प्राचीन काल की बात है, बहूदक नामक तीर्थ में नन्दभद्र नाम के
वैश्य रहते थे। वे वर्णाश्रम-धर्म का पालन करने वाले सदाचारी पुरूष थे। उनकी धर्म
पत्नी का नाम कनका था। वह भी पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली साध्वी स्त्री थी।
उसमें अन्य अनेक सद्गुण भी विद्यामान थे, जिससे
उनकी गृहस्थी बड़ें आनंद एवं धर्मपूर्वक व्यतीत हो रही थी।
वर्णाश्रम धर्म के अनुसार नंदभद्र
वाणिज्य को ही अपना श्रेष्ठ धर्म मानते थे और उसे ही अपनाये हुए थे। नंदभद्र के
हृदय में परोपकार तो मानो साक्षात् मूर्तिमान् होकर विराजमान था। वे भगवान् की
पूजा की भावना से अपना समस्त व्यवसाय करते और आवश्यकता का ध्यान रखते हुए थोडा लाभ
लेकर वस्तुओं की बिक्री करते थे। ग्राहकों के साथ किसी प्रकार का भेद भाव न रखते
हुए वस्तुओं के क्रय-विक्रय में वे पूर्णरूप से समता का बर्ताव करते थे। उनके यहाँ
ग्राहकों को अच्छा माल दिखाकर कभी भी घटिया माल नहीं दिया जाता था। वे
घृणित-वर्जित वस्तु मदिरा आदि का व्यापार कभी नहीं करते थें। जिसे भगवान् से
प्रेम हो जाता है,
उसे
संसार के कार्य फीके-से लगने लगते है। यही दशा नंदभद्र की थी। व चंद्रमौलि भगवान्
शंकर के अनन्य-भक्त थें। बहुदक में एक बहुत
सुंदर शिवलिगं स्थापित था,
जो कपिलेश्वर महादेव के नाम से
प्रसिद्ध था। नंदभद्र तीनों समय बड़ें प्रेम से कपिलेश्वरकी पूजा किया करते थे। वे
सभी के हित-साधन में सदैव संलग्न रहते थे। किसी के साथ उनका द्वेष था ना राग। वे
न किसी से अनुरोध करते थे न विरोध। वे
निन्दा-स्तुति में सदा ही सम तथा जो कुछ मिल जाता उसी में संतुष्ट रहते थे।
नंदभद्र का जीवन संन्यासियों जैसा ही
था, वे गृहस्थाश्रम को संन्यासाश्रम से कम
न मानते थे। वे कहा करते थे कि जो विषयों को बाहर से त्यागकर मन के द्वारा उसे
ग्रहण करता रहता है,
वह
इहलोक और परलोक दोनों ओर से भ्रष्ट होकर फटे हुए बादल की भाँति नष्ट हो जाता है। संन्यास का सारभूत तत्व है- विषयों
का त्याग, सभी को उसका पालन करना चाहिए। गृहस्थ
में रहकर यथाशक्ति देवता पितर, अतिथि, ब्राह्मण, पशु-पक्षी, कीट-पंतग आदि समस्त भूतों के लिये सदा
अन्न देना चाहिये। इनसे बचा हुआ अन्न ही स्वंय भोजन करना चाहिये। नंदभद्र का
सदाचार सम्पन्न सुखमय जीवन सभी के लिये स्पृहणीय था। सज्जन लोग सदैव संतो के जीवन
से लाभ उठाते है। उन्हें देख-देखकर प्रसन्न होते तथा उनका अनुसरण कर अपने जीवन को
सदाचारमय बनाते है दूसरी ओर दुष्टजन किसी संत को देखकर जलते है। ऐसा ही एक व्यक्ति
नंदभद्र के पड़ेास में रहता था, उसका
नाम था सत्यव्रत। नाम तो था सत्यव्रत। परंतु था वह बड़ा ही नास्तिक एवं दुराचारी।
धर्मपरायण नंदभद्र को सुखी देखकर वह जला करता था। बारम्बार नंदभद्र पर मिथ्या
दोषारोपण करना और सदा उनके दोष ही ढ़ँढते रहना मानो उसका स्वभाव ही बन गया था।
उसके जीवन की सबसे बड़ी चाल यह थी कि किसी प्रकार कोई नंदभद्र का दोष दिख जाए तो
उसे धर्म से गिरा दूँ। प्रारब्ध के भोग से कौन छुट पाता है? देवता या मनुष्य कोई भी क्यों न हो, प्रारब्ध का विधान तो सभी को स्वीकार
करना पड़ता है। अचानक नंदभद्र का इकलौता पुत्र गम्भीर रूप से बीमार हो गया। महामति
नंदभद्र ने विधि का विधान मानकर शोक नहीं किया। थोड़े ही दिनों बाद सहसा उनकी
पतिव्रता पत्नी कनका भी बीमार हो गयी। लम्बे अवसर की प्रतीक्षा के पश्चात् नंदभद्र
पर विपतियाँ आयी देखकर उनके पड़ोसी
सत्यव्रत का बड़ी प्रसन्नता हुई । उसने सोचा कि अब मैं नंदभद्र का धर्मभ्रष्ट कर
