मनुष्य को पतन-पराभाव के गर्त में गिरा देने वाली तीन दुष्प्रवृत्तियाँ हैं- वासना, तृष्णा और अहंता। शिश्नोदर परायण वासना-तृष्णा के लोभ, मोह में जकड़े रहकर किसी प्रकार के कोल्हू
के बैल की तरह नियति चक्र में परिभ्रमण करते हुए दिन गुजार लेते हैं। पर अहंता का चैन
कहाँ? वह सारी प्रशंसा, सारा बड़प्पन, सारे अधिकार अपने ही हाथ में रखना चाहती है।
दूसरे की सांझेदारी उसे सहन नहीं। इसी विडंबना ने संसार में सर्वाधिक विग्रह उत्पन्न
किए हैं। लगता तो यह है कि लालच के कारण अपराध होते हैं। पर वास्तविकता यह है कि अहंता
ही जहाँ-तहाँ टकराती और प्रतिशोध से लेकर आक्रमण, अपहरण, उत्पीड़न के विविध-विध अनाचार उत्पन्न करती है। अन्याय के अवरोध तो कहने भर की बात है। वह तो जहाँ-तहाँ जब-तब ही दृष्टिगोचर होते हैं। वास्तविकता यह
है कि सामंतवादी अनाचारों की बुभुक्षा नहीं अहंता ही उद्धत बनी और टकराई है। अनाचारों
का विश्व इतिहास पढ़ने से प्रतीत होता है कि अभाव या अन्याय के विरूद्ध नहीं, अधिकांश विग्रह हौर युद्ध मूर्धन्य लोगों ने अहंता की परितृप्ति के लिए खड़े किए
हैं। कंस, रावण,
हिरण्यकश्यप, वृत्रासुर, सहस्त्रबाहु, जरासंध जैसे पौराणिक, सिकंदर,
नैपोलियन, चंगेजखाँ, आल्हा-ऊदल जैसे बर्बर लोगों ने जो रक्तपात किए उसके
पीछे उनकी दर्प तुष्टि के अतिरिक्त और कोई कारण था नहीं।
यह चर्चा इन पंक्तियों में इसलिए की जा रही
है कि युग शिल्पियों के द्वारा आरंभिक उत्साह में जो मार्ग अपनाया जा रहा है, उसमें लोक मंगल का परमार्थ प्रयोजन द्रष्टव्य होने के कारण श्रेय-सम्मान एवं यश तो स्वभावत: मिलना ही है। यह पचे नहीं और उद्धत हो चले
तो पागल हाथी की तरह अपना, साथियों का तथा उस संगठन का विनाश करेगा, जिसके नीचे बैठकर अपनी स्थिति बनाई है। हाथी पागल होता है तो अपनों पर ही टूटता
है। इसी प्रकार लोकेषणा जब पागल होती है तो सर्वप्रथम वह साथियों को मूर्ख, छोटा, अनुपयुक्त,
खोटा सिद्ध करने
का प्रयत्न करती है, ताकि तुलनात्मक दृष्टि से वह अपनी विशिष्टता
सिद्ध कर सके। समान साथियों में मिल-जुलकर रहने में महत्वाकांक्षी का अपना वर्चस्व
कहाँ उभरता है। इसलिए उसे साथी पेड़-पादपों का सफाया करना पड़ता है ताकि समूचे
खेत में एक अरण्ड ही कल्पवृक्ष होने की शेखी बघर सके।
दृष्टि पसार कर अपने चारों ओर लोकेषणा का
नग्न नृत्य देखा जा सकता है। राजनैतिक पार्टियों में होते रहने वाले अंतर्कलह सिद्धांतों
की दुहाई भले ही देते रहें, पर वस्तुत:
वे व्यक्तियों की
महत्वाकांक्षा के निमित्त ही होते हैं। कल-परसों जनता पार्टी का बिखराव होकर चुका है।
कितनी ही उपयोगी संस्थाएँ पदलोलुपों ने परस्पर टकराकर अपने ही हाथों शिथिल या
समाप्त कर दीं। कौरव-पांडवों से लेकर यादव कुल के लड़-खपकर समाप्त हो जाने के पीछे लालच थोड़ा और दर्प को बड़ा कारण पाया जाएगा। धर्म-संप्रदायों के जो खंड होते चले गए हैं,
उन प्रचलन कर्त्ताओं
में सुधारक कम और श्रेय लोलुप अधिक रहे हैं। चुनावों के समय या बाद में जो विग्रह दृष्टिगोचर
होते हैं, प्रतिशोध के नाम पर जो अनर्थ होते हैं, उनमें औचित्य कम और दर्प को नंगा नाच करते देखा जा सकता है। सास-बहू की लड़ाई में यही विडंबना उछलती दृष्टिगोचर होती है। पतिदेव का पत्नियों को
