Wednesday, May 8, 2013

अंतर जगत और वाह्य जगत


ध्यान के क्षणों में गुरुदेव की वाणी ने कहा देखो, जैसा बाहरी जगत है वैसा ही एक अंर्तजगत भी है। एक आत्मा का संसार है, एक नाम रुप का संसार है। और वत्स, यदि बाहरी जगत में आश्चर्य है, रहस्य है, विशालता है, सौंदर्य है, महान गौरव है तो अंर्तजगत में भी अमेय महानता और शक्ति, अवर्णनीय आंनद तथा शान्ति और सत्य का अचल आधार है। हे वत्स! बाहरी जगत अंर्तजगत का आभास मात्र है, और इस अंर्तजगत में तुम्हारा सत्यस्वरुप स्थित है। वहाँ तुम शाश्वतता में जीते हो जब कि बाहरी जगत समय की सीमा में ही आबद्ध है। वहाँ अनन्त और अपरिमेय आनन्द है, जबकि बाहरी जगत में संवेदनायें, सुख तथा दु:ख से जुड़ी हुर्इ है। वहाँ भी वेदना है किंतु अहो, कितनी आनंददायी वेदना है! सत्य का पूर्णत: साक्षात्कार न कर पाने के विरह की अलौकिक वेदना! और ऐसी वेदना विपुल आनंद का पथ है।
आओ, अपनी वृति को इस अंर्तजगत की ओर प्रस्तुत करो। आओ, मेरे प्रति उत्कट प्रेम के पंखों से उड़कर आओ। गुरु और ​शिष्य के संबंध से अधिक घनिष्ट और भी कोर्इ संबंध है क्या? हे वत्स, मौन! अनिर्वचनीयता!! यही प्रेम का लक्षण है। तथा मौन की गहन गहराइयों में भगवान विराजमान हैं। सभी बाहरी झंझटों का छोड़ों। जहाँ भी मैं जाउँ, तुम आओ। मैं जो बनूँ, तुम भी वही बनो। भगवत पवित्रता के लिए भक्तों के हृदय विभिन्न मंदिर है, जहाँ सुगंधित धूप की तरह विचार ईश्वर की ओर उठते है। तुम जो कुछ भी करते हो उसका अध्यात्मीकरण कर लो। रुप अरुप सभी में ब्रहा का, देवत्व का दर्शन करो। ईश्वर से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं है।
अंर्तजगत की अंतरतम गुहा में जिसमें व्यक्ति उत्कट प्रेम या कातर प्रार्थना द्वारा प्रविष्ट होता है, वहाँ अनुभूति में आध्यात्मिक जगत के ब्रह्माण्ड के बाद ब्रह्माण्ड भरे हुये है तथा ईश्वर सर्वदा सन्निकट है। वह भौतिक अर्थ में निकट नहीं किंतु आध्यात्मिक अर्थ में हमारी आत्मा के भी आत्मा के रुप में। वे हमारी आत्मा के सार तत्त्व है। वे हमारे सभी विचारों तथा अंतरतम में छिपे अति गोपन आकांक्षाओं के भी ज्ञाता है। स्वंय को समर्पित कर दो। प्रेम के लिए प्रेम! जितना अधिक तुम अंतर में प्रविष्ट करते हो उतना ही तुम मेरे निकट आते हो क्योंकि मैं अंतरतम का निवासी हूँ। क्योंकि मैं ही वह चुम्बक हूँ जो तुम्हारी अनुभूति तथा आत्मा की महीमा को प्रगट करता है। मैं आत्मा हूँ, विचार या रुप से अछूती आत्मा! मैं अभेद, अविनश्वर आत्मा हूँ। मैं परमात्मा हूँ। ब्रहा हूँ।
गुरुदेव की वाणी कितनी आश्चर्यजनक है! मेरी आत्मा पुकार उठती है। हे महाभाग, आप स्वयं ईश्वर है। आप जिसका उपदेश देते है आप स्वंय वही है। आप विश्व की आत्मा है। आप सर्वस्व है। यदपि आपकी माया विविध रुप का आभास देती है तथापि आप स्वंय एकम् अद्वितीयम् हैं। आपके एकत्व की महिमा महान् है, क्योंकि आत्मा एक है। आत्मा सारभूत है जिसमें अंश या विभाग नहीं है। आत्मा एक ही ज्योति है जो विभिन्न रंगों के काँचों से देखी जा रही है। हे गुरुदेव, मुझे कृपया उस जीवन में ले चलिये जो आपका जीवन है। आप ब्रह्मा है! आप विष्णु हैं! आप सदाशिव है! आप ब्रह्मा है! परम् ब्रह्मा है!!
              हर हर बम बम महादेव!
उसके पश्चात मेरी आत्मा मानो सातवें आसमान में पहुँच गर्इ। और मैंने मनुष्य की दिव्यता के दर्शन किए। मनुष्य की दुर्बलता के महत्व को भी समझा। मैने देखा वहाँ सब कुछ दिव्य है। तथा इस दिव्य ज्योति के भीतर मैने देखा कि इस अंर्तजगत में अनुभूति के पर्वत पर गुरुदेव मानो दूसरे कृष्ण हो कर विराजमान हैं। गहन! समय से गहन! आकाश से भी अधिक सर्वव्यापी हैं ध्यान राज्य का यह अंतर्जगत। वहाँ अधंकार हो ही नहीं सकता। क्योंकि वहाँ केवल ज्योति है। वहाँ अज्ञान हो ही नहीं सकता क्योंकि वहाँ ज्ञान है। वहाँ मृत्यु का वश नहीं चलता। अग्नि जला नहीं सकती, जल भिगा नहीं सकता, वायु सुखा नहीं सकती। वह उस पुराण पुरुष का राज्य है। जीवन की सभी छलनाओं के पार असीम और कूटस्थ है।
और उस महिमा में अंतरतम से बोलते हुये गुरुकी वाणी ने कहा वत्स! यह तुम्हारी विरासत है। अनन्तशक्ति तुम्हारी है। जब सभी शक्ति तुम्हारी है तब क्या तुम दुर्बल हो सकते हो। इन्द्रियों के दिखावे से तुम संतुष्ट नहीं रह सकते। इस ब्राहा जगत् की तड़क भड़क के पीछे मृत्यु तथा विस्मृति ही है। जब मृत्यु आती है यह शरीर शव हो जाता है किंतु आत्मा सदैव मुक्त है। वह अशरीरी है। साक्षी है, क्योंकि शरीरों का नाश हो सकता है किंतु आत्मा अनश्वर है।
मेरी आत्मा ने गुरुदेव से निवेदन किया-महाभाग, कितना अदभुत है! वहाँ मृत्यु नहीं है! और तब गुरुदेव ने कहा वत्स! वहाँ वासनासंभूत जीवन भी नहीं हैं क्योंकि लोग जिसके भूखे है वह संसार कीच ही तो है। दूषित वासनाओं में आनंद लेनेवाले लोग कीचड़ में सने शरीर में आनंद से लोटने वाले बैल के समान ही तो है, उनके लिए यह पथ बहुत लम्बा है क्योंकि इच्छाओं के ताने बाने से बनी माया उनके पथ में आड़े आती है। तुम उसके परे जाओ। तुम्हारा समय आएगा। उपर की ओर देखो। वहाँ अनन्तज्योति है। उपर देखो और वह ज्योति तुम्हारे मन की अपारदर्शिता को अवश्य भेद जायेगी।
इन शब्दों को सुनकर मुझे स्मरण हो आया कि चैतन्य ही आत्मा का स्वरुप है तथा मुक्ति ही लक्ष्य है। और वह लक्ष्य यहाँ और अभी है, मरणोपरान्त नहीं, तथा जीवात्मा का भाग्य निश्चित है और वह है आत्म-साक्षात्कार, जहाँ समय मिट जाता है। जहाँ भौतिक और मर्त्य चेतना विलुप्त हो जाती है। जहाँ ज्योति जो कि जीवन है, सत्य है, शांति है, वह प्रकाशित होती हैं। जहाँ सभी स्वप्न समाप्त हो जाते है, वासनायें असीम अनुभूति में विलीन हो जाती है। जो कि महत् विस्तार का क्षेत्र है। उस अनन्त की अनुभूति के लिए, समय का अवसान कर देने के लिए, इन्द्रिय प्रभूत कल्पनाओं की समाप्ति के लिए, अनंत की मुक्ति के लिए ही यह अनुभूति है।   