ही दूँगा। वह दौड़कर उनके पास गया और बनावटी दु:ख प्रकट करते हुये बोला-’ हा नंदभद्र! बहुत बुरा हुआ। तुम्हारे
जैसे धर्मात्मा का भी यह कैसा दु:ख उठाना पड़ रहा है। इससे यही समझ में आता है कि
यह धर्म कर्म सब ढकोसला है। मेरे मन में तो कई
बार तुम्हें चेतावनी देने की बात आयी थी कि दिन में तीन बार पूजा करना, स्तुति प्रार्थना करना-सब व्यर्थ है, पंरतु संकोचवश मैं चुप रहा। आज कहे
बिना नहीं रहा गया, अत: कह रहा हूँ।’ उसने पु:न कहा-’ भैया नंदभद्र! धर्म के नाम पर क्यों
इतना कष्ट उठाते हो? मिथ्यावाद अच्छा नहीं होता। जब से तुम
इस पत्थर-पूजन में लगे हो,
तब से कोई अच्छा फल मिला हो ऐसा मैंने नहीं देखा।
तुम्हारा इकलौता पुत्र और साध्वी पत्नी दोनों बीमार है। यदि भगवान् होते तो क्या
ऐसा फल देते? भैया! भगवान् तो स्वार्थी लोगों की कल्पनामात्र है। सूर्य, चंद्रमा, वायु, मेघ आदि सब स्वभाव से ही विचरण करते है, स्वभाव से ही समस्त जीव-जंतु, पेड़-पौधे एवं मनुष्य पैदा होते है।
मनुष्ययोनि ही सबसे दु:खद योनि है, अन्य
सभी योनियाँ सुखद है, क्योंकि उनमें सभी स्वच्छंद विचरण करते
है। पुण्य और पाप सब कुछ कल्पना है। नंदभद्र! मैं तुम्हें सही सलाह देता हुँ की
मिथ्या धर्म का परित्याग करके आनंदपूर्वक खाओ, पीओ
और भोगों, क्योंकि यही सत्य है। सत्यव्रत की
मूर्खतापूर्ण बातें नंदभद्र पर कोई प्रभाव न डाल सकी। उनके विचार तो पर्वत की
भाँति अचल एवं सुमद्र की भाँति गंभीर थे। वे तनिक भी विचलित न हुए और हँसते हूए
बोले-’सत्यव्रतजी! आप अपने आप को ही धोखा दे
रहे है क्या पापियों पर दु:ख नहीं आते? क्या
उनके पुत्र, स्त्री बीमार नहीं होते? जब किसी सज्जन पुरूष पर दु:ख आता है, तब सभी लोग सहानुभूति प्रकट करते है, पंरतु विपत्ति काल में दुराचारी के
प्रति सहानुभूति प्रकट करनेवाला कोई नहीं
होता। अत: धर्म पालन करने वाला ही श्रेष्ट है। सत्यव्रत तो हठ पर था, उसे ये बातें कैसे अच्छी लगती। नंदभद्र
ने पुन: कहा- महाशय! अन्धा व्यक्ति सूर्य के स्वरूप को नहीं जानता, पंरतु उसके न जानने से क्या सूर्य का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता है? जिस प्रकार राजा के बिना प्रजा नहीं रह
सकती, उसी प्रकार ईश्वर के बिना संसार का
संचालन नहीं हो सकता, यह आप सत्य समझ लें। जिस शिवलिगं को आप
पतथ्र कहते है स्वंय भगवान् श्री राम ने समुद्र तटपर उसकी स्थापना की थी।’ सत्यव्रत ने पु:न वही प्रश्न किया-’ देवता है तो दिखायी क्यों नहीं देते?’ नंदभद्र ने कहा’- क्या देवता लोग आपके पास आकर याचना
करें कि हमें आप मानिये।’
नंदभद्र सत्यव्रत से अधिक विवाद नहीं
करना चाहते थे, अत’ वे
स्थान छोड़कर चले गये।
एक बार नंदभद्र के मन में विचार आया कि
भगवान् सदाशिव का साक्षात् दर्शन करके उनसे पूछूँ-’प्रभो! आप तो निर्दोष, निर्वैर
और स्मद्ष्टि है, फिर आपका यह बनाया यह संसार दोष रहित
क्यों नहीं है? इनमें इतने सुख-दु:ख, जन्म-मरण आदि क्लेश और वैमनस्य क्यों
भरे पड़े हुए हैं? यह सोचकर वे शिव मंदिर में आये।
कपिलेश्वर लिंग की पूजा की,
फिर प्रणाम करके भगवान् चंद्रमौलि के
आगमन की प्रतिक्षा में खड़े हो गये। उन्होंने मन में यह निश्चय किया कि जब तक भोले
नाथ दर्शन नहीं देगें, तब तक मैं ऐसे ही खड़ा रहुँगा। लगातार
तीन दिन और तीन रात नंदभद्र वैसे ही खड़े रहे। चौथे दिन एक सात वर्ष का बालक उस
शिव मंदिर में आया। गलितकुष्ठका रोगी होने के कारण वह पीड़ा से कराह रहा था। उसने