आतंकित करने में यही तथ्य प्रमुख होता है।
बात इस संदर्भ में चल रही है कि युग शिल्पियों
को सप्त महाव्रतों को अपनाने के लिए निर्देशन किया गया है कि उनका व्यक्तित्व उभरे
और उस आधार पर आत्मबल बढ़ाते हुए अधिक उच्चस्तरीय सेवा-साधन कर सकने में समर्थ हो सकें। यदि उनका पालन न किया गया और लोकेषणा से उत्पन्न
विष का नियमित रूप से निष्कासन न किया गया तो वही दुर्गति होगी जो भोजन करने तथा मल-विसर्जन में उपेक्षा बरतने पर प्राण-संकट के रूप में उत्पन्न होती है। लोकसेवी
को जनता सम्मान देती है। वह वस्तुत:
वह सेवा धर्म की
पुण्य-परंपरा का सूत्र-संचालन तंत्र का सम्मान है। सत्प्रयोजनों के लिए लोक-श्रद्धा बनी रहे, मात्र इसी एक प्रयोजन के लिए सम्मान के प्रकटीकरण
की प्रथा चली है। गलती यह होती है कि सेवाभावी उसे अपनी व्यक्तिगत योग्यता का प्रतिफल
मानते हैं। अहंकार में डूब जाते हैं और उसे अपना अधिकार समझने लगते हैं। जहां उसमें
कमी होती है, वहां अप्रसन्न होते हैं। अधिक पाने के लिए
आतुर रहते हैं। बंटवारा होने के कारण साथियों को हटाने या गिराने का प्रयत्न करते हैं।
ऐसे ही हथकंडे अधिक मात्रा में सम्मान पाने के लिए प्रयुक्त किए जाते हैं। इस आपाधापी
में कौन कितना सफल हुआ यह तो ईश्वर ही जाने,
पर यह आंख पसार कर
सर्वत्र देखा जा सकता है कि यश-लोलुपता,
पद-लोलुपता, अहम्मन्यता किसी के छिपाए नहीं छिपती। उभर
कर ऊपर आती है तो हर किसी को उसकी दुगर्ध आती है और बदले में घृणा, तिरस्कार पनपने लगता है। अनौचित्य के प्रति तिरस्कार का यह भाव सर्वप्रथम साथियों
से आरंभ होता है। चर्चा आगे बढ़ती है और यश लोलुप के विरूद्ध असंतोष-तिरस्कार का विस्तार क्रमश: अधिक क्षेत्र में होता चला जाता है। यही है
वह प्रतिक्रिया जिसके कारण यश-लोलुप तिरस्कार के भाजन बनते और जिस श्रेय-सम्मान के अपनी सेवा-साधना के कारण अधिकार थे, उससे भी वंचित होते चले जाते हैं।
बड़प्पन हर क्षेत्र में महँगा पड़ता है। धन, विद्या, सौंदर्य,
पद आदि के क्षेत्र
में जो अपने को बड़ा सिद्ध करना चाहता है उन्हें तरह-तरह के आडंबर खड़े करके यह प्रकट करना होता है कि उनके पास यह विशेषताएं हैं। लोग
उसे देखें, समझें,
सराहें। फैशन, ठाठ-बाट जैसे खर्चीले सरंजाम इस विज्ञापनबाजी
के लिए किए जाते हैं, ताकि देखने वालों की आंखें उन पर आएँ। यही
अनाचरण यश-लोलुपों को भी अपनाना पड़ता है। वे किसी न
किसी बहाने अपनी शकल बार-बार लोगों को दिखाना चाहते हैं। इसके उन्हें
अनेक ऐसे उद्धत आडम्बर रचने पड़ते हैं जिससे उनकी प्रमुखता सिद्ध होती है। स्टेज
पर उनके बैठने का औचित्य या आमंत्रण न होने पर भी वहाँ जा धमकते हैं। ऐसी जगह अकारण
खड़े होते हैं, जहां लोग उनकी शक्ल देखें और किसी महत्त्वपूर्ण
ड्यूटी पर लगे हुए प्रतीत हों। अपने नाम फोटो छपाने के लिए आतुर रहना, किसी कार्य में दान दिया हो तो उसकी चर्चा स्वयं करने, दूसरों से कराने का रास्ता खोजना,
दान-राशि के पत्थर जड़वाना जैसी बचकानी हरकतें करने वाले प्रयत्न तो यशस्वी बनने का
करते हैं, पर उनकी क्षुद्रता अनायास ही प्रकट होती जाती
है, फलत:
वे घृणा-तिरस्कार के पात्र बनते हैं। यश के साथ परोक्ष रूप से धन लूटने की भी संभावना जुड़ी
रहती है। कितने ही इसका लाभ उठाते भी हैं,
किन्तु स्पष्ट है
कि ऐसे हथकंडे अपनाने वाले आंतरिक दृष्टि से पतित होते चले जाते हैं। फलत: वे सेवा क्षेत्र में न आने की अपेक्षा भी अधिक घाटे में रहते हैं। तिरस्कृत, उपेक्षित, बहिष्कृत की स्थिति में पहुँचे हुए अनेक तथाकथित
नेता ऐसे पाए जा सकते हैं, जो येन-केन-प्रकारेण सम्मानजनक स्थान तक जा पहुँचने, जा बैठने में तो सफल हो जाते हैं,
पर संपर्क क्षेत्र
में सघन श्रद्धा से क्रमश: अधिकाधिक वंचित होते चले जाते हैं।
यह अहंता के परिपोषण का प्रतिफल है, जिसे लोकसेवी अनजाने ही अपनाने लगते हैं । स्मरण रखा जाय, यह घुड़-दौड़ अत्यंत महंगी, घाटे की और मूर्खतापूर्ण है। सड़क पर नंगा नाच-नाच कर भी लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित
किया जा सकता है, पर उससे कुछ बनता नहीं। जिस प्रकार बड़प्पन
पाने के लिए उद्धत प्रदर्शन करने वाले नट विदूषक समझे जाते हैं, उसी प्रकार यश, लिप्सा भी व्यंग्य, उपहास, तिरस्कार का कारण बनती है। सामने कोई कहे
भले ही नहीं, पर इस तथ्य के थोड़ा-सा पर्यवेक्षण करने पर सरलतापूर्वक चरितार्थ होते देखा जा सकता है कि प्रमुखता
सिद्ध करने के लिए चित्र-विचित्र स्वांग बनाने वोल नाटक में मुखौटे, परिधान पहन कर कभी राजा, कभी ऋषि बनने वाले की तरह अपनी अवास्तविकता
का ढिंढोरा स्वयं ही पीटते फिरते हैं। उसमें उन्हें श्रम, समय, धन और चातुर्य का निरर्थक अपव्यय करना पड़ता
है। मूर्ख या चमचे इर्द-गिर्द इकट्ठा करके उनके बीच रंग सियार द्वारा
वन-राजा बनने का ढकोसला भर खड़ा किया जा सकता
है, पर उससे मिलना क्या है? परोक्ष व्यंग्य, उपहास और अपने साथ जो गहरी अवज्ञा छिपाए रहते
हैं, उससे लोकसेवक विदूषक स्तर का बनकर रह जाता
है। इस दुर्मतिजन्य दुर्गति का यदि पूर्वाभास रहे तो लोकसेवा के क्षेत्र में प्रवेश
करने वाले आरंभ से ही सजग रहें और खिलवाड़ रचने की अपेक्षा अमानी रहने का मार्ग चुनें।
विज्ञापनबाजी से बचकर नम्रताजन्य स्नेह,
सौजन्य अपनाने वाले
वस्तुत: अधिक श्रेयाधिकारी बनते हैं। यश-लिप्सा भी छाया की भांति है, उसके पीछे दौड़ने वाले असफल रहते और थकान, खीझ, पश्चाताप के अतिरिक्त और कुछ पाते नहीं। इनकी
अपेक्षा वे कहीं नफे में रहते हैं,
जो श्रेय दूसरों
को बांटते हैं, स्वयं पीछे रहते हैं। विनम्र स्वयंसेवक की
तरह जिन्हें अपने श्रम, साधन,
परमार्थ परायणता
के आधार पर मिलने वाले आत्म-संतोष को ही पर्याप्त मानने की विवेक दृष्टि
रहती है, वे अनचाहा यश पाते हैं। उन्हें वह गहरा स्नेह, सद्भाव प्राप्त होता है, जिसके साथ साथियों, परिचितों का विश्वास और सहयोग प्रचुर मात्रा में जुड़ा रहता है। दूरदर्शिता इसी
में है कि लोक-सेवी सच्चे मन से यश, पद-लोलुपता,
अहंता छोड़ें। विनम्रता
अपनाएँ। दूसरों को आगे रखें, स्वयं पीछे रहें। अपना बखान आप न करें। अपना
चेहरा चमकाएँ नहीं वरन् उस तरह रहें जैसे कि सादा जीवन-उच्च विचार के सिद्धांत में आस्था रखने वाले अपने दृष्टिकोण, चरित्र, व्यवहार में अधिकाधिक शालीनता भरते और महानता के उच्च पद पर अपनी विशिष्टता
के कारण जा पहुंचते हैं।