Sunday, May 26, 2013

New Book for Gayatri Pariwar- युग निर्माण-13

उंपसहार
सन 1857 की क्रांति के ठीक सौ वर्ष बाद 1958 में विराट सहस्त्र कुण्डी यज्ञ के साथ गुरूदेव ने विचार क्रांति का बिगुल बजाया। आज बहुत से मिशन साहित्य, मिडिया, कथा, सत्संग के माध्यम से विचार क्रांति की बात कर रहे है। जैसे बाबा रामदेव, दिव्य ज्योति जाग्रति एंव अन्य। परंतु केवल विचार क्रान्ति का सहारा लेकर युग परिवर्तन करना उसी प्रकार संभव नहीं है जैसे एक पैर पर चलकर मंजिल तय करना। विचार क्रांति के साथ कर्म क्रांति की और रचनात्मक अभियानों की और तेजी से बढ़ना होगा। मिशन निजी स्तर पर यह प्रयास करें व कुछ मुद्दो पर एक जुट होकर यह प्रयास करें।
आज सभी यह कह रहे है कि गाय का दुध अच्छा है जैविक खेती का अन्न बढ़िया है ब्रह्मचर्य पालन श्रेष्ठ है राजनीति में अच्छे लोग आने चाहिए परंतु विचारणीय प्रश्न यह है कि गाय का दुध उपलब्ध कैसे हो जैविक अन्न कहाँ से आए? अश्लील समाग्री के रहते ब्रह्मचर्य का पालन कैसे सधे? भ्रष्टाचार से विमुन्क्त व राष्ट्रिय सोच के लोग राजनैतिक मोर्चे पर कैसे जीतें।
सघंन आत्ममंथन व एक सुनिश्चित रूप रेखा, दिग्दर्शिका बनाकर ही यह सम्भव हो सकता हैं इसके लिए बड़ी सख्याँ में गुरू के भारत माँ के प्यारे चाहिए। जो त्याग, तप, तितिक्षा के द्वारा ब्रह्मकमल के रूप में उभरें। इन उभरते प्राणवानों कों चिन्हित करना व संगलित करना आज एक आवश्यक कदम हैं।
एक रूपरेखा यह भी हो सकती है कि हमने 1976 से लेकर 2000 तक प्रचार अभियान खूब किया। 2001 में देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के साथ हमने रचानात्मक अभियान की अच्छी शुरूवात की थी यह अभियान 2024 तक निरन्तर तेजी से आगे चलें। जैसे प्रचारात्मक अभियान 1990 से 2000 तक हमने पूरे जोर शोर से किया था वैसे ही 2014-2024 अन्तिम दस वर्षो में रचानात्मक अभियान की धूम मचा दें। साथ-2 संघर्षात्मक अभियान की भी भूमिका बनाते रहें। जिसमें सन् 2025 से 2049 तक संघर्षात्मक अभियान तेजी से चले व सन् 2050 से ऋषियों का सविधान इस राष्ट्र में लागु हो सके।
हमारे लक्ष्य निम्न है।
(1) ब्रह्मकमल के रूप में उभरती प्रतिभाओं का संरक्षण, मार्गदर्शन जिससे रचानात्मक अभियान तेजी पकड़े व संघर्षात्मक अभियानों की भूमिका बनें।
(2) रचनात्मक अभियानों पर जोर।
(3) समान मानसिकता अथवा समान मुद्दो पर मिशनो में एकरूपता।
(4) प्रान्तिय स्तर पर 108 लोगों की कमेटियों का गठन जो प्रान्तिय स्तर पर कार्य का निरीक्षण करें व समस्याओं का निराकरण करें।
(5) राष्ट्रिय स्तर पर सवा लाख हीरो का चयन जो कर्म क्षेत्र में कूदें व अपनी प्रतिभा से जन सामान्य में हलचल उत्पन्न करें।
(6) वर्ष में दो बार प्रान्तिय व केन्द्रिय स्तरों पर कार्यकर्ता सम्मेलन।
(7) प्रान्तिय स्तर पर कार्यकर्ता कोष का गठन जिससे आर्थिक रूप से कमजोर लोकसेवियों की सहायता हो सकें। वो बधुंवा मजदूर बनने के लिए मजबूर न हो।