बड़े विस्मय के साथ नंदभद्र से पूछा-’ आप
इतने सुंदर एवं स्वस्थ दिखायी दे रहे है, फिर
भी आप के चेहरे पर क्लेशे के चिन्ह क्यों है?’ नंदभद्र
ने अपने मन का संकल्प उस बालक से कह सुनाया। सब कुछ सुनकर बालक ने कहा- अप्रिय का
संयोग एवं प्रिय का वियोग - ये मानसिक कष्ट के कारण है, तथा रोग एवं परिश्रम - शारीरिक कष्ट
के। मानसिक कष्ट से शारीरिक एवं शारीरिक कष्ट से मानसिक कष्ट होता है। औषध एवं
उपचारों से शारीरिक कष्ट दूर होते है एवं ज्ञान से मानसिक कष्ट। मन के दु:ख की जड़
राग है। इस राग से ही प्राणी सांसारिक प्राणी-पदार्थो में आसक्त होकर दु:ख पाता
है। दु:ख- सुख एवं आयास का मूल राग ही है। राग के वशीभूत होकर मनुष्य भोग की इच्छा
करता है। भोग तृष्णा एवं लोभ का जन्म दाता है। तृष्णा का आदि और अन्त नहीं है, यह सदैव त्याज्य है। इतना सुनने पर भी
नंदभद्र की जिज्ञासा का पुर्ण रूप से शमन नहीं हुआ। उन्होनें पूछा-’बालक! पापी मनुष्य धन-धानय-सम्पन्न
क्यों देखे जाते है? बालक ने कहा-’महाभाग! संसार में चार प्रकार के
मनुष्य होते है। पहले प्रकार के मनुष्य वह है जिसके लिए इस लोक में तो सुख भोग
सुलभ है, पंरतु परलोक में नहीं, क्योंकि उसका पूर्वजन्मों में किया हुआ
पूण्य शेष है, उसे वह भोगता है और नुतन पुण्य का
उर्पाजन नहीं करता, उस मंदबुद्धि एवं भाग्यहीन मानव को
प्राप्त हुआ सुखभोग केवल इसी लोक के लिये बताया गया है।
दूसरा वह है जिसके लिये परलोक में सुख
का भोग सुलभ है, पंरतु इस लोक में नहीं, क्योंकि उसका पूर्वजन्मोपार्जित पुण्य
नहीं है। यह जानकर वह तपस्या करके नूतन पुण्य का उपार्जन करता है। उस बुद्धिमान को
परलोक मे सदा ही सुख का भोग प्राप्त होता है।
तीसरा वह है, जिसके लिये इहलोक और परलोक में भी सुख
भोग प्राप्त होता है, क्योंकि उसका पहले का किया हुआ पुण्य
भी विद्यमान है और तपस्या से नूतन पुण्य का भी उपार्जन हो रहा है, ऐसा बुद्धिमान् कोई विरला ही होता है।
चौथा वह है, जिसके लिये न तो इहलोक में सुख है और न
परलोक में ही, क्योंकि उसका पहले का पुण्य तो है नहीं
और इस लोक में भी पुण्य का उपार्जन नहीं करता। ऐसे मनुष्य को इहलोक और परलोक दोनों
में ही सुख नहीं मिलता। ऐसे नराधम को धिक्कार है। ‘महात्मन्! इस प्रकार कर्म एवे भोग के रहस्य को जानकर अब आप को भगवान्
सदाशिव के भजन एवं वर्ण धर्म के पालन में निष्काम भाव से लग जाना चाहिये। इससे आप
दूसरे जन्म के बन्धन में नहीं पड़ेंगें। एक बालक के मुख से ऐसी रहस्यपूर्ण बातें
सुनकर नंदभद्र आश्चर्य चकित हो गये। वे पूछने लगे-’ बालक! आप कौन है और यहाँ कैसे पधारे है? आपने तो मेरे सब संदेहों को नष्ट कर
दिया।
बालक ने बताया-’ पूर्वजन्म में मैं बड़ा दम्भी एवं
पाखण्ड़ी था। मुझमें और भी बहुत से दुर्गुण थे, जिसके
फल स्वरूप मैं वर्षो से नीच योनियों में भटक रहा हूँ। भगवान् व्यासदेव कृपापूर्वक
मुझे प्रत्येक योनि में सचेत कर देते है।
उन्होनें ही मुझे आपके पास भेजा है। अब मैं सात दिन के बाद इसी तीर्थ में
प्राण त्याग दूँगा और पुण्यफल को प्राप्त करूँगा। कृपया मृत्यु के बाद आप मेरा अन्तिम संस्कार कर दीजियेगा। सूर्य
मंत्र का जप करते हुए सातवें दिन उस बालक ने अपने प्राण त्याग दिये। नंदभद्र ने
विधिपूर्वक उसका अन्तिम संस्कार किया और शेष जीवन उन्होनें भगवान् शिव एवं सूर्य
की उपासना में लगा दिया तथा अन्त में भगवान् सारूप्य प्राप्त किया।
(स्कन्दपुराण)
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