हरि ओम् तत् सत्   with thanks from  समाधि के सोपान    --एफ जे अलेकजेन्डर
published by  - adwait ashram 

1 comment:



  1. बुद्धि से परे आत्मा है। यह बुद्धि, यदि अपने से श्रेष्ठ आत्मा की ओर देखने लग जाये तो कामना का नितान्त अभाव हो सकता है। जब ईश्वर अंश अविनाशि मनुष्य जीव बुद्धि, *आत्मा को भूल कर*, मन के पीछे लग गई, मन बुद्धि और आत्मा को भूल कर इन्द्रियों के पीछे जाने लगा, तब इन्द्रियाँ, जो केवल विषय सम्पर्क ही कर सकती हैं, विषयों से लिपट जाती हैं। तत्पश्चात् *मनुष्य जीव विषय प्रधान होने लग जाते हैं। तब इन्सान दिव्य दृष्टि खोकर चर्म चक्षुओं अर्थात आँखों वाले अन्धे हो जाते हैं,* उन्हें विषयों की ही कामना रह जाती है। इस सबका मूल तनो तद्‍रूपता ही है। *जिस पल प्राणी ने अपने आपको प्रथम बार तन मान कर तन को ‘मैं’ कहा, उस पल से यह आरम्भ हो गया। उस पल से देहात्म बुद्धि दृढ़ीभूत होने लगी और जीव व्यक्तिगत होने लगा। फिर वह सत्य को छोड़ कर, तनो उपासक हो गया।* जब तक तनत्व भाव रहता है, तब तक जीव व्यक्तिगत होता है। *जब तनत्व भाव का सीमित भाव मिट जाता है,* क) *तब ‘मैं’ का योग असीम आत्म तत्व से हो जाता है।* ख) *तब कह लो, ‘मैं’ भाव ब्रह्म में विलीन हो जाता है।* ग) वह अक्षर में अक्षर हो जाता है। घ) *तब वह नित्य, शाश्वत, निराकार, स्वयं हो जाता है।* भगवान कृष्ण के तन राही यह सब वाक् अर्जुन सुन रहे थे। *भगवान कृष्ण के तन से यह सब वाक् तो बह रहे थे, किन्तु उनके तन का मिथ्या मालिक, ‘मैं’ था ही नहीं। क्यों न कहें, परम अध्यात्म स्वरूप एक तन था, या कहूँ, माटी के बुत राही वह अविनाशी योग समझा रहे थे।* अविनाशी योग में स्थित आत्मवान् गण का राज़ समझाते हुए भगवान ने कहा : ‘मैं भी कर्तव्य करता हूँ! यद्दपि मेरा कोई कर्तव्य नहीं है और मुझे इस संसार से कुछ नहीं पाना, तब भी मैं कर्मों में ही वर्तता हूँ।’ आत्मवान् भी यही करते हैं। आत्मवान् का कर्तव्य : फिर इसी अविनाशी योग युक्त को आदेश देते हुए भगवान ने कहा : 1. अज्ञानियों में बुद्धि भेद उत्पन्न न करो। 2. अज्ञानियों की बुद्धि को व्यर्थ चलायमान नहीं करो। 3. अज्ञानीगण जैसे कर्म करते हैं, तुम भी सावधानी से वही करो। 4. ज्ञानीगण अपने स्वरूप में स्थित हुए, साधारण कर्म करते हुए, औरों से भी वैसे ही कर्म करवायें, यानि उन्हें भी कर्मों की ओर नियोजित करें। यही आत्मवान् करते हैं। यही आत्मवान् की स्थिति का चिह्न है। यही आत्मवान् बनने का पथ है। इसका अभ्यास करते करते जीवात्मा का योग आत्मा से हो जाता है। यही ब्रह्म का स्वभाव है, यही अध्यात्म है। इसके बिना योग नहीं हो सकता। भगवान ने इसी योग की सिद्धि अर्थ, 1. अर्जुन को आत्मा तथा जीवात्मा के एकत्व का ज्ञान दिया। 2. *मृत्यु धर्मा तन तथा तनो कर्म को त्रिगुणात्मिका शक्ति रचित तथा त्रैगुण का खिलवाड़ कहा।* 3. तनत्व भाव से उठने की विधि कही। 4. तनत्व भाव रहित की स्थिति का ज्ञान दिया। 5. फिर अर्जुन को आदेश दिया कि, ‘तू भी यही कर, तब तू भी आत्मवान् बन जायेगा।’

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