(8) साधनात्मक अभियान व मार्गदर्शन के लिए विशेष टीमो का गठन। व्यक्ति की साधना में विक्षेप आते ही हम उसे मात्र मानसिक चिकित्सालय में भेज देते है उसकी जड़ो तक नहीं पहुँच पाते कि ऐसा क्यों हुआ? यदि साधना को उचित मार्गदर्शन मिले तो वह विधनों का पूर्ण आत्मबल से सामना करेगा घबराएगा नहीं व सावधानी पूर्वक आगे बढ़ते हुए साधना में सफल होगा।
(9) प्रोफेशनल कालेजो में सेमिनार्स व workshop के द्वारा युवाओ का जागरण।
जीवन में अनेक बार पढ़ा व सुना था कि प्रतिकूलताएँ व दुख मानव के कल्याण के लिए आते हैं। आम तौर पर मैं कालेज की जिम्मेदारियों में इतना व्यस्त रहता हुँ कि भगवान के काम के लिए समय नहीं मिल पाता।
परंतु अपने सर्वाइकल के कष्ट के दौरन कुछ अंदर से अच्छी प्रेरणाएँ उभरी, कलम चलने लगी व देखते-2 एक पुस्तक बनकर तैयार हो गयी। गुरू सत्ता सही कहती थी कि हम कुत्ते से भी मंच पर प्रवचन करा सकते है। मुझे इस बात का हर्ष हैं कि मुझ अल्पज्ञ से भी पुस्तक लिखा डाली।
जब ईश्वर की इच्छा होती है कार्य स्वयं होने लगता हैं मेरी पहली पुस्तक ‘‘सनातन धर्म का प्रसाद‘‘ बहुत पंसद की गयी। मुझे साहित्य पढ़ने व नोटस बनाने का बहुत शोक था मैं डायरी में अच्छी-2 बातें लिखा करता था। एक बार मेरे एक विद्यार्थी वह डायरी पढ़ी व उसको पुस्तक का रूप देने का आग्रह करने लगा। उसने स्वंय computer पर अपने हाथ से सारी setting की। पहली पुस्तक प्रकाशित हो गयी।
आजकल मेरे मन में एक विचार और उभर रहा है। जो लोग साधना अथवा ईश्वर प्राप्ति को अपना लक्ष्य बनाए है उनको उचित मार्गदर्शन के अभाव में काफी भटकना पड़ता है क्यों न एक पुस्तक साधना के ऊपर लिखी जाए। जिनके जो अनुभव वो भेजे ताकि साधक वर्ग को उनका लाभ मिलें।
बहुत से प्रसंगों में मैंने यह पाया है कि ईश्वरीय इच्छा मानव पर अपना दबाव बनाकर अपना कार्य करा लेती है। मेरा जीवन कभी चैन से नहीं गुजरा। कुछ न कुछ छोटी-बड़ी कठिनार्इयों का सामना सदैव करते रहना पड़ा परंतु इतने पर भी दैवीय प्रेरणाँए उभरती रहती हैं व कुछ करने के लिए प्रोत्साहित करती है। ईश्वर पर, गुरू पर विश्वास कर आगे बढ़ते है तो साथियों का प्यार, सहयोग मिलता है वह कार्य सम्भव हो जाता है।
इस पुस्तक के लेखन में भी अमीर, गरीब सबका, अनपढ़ से लेकर बड़े अधिकारी वर्ग सभी वर्ग का सहयोग मिला। कुछ कारणों से उनका नाम गुप्त रखा गया है। अंत में अपने सभी सहयोगियों की आत्मिक प्रगति की प्रार्थना करता हूँ व पाठक वर्ग से विनम्र निवेदन करता हूँ कि अपने सुझाव हमें दे ताकि पुस्तक का अगला अंक इससे भी अधिक रूचिकर, व्यवस्थित एवं प्रेरणप्रद हों।
जय गुरूदेव जय श्री राम।
सामर्थ्य बढ़ने के साथ ही मनुष्य के दायित्व भी बढ़ते है। ज्ञानी पुरूष बढ़ती सामथ्र्य का उपयोग पीड़ितों के कष्ट हरने एवं भटकी मानवता को दिशा दिखाने में करते हैं और अज्ञानी, उसी सामथ्र्य का उपयोग अहंकार के पोषण और दूसरों का अपमान करने के लिए करते हैं।
जय और विजय भगवान विष्णु के द्वारपाल थे। उन्हें अपने पद का अभिमान हो गया। एक दिन उसी अंहकार के कारण उन्होंने सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार जैसे ऋषियों का  अपमान कर दिया। परिणाम स्वरूप उन्हें असुर होने का शाप मिला और तीनों कल्पों में हिरण्याक्ष-हिरण्यकशिपु, रावण-कुंभकरण एवं शिशुपाल-दुर्योधन के रूप में जन्म लेना पड़ा। इसी कारण लोकसेवियों को भी भगवान के प्रतिनिधि के रूप में जनता श्रद्धापूर्वक देखती है। यदि वो अपने पद का दुरूपयोग करेगें तो उन्हें भी ऋषि सत्ता के कोप का भाजन बनना पड़ेगा। अत: अपनी सामथ्र्य का गरिमापूर्ण एवं न्यायसंगत निर्वाह करें।
(यह बोल रहा है महाकाल- श्री राम शर्मा आचार्य)
आप अपना लक्ष्य स्थिर किजिए। किस आदर्श के लिए अपना जीवन लगाना चाहते हैं, यह निश्चित कीजिए। तत्पश्चात उसी की पूर्ति में मन, वचन और कर्म से लग जाइए। लक्ष्य के प्रति तन्मय रहना मनुष्य की इतनी बड़ी विशेषता, प्रतिष्ठा, सफलता और महानता है कि उसकी तुलना में अनेकों प्रकार के आकर्षक गुणों का तुच्छ ही कहा जाएगा।
भविष्य की आशंका से चिंतित और आतकिंत कभी नहीं होना चाहिए। आज की अपेक्षा कल और भी अच्छी परिस्थितियों की आशा करना, यही वह सम्बल है जिसके आधार पर प्रगति के पथ पर मनुष्य सीधा चलता रह सकता है। जो निराश हो गया, जिसकी हिम्मत टूट गर्इ, जिसकी आशा का दीपक बुझ गया, जिसे अपना भविष्य अंधकारमय दीखता रहता है, वह मृतक समान है।
अनीतिपुर्वक सफलता पाकर लोक-परलोक, आत्म-संतोष, चरित्र धर्म तथा कर्तव्य निष्ठां का पतन कर लेने की अपेक्षा नीति की रक्षा करते हुए असफलता को शिरोधार्य कर लेना कहीं ऊँची बात है। अनीति मूलक सफलता का अंत में पतन तथा शोक-संताप का ही कारण बनती है। रावण, कंस, दुर्योधन जैसे लोगों ने अधर्मपूर्वक न जाने कितनी बड़ी-बड़ी सफलताएँ पार्इ, किंतु अंत में उनका पतन ही हुआ और पाप के साथ लोक निन्दा के भागी बने। आज भी उनका नाम घृणापूर्वक ही लिया जाता है।
यदि हमारे युवक-युवतियाँ अभिनेताओं तथा अभिनेत्रियों के पहनावे, श्रृगार, मेकअप, फैशन, पैण्ट, बुश्शर्ट, साड़ियों का अंधानुकरण करते रहे तो असंयमित वासना के द्वार खुले रहेंगे। गंदी फिल्में निरन्तर हमारे युवकों को मानसिक व्यभिचार की ओर खींच रही हैं। उनका मन निरन्तर अभिनेत्रियों के रूप, सौंदर्य और नाज-नखरों में भँवरे की तरह अटका रहता है। लाखों-करोड़ों न जाने कितने तरूण-तरूणियों पर इसका जहरीला असर हुआ है फिर भी हम इसे मनोरंजन मानते है।
कर्तव्य पालन को सब कुछ मानें। असीम महत्त्वाकांक्षाओं के रंगीले महल न रचें। र्इमानदारी से किए गये पराक्रम में ही परिपूर्ण सफलता मानें और उतने भर से संतुष्ट रहना सीखें। कुरूपता नहीं, सौंदर्य निहारें।
आंशकाग्रस्त, भयभीत, निराश न रहें। उज्जवल भविष्य के सपने देखें। याचक नहीं, दानी बनें। आत्मावलम्बन सीखें। अहंकार तो हटाएँ, पर स्वाभिमान जीवित रखें। अपने समय, श्रम, मन और धन से दूसरों का ऊँचा उठाएँ। सहायता करें, पर बदले की अपेक्षा न रखें। बड़प्पन की तृश्णाओं को छोड़ें और उनके स्थान पर महानता अर्जित करने की महत्त्वकांक्षा सँजोयें।
जो सोचते बहुत है, पर करते कुछ नहीं, वे एक प्रकार के पागल हैं। श्रेष्ठता पर यदि आस्था है तो उस आस्था को परिपक्क करने के लिए उस मार्ग पर चलना भी चाहिए। आज मानव जाति अपने भाग्य का निपटारा करने के केंद्र बिंदु पर खड़ी है, उसे विकास या विनाश में एक मार्ग चुनने का अविलम्ब फैसला करना है?
ईश्वर सर्वत्र है, इसका यह गलत अर्थ नहीं लगा लेना चाहिए कि जहाँ जो कुछ भी हो रहा है ईश्वर की इच्छा से हो रहा है। बुराइयाँ, बुरे काम ईश्वर की इच्छा से कदापि नहीं होते। पाप कर्म तो मनुष्य अपनी स्वंतत्र कर्तृत्व शक्ति का दुरूपयोग करके करते हैं। इस दुरूपयोग का नाम ही शैतान है। शैतान की सत्ता को हटाकर ईश्वरीय सत्ता का प्रकाश में लाना, यह मनुष्य मात्र का धर्म है।
सिद्धान्तों को पालने के लिए हमने सामने वाले विरोधियों, शंकराचार्यो, महामण्डलेश्ररों और अपने नजदीक वाले मित्रों का मुकाबला किया है। सोने की जंजीरों से टक्कर मारी है। जीवन पर्यन्त अपने आपके लिए, समाज के लिए, सारे विश्व के लिए और महिलाओं के अधिकारों के लिए हम अकेले ही टक्कर मारते चले गये। अनीति से संघर्ष करने लिए युग निर्माण का विचार क्रान्ति  का सूत्रपात किया। वत्तुत: अन्यास के विरूद्ध संघर्ष करना प्रत्येक धर्मशील व्यक्ति का मानवोचित कर्तव्य है।
उन लोगों को सचेत होकर अपना कर्म करना चाहिए, जो सोचते हैं कि भगवान् सब कर देगें और स्वंय हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें। जीवन में जो कुछ मिलना है, वह अपने पूर्व वर्तमान कर्मो के फल के अनुसार यदि मनुष्य का कुछ किया न हो, तो स्वंय विधाता भी उसकी सहायता नहीं कर सकता।
उच्चस्तरीय साधना के लिए पात्रता( अर्थात तपाना एंव गलाना) अनिवार्य
मित्रो! हमारा अध्यात्म महँगा है। हमारे अध्यात्म में गहरार्इ है, कठोरता है। मेरा अध्यात्म वह है, जिसमें आदमी को तिलमिलाना पड़ता है। तिलमिलाने वाले अध्यात्म का आदमी, कीमत पाता है। मैं यकिन दिला सकता हुँ कि इसमें आदमी तिलमिलाता तो है, पर पाता जरूर है। यह बात मैं सौ फिसदी सच कह सकता हुँ और गांरटी के साथ कह सकता हुँ और शपथपुर्वक अपने अनुभवों की साक्षी देकर कह सकता हुँ कि अगर आपने महँगा अध्यात्म खरीदा है, तो आप महँगी सिद्धियाँ पाएँगे। महँगे चमत्कार पाएँगे, महँगा आनंद पाएँगे और महँगी शान्ति पाएँगे। अगर आप कीमत चुकाएँगे तो। और अगर कीमत नहीं चुकाएँगे और ये खेल-खिलौने करेंगे, तो आप अपने मन को समझा भले ही लें, मन को बहका भले ही लें। आपकी मरजी है, जैसा चाहें वैसा करें, लेकिन आप कुछ पा नहीं सकेंगे।
