भवत: शक्य न होता पर 1926 में ही जब उनके मस्तक, छाती, हाथ और पैरों में ईसा  के घाव पैदा होने शुरू हो गए तो लोग यहां तक कि वैज्ञानिक भी आश्चर्य चकित हुए बिना न रह सके। भावनाओं का अस्तित्व विज्ञान सिद्ध हो जाने पर भी उसकी  महता और विज्ञान न जानने के कारण जो वैज्ञानिक भावनाओं की उपेक्षा करते रहते है। उन्हीं वैज्ञानिकों ने इसकी पुष्टि की। 16 जुलाई  1927 को प्रौटेस्टेंट जर्मन समाचार पत्र के सम्पादक डॉ फ्रिटज गैरलिक कोनेर सेरूथ जाकर थेरेसी से मिले। वे लम्बे समय से थेरेसी की आलोचना करते आ रहे थे। उन्होंने थेरेसी के पास रहकर कई  दिन बिताए उन्होंने देखा कि वे एक छोटी सी केक पर दिन भर बिताती है। पूछने पर उन्होंने बताया कि मैं अपने लिए प्रकाश से सारे जीवन तत्व ग्रहण कर लेती हुँ। उन्होंने बताया कि मैं हर शुक्रवार को ईश्वर के कथित स्वरूप का ध्यान करती हुँ, उस समय उनकी अनुभूतियाँ एकाकार हो उठती है। डॉ फ्रिटज गैरलिक लिखते है-’’मैंने देखा कि उन्हें शुक्रवार के दिन प्रात:काल से ही अचेतनता पड़ने लगी, उसी अवस्था में उनके हाथ, मस्तक, पैरो के घावों ये अनायास बिना किसी दबाव के रक्त रिसने लगा। सामान्सत: वे 121 पौण्ड की थी पर उस दिन उनका भार 10 पौण्ड कम हो गया। गुरूवार की रात 12 बजे से दर्द बढ़ना शुरू होता है और शुक्रवार के अपरान्ह एक बजे तक बड़ी ही व्यथापूर्ण स्थिति। दिखायी देती थी कई  बार तो यह भ्रम होता था कि थेरेसी क मुखाकृति में ईसा की मुखाकृति प्रतिबिम्बित हो उठी है। इसके बाद स्थिति सुधरने लगती है और दूसरे दिन तक घाव ठीक हो जाता है। उस दिन उनकी मानसिक चेतना विक्षुब्ध हो जाती है और व एक दिव्य जगत में प्रवेश कर जाती है तब वे हिब्रू भाषा में प्रवचन प्रारंभ करती और यह प्रवचन ईसा बार तो अक्षर ब अक्षर ईसा  मसीह के प्रवचन होते। आत्मिक साहचर्य और सायुज्य द्वारा कोई व्यक्ति किसी दैवी शक्ति या महान  आत्मा के गुणों से परिपूर्ण हो सकता है, यह देखकर मै दंग रह गया और आज भी उसका कारण जानने के लिए लालयित हूँ पर लगता है कि उसका उत्तर देने में विज्ञान नितांत असहाय और असमर्थ है। यह विवरण उन्होंने अखबार में छापा था। स्वामी योगनंद ने तो थेरेसी से भेंट की थी और अपनी प्रसिद्ध पुस्तक’’ आटोबायोग्राफी आफ ए योगी’’ में इस घटना का ऐसा ही उल्लेख किया है। वस्तुत: ध्यान की गहरई में प्रवेश करने पर एक ऐसा समय आता है, जब मनुष्य संसार को भूलकर ऐसे शांतिमय प्रदेशों में पहुँचता है, जहाँ आत्मा अपने स्वरूप में स्थित रहती है, परमात्मा के सन्निकट रहती है। (ShriRam Aharya Vangmaya no. 6, pp. 476)
वस्तुत: समर्पण ही योग साधना की सबसे उँची और सबसे प्रभावी स्थिति है। जब मनुष्य अपनी समस्त ऐषणाएँ, लिप्साएँ,तृष्णाएँ भगवान के चरणों में समर्पित करके कामना रहित बन जाता है और ईश्वरीय निर्देशों पर चलने की बात ही अन्त:करण के मर्मस्थल में बसा लेत हैं, तो स्वभावत: उसका चिंतन उत्कृष्ट और कर्त्तव्य आदर्श बन जाता है। उसी को ब्रह्मज्ञानी, ईश्वर  भक्ति की यथार्थ भूमिका कह सकते है। इसे जो आत्मा संपन्न कर सके, समझना चाहिए उसने ईश्वर के साथ अपना विवाह कर लिया। सर्वविदित है कि पतिव्रता पत्नी अपना शरीर और मन सर्वतो भावेन पति के चरणों अपने प्राण निछावर करता है और सर्वस्व की स्वामिनी घोषित करता है। पत्नी को बेशक बहुत क्या, सब कुछ ही देना पड़ता है, पर बदले में उसे अपने से भी सुयोग्य सहचर को कौड़ी-मोल खरीद लेने का अवसर मिलता है। ठीक यही बात भक्त और भगवान के पारस्परिक संबंधों पर लागू होती है। जब भक्त अपना चिंतन और कर्तृत्व भगवान की आकांक्षा के अनुरूप ढालने वाला सच्चा समर्पण प्रस्तुत करता है, तो बदले में भगवान भी उसे अपनी समग्र सत्ता  समर्पित कर देते है, भक्त और भगवान को समतुल्य माना गया है, यही बात पति पत्नी के संबंध में भी लागू होती है। इस सघनता का, एकता का एकमात्र आधार पारस्परिक समर्पण भाव ही है, यदि वे इससे बचें और सस्ती वाचालता से एक दूसरे को बहकावें, स्वार्थ अपने अलग-अलग रखे तो फिर वेश्यावृति जैसी स्थिति बन जाएगी। भक्त और भगवान के बीच सच्चा समर्पण ही सार्थक होता है। छद्म या बहकावे को भगवान अच्छी तरह समझते है और ऐसे जाल जंजाल की धुर्तता से कोसों दूर रहते है। (ShriRam Aharya Vangmaya no. 12, pp. 218)

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