मित्रो! राजा युधिष्ठिर के पास एक कुत्ता था। उनको लेने के लिए जब विमान आया, तो उन्होंने कहा कि हम चलेंगे और हमारा कुत्ता चलेगा। नहीं साहब! कुत्ता तो स्वर्ग में नहीं जा सकता, तो हम भी स्वर्ग में नहीं जा सकते। जब उनका कुत्ता विमान में बैठा, तब युधिष्ठिर भी बैठे! युधिष्ठिर भी गए थे और कुत्ता भी गया था। बेटे! आप कुत्ते तो नहीं है, हमारे बेटे और भतीजे हैं। आपको तो पार करना ही होगा। आपकी मुसीबतों में हम पहले सहायता करेंगे, पीछे अपनी मुसीबतों पर ध्यान देंगे, परंतु आप पहले अध्यात्मवादी तो बनिए, सही दृष्टिकोण तो अपनाइए। अध्यात्म को समझिए तो सही। अध्यात्म के प्रति जो कर्तव्य है, उनको तो जानिए। अध्यात्म में कया करना पड़ता है, इतना तो समझ लीजिए। इतना भी नहीं समझेंगे, तो मैं क्या करूँगा।
मित्रो! यह उच्चस्तरीय साधना है और यह ऑपरेशन के बराबर है। जब आप ऑपरेशन के लायक होंगे, जब हम आपका खून टेस्ट कर लेंगे कि आपको डायबिटीज तो नहीं है, तब आपकी आँख का ऑपरेशन करने को बुलाएँगे। नहीं महराज नहीं! हमको तो ऐसे ही करा दीजिए। नहीं बेटे! तेरी आँख खराब हो जाएगी। तु डायबिटीज का मरीज है। तेरी आँख के मोतियाबिंद का ऑपरेशन करेंगे, तो तेरा जख्म अच्छा नहीं होगा। जख्म फैल जाएगा और आँख जो थोड़ा-थोड़ा देखती है, वह भी चली जाएगी। इसलिए पहले हम देखेगें। हम यहाँ किसी को दस दिन के लिए बुलाते हैं और किसी को पंद्रह दिन के लिए बुलाते हैं और किसी को महिने भर के लिए बुलाते रहे हैं और देखते है, टेस्ट करवाते है। अभी हम आपको बुला रहे है। आपका टेस्ट ले रहे हैं और आपकी नब्ज देख रहे है कि अध्यात्म के मार्ग पर चलने के लिए जो कड़कपन आदमी के भीतर होना चाहिए, जो संयम होना चाहिए, जो निष्ठा होनी चाहिए,  वह आपके अंदर है कि नहीं। अभी तो हमने आपको धीरे-धीरे कसा है। सीरियस में कसेगें, तो चीं बोल जाएँगे। पिछली बार लोगों को कसा था, तो वे चीं बोल गए थे। नमक बंद कर दिया था। अरे साहब! सब्जी रोटी खानी पड़ेगीं, वो भी बिना नमक के। हाँ बेटे!
महारज जी! कुंडलिनी जगा दीजिए? बेटे! कुंडलिनी ऐसे नहीं जगती। कुंडलिनी तो साँपिनी होती है? हाँ बेटे! जब सपेरा आऐगा। तब मैं साँप भी जगवा दूँगा और साँपिनी भी जगवा दूँगा। दस पैसे देना, दोनों के दोनों जगकर खड़े हो जाएँगे। लेकिन बेटे आध्यात्मिक कुंडलिनी थोड़ी महँगी है। जब मैं देखूँगा कि आपके व्यक्तित्व और आपके मन के अंदर वो कड़क है, जो एक अध्यात्मवादी के अंदर होती है। जब वह कड़क मुझे दिखार्इ पड़ जाएगी, तो आपको बुला लूँगा और यहीं रखूँगा। आप मेरे पास रहना। इसके लिए स्थान बना रहा हूँ।
वास्तव में यह रास्ता ऐसा है, जिसमें सिखाया जाता है कि देने की अपेक्षा मिलता सौ गुना ज्यादा है। हमने जो किया है और हमारे गुरू ने जो सिखाया है और हमसे कराया है, उसकी अपेक्षा सौ गुना ज्यादा दिया है। बेटे! हम भी आपको अपनी नाव में बैठा लेगें, जैसे कि हमारे गुरूदेव ने हमको अपनी नाव में बैठा लिया था। अपनी नाव में बैठाकर हम आपको पार कर देंगे, जैसे की हमारे गुरुदेव ने हमारे हमको पार कर दिया है। आप हल्ला मत मचाना, शान्तिपूर्वक बैठे रहना, तो आप पार हो जाएँगे। नाव में उचक-मचक मचाएँगे, तो हमारी नाव को भी डूबो देंगे और आप तो डूबेंगें ही। इसलिए चुपचाप बैठना ही ठिक है। चुपचाप बैठने की बात का मतलब है कि अध्यात्म के प्रति निष्ठा पैदा कर लीजिए। अध्यात्मवादी की मन:स्थिति कैसी हो सकती है, यह भी तो आपको जानना चाहिए। अध्यात्मवादी को अपने जीवन के क्रियाकलापों में कुछ हेर-फेर करना पड़ता है, यह भी तो जान लीजिए। यह सब बातें जानेंगे नही, तो बेटे हमारी नाव को और डुबो देंगे, फिर हम आपको अपनी नाव में नहीं बैठाएँगे। अगर हम आपको अपनी नाव में बैठाएँगे, तो हम आपको यह यकीन दिलाते हैं कि हम डूब जाएँगे, परंतु आपको पार करेंगे।
शंकराचार्य एंव पद्मपाद
स्वामी शंकराचार्य तीर्थो का पुनरूद्धार करते हुए काशी पधारें। काशी में गंगातट पर विचरण करते हुए उनकी दृष्टि गंगा के उस पार गर्इ। गंगा के उस पार एक भद्र पुरूष खड़े थे, जो उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम कर रहे थे। आचार्य शंकर ने जैसे ही उन्हें देखा, वैसे ही अपनी ओर आने को बोला। वह भद्र पुरूष सनंदन थे, जो शंकराचार्य से दीक्षा लेने ही काशी आए थे।
साक्षात् गुरू की आज्ञा पाते ही उन्होंने गंगाजी में पैर डाल दिए। उनकी भक्ति और आचार्य शंकर के तप के प्रभाव से उनके पैर डालते ही गंगा में बृहदाकार कमलपत्र उत्पन्न हो गए। सनंदन उन्हीं कमलपत्रों पर पैर रखते हुए शंकराचार्य के चरणों में आ गिरे। शिष्य की पात्रता और गुरू के गुरूत्व की साक्षी काशी बनी। सनंदन आचार्य शंकर से दीक्षित होकर अद्वैत मत के विशिष्ट प्रचारक बने। कमलपत्रों द्वारा गंगा पार करने के कारण उनका नाम पद्मपाद पड़ा।
विस्तार के साथ नियन्त्रण अनिवार्य
सौ आदमियों के लिए स्थान बना रहा हूँ। सौ आदमियों के लायक मेरे पास शक्ति है। इससे ज्यादा है भी नहीं। मेरे गुरूदेव भी सौ से ज्यादा कंट्रोल नहीं कर सकते। नहीं गुरूजी! बड़ा आश्रम बना दीजिए। नहीं बेटे! बड़ा आश्रम मैं नहीं बना सकता। सौ से ज्यादा का कंट्रोल न मैं कर सकता हूँ  और न मेरे गुरूदेव कर सकते है। सौ बेड का अस्पताल आपने कहीं देखा है? सौ बेड का अस्पताल में कितने डॉक्टर चाहिए? कितनी नर्से चाहिए? कितनी दवाइयां और कितना खरच चाहिए? आपको मालूम है क्या? कितने कमरे चाहिए, कितने इंस्ट्रमेंट चाहिए? सौ बेड का अस्पताल किसे कहते है? बेटे! यह सौ बेड का अस्पताल है। सौ बेड का चल जाए, तो बहुत है। इससे ज्यादा का नहीं। नहीं महाराज जी! हजार का कैसा रहेगा? नहीं बेटे! मैं हजार को कंट्रोल नहीं कर सकता। इसलिए बनाकर क्या करूँगा?
महाराज जी! आप इमारत बनवा लीजिए, पैसा हम दे देंगे। बेटे! तू पैसा तो दे देगा, पर मैं कंट्रोल कैसे करूँगा? इसलिए एक छोटा आश्रम बना रहे है, फिर उसमें आपको नंबर से बुलाएँगे। बुलाकर आपको वही समीपता देंगे, जैसे कि हमारे गुरूदेव हमको अपने समीप रखते हैं और समीपता का जो लाभ देते हैं, समीपता की जो शक्ति देते है, इसमें भी हमने वही किया है। इसमें भी आपको कुछ क्रिया-कृत्य नहीं कराया हैं। सवेरे हम जो कराते हैं, उसमें अनुदान हमारे गुरूदेव के, निर्देश हमारे और भावना चित्र आपके-हम तीनों मिल करके काम करते हैं। फिर देख लेंगे। ज्यादा जरूरत पड़ेगी और आप ध्यान कर सकते होंगे। धारण कर सकते होंगे और आप में वह सामर्थ्य होगी, तो हम ज्यादा वोल्टेज बढ़ा सकते हैं। ज्यादा करेंट बढ़ा सकते हैं, पर देखना आपको ही पड़ेगा, सँभालेंगे तो आप ही। अभी आपकी इस हैसियत में नहीं हो सकता, कुछ भी नहीं हो सकता। नहीं महाराज जी! आप दे दिजिए। बेटे! हम कैसे दे सकते हैं? आपकी मरजी के बिना सूरज भी आपके कमरे में नहीं घुस सकता। आपकी मरजी के बिना हवा भी आपके कमरे में नहीं आ सकती। अगर आपकी हैसियत और आपका व्यक्तित्व इस लायक नहीं है कि देवताओं की शक्तियाँ, भगवान की शक्तियाँ, सिद्ध पुरूषों की शक्तियाँ आपके भीतर आएँ, प्रवेश कर सकें, तो बेटे कैसे आ सकेंगीं। आपने तो दरवाजा बंद कर लिया है, तो कोई नहीं आएगा और आप खाली हाथ रहेंगे।
भारत माता की नारियों से गुहार
पुरूष तो आदि काल से कठोर व उच्श्रांखल (चंचल) प्रकृति का रहा है परंतु नारी उपने सदगुणों के कारण सदा वंदनीय रही है। भारतीय नारी की एक और विशेषता रहती थी, वह अपनी मर्यादा रेखा के बाहर कभी नहीं जाती थी। वह अपनी आत्मशक्ति से अपने चारो ओर एक ऐसी सीमा रेखा का निर्माण कर लेती थी कि पुरूष उसको पार करने का साहस नहीं कर पाता था। लेकिन आज की नारी स्वयं ही अपनी मर्यादा रेखा को भंग करके आधुनिक वस्त्रो को धारण कर पुरूषो को मौन आमंत्रण देते घूम रही हैं। यदि नारी अपनी भावनाओं, विचारों एवं मर्यादाओ के प्रति दृढ हो जाए तो पुरूष की क्या ओकात जो उसकी इच्छा के विरूद्ध आँख उठाकर भी देख सकें। यदि नारी अपनी संस्कृति व मान्याताओं को भूलकर पश्चिम का अन्धानुकरण करके अपनी गौरव गरिमा से च्युत हो जाएगी तो आने वाली पीढ़ी एवं देवसत्ताएं उसको कभी माफ नहीं करेगी। नारी को शक्ति के रूप में इसलिए प्रदर्शित किया जाता है कि वह पुरूष के जीन्स में शक्ति व प्रेरणा बनकर प्रवेश करें। स्त्री व पुरूष एक दूसरे के पूरक है व समाज में दोनों की सहभागीता अनिवार्य है। नारी यदि भोग्या का स्वरूप में स्वयं को समाज में प्रस्तुत करेगी तो अपने पैरो पर स्वयं कुल्हाड़ी मारने वाली मुर्खता करेगी। समाज की बढ़ती समस्याओं में नारी और पुरूष दोनों बराबर के हिस्सेदार प्रतीत होते है। जैसे ताली दोनों हाथो से बजती है, वैसे ही एक वर्ग पर दोषारोपण नहीं किया जा सकता। हर वर्ग अपनी समीक्षा कर अपनी संस्कृति के अनुरूप जीवन जीने का निश्चय करें तभी समाज को अपराधों से मुक्त कर पाना सम्भव होगा।
पुस्तक का प्रारम्भ-प्रयोजन
हम अक्सर गायत्री परिवार (विशेषत: सहारनपूर व कुरूक्षेत्र) की गोष्ठियों को सम्बोधित करने क्षेत्रों में जाते हैं। वहाँ लोगों का एक प्रश्न बहुत सुनने को मिलता हैं। भार्इ साहब कुछ ऐसा सम्बोधित करें जिससे प्रचार कार्य में तेजी आए यहाँ गुरू का काम सुचारू रूप से नहीं चल पा रहा हैं।
मैं (राजेश अग्रवाल) जब पी एच डी के कार्य से दिसम्बर 2012 में निवृत हुआ तो अधिक दबाव के कारण सर्वाइकल आदि से परेशान था इस कारण घर में अधिक विश्राम करता था। परंतु अंतरात्मा में यही प्रश्न उठता रहता कि इस खराब स्वास्थ्य से भगवान का कार्य कैसे किया जाए?
इससे मैं बिस्तर पर पड़े-पड़े अधिक ध्यान, जप व मनन चिन्तन करने लगा। लेटे-2 प्रभु कृपा से मेरा जप में मन लगने लगां कभी-2 बठैकर कुछ लिखने की इच्छा होती। एक डायरी पेन लेकर लिखने बैठ जाता। लिखते-2 ये विचार एक छोटी पुस्तक का रूप लेते चले गए।
लेखक न कोर्इ सफल साधक होने का दावा करता है न कोर्इ बड़ा कार्यकर्ता। हाँ एन, आर्इ, टी कुरूक्षेत्र में पढ़ाते-2 बुद्धि का उपयोग करने का अभ्यस्त अवश्य है। साथ-2 यह भाव भी बनाने का प्रयास करता है कि भगवान यह जो जीवन आपने दिया है यह आपके काम आ जाए। देव सत्ताओं की कृपा से यह जो लेखन कार्य हुआ है इसका लाभ सभी गायत्री परिजन उठाएगें। परंतु मेरी अल्प बुद्धि व समर्पण की कमी के कारण इसमें काफी त्रुटियाँ भी होगी। बीच-2 विषय थोड़ा संवेदनशील भी बनता रहा है व कहीं-2 कडे शब्दो का प्रयोग भी हुआ है। मिशन के अनुभवी कार्यकर्ता, वरिष्ठ भार्इ बहन मेरा मार्गदर्शन करें जिससे इस पुस्तक को और अधिक सुंदर बनाया जा सकें, गायत्री परिवार के कार्यकर्ताओं के लिए उपयोग सिद्ध हो सकें।
वक्ता वह जिसकी वाणी से लोग प्रभावित होते हैं। परंतु साधक वह है जिसकी गरिमामयी उपस्थिति लोगों को आकर्षित करती हैं। एक बार एक साधक के साथ हम पार्क में बैठकर बातें किया करते थे। वहाँ कुछ आवारा लड़के घुमते थे। एक दिन वो हमसे कहने लगें कि आपके यहाँ आने से हमें ऐसा लगता है कि हम दिशाहिन भटक रहें है कृपया हमारा मार्गदर्शन करें। देवशक्तियों ने वातावरण इसलिए गरम किया है कि बड़ी संख्या में लोग साधना करें एवं साधना के द्वारा कुसंस्कारों का निवारण करें व देवत्व को धारण करें। साधना के द्वारा यदि हम उच्च ऊर्जा व उच्च शक्ति को धारण करने में सफल होने लगें तो तहलका मच जाएगा। दीप से दीप जलता चला जाएगा। हमने ऐसे बहुत से लोगों को देखा है जो कुछ माह की मौन साधना से एक ऐसे चुम्बकत्व को विकसित कर पाए कि लोग उनसे ऐसे चिपकने लगे जैसे गुड़ से मक्खियाँ। परंतु उस दिव्य चेतना को वो लम्बे समय तक सम्भाल कर न रख सकें व अपने सामान्य प्रक्रम में लौट गए, यहाँ तक कि कुछ लोग योग भ्रष्ट भी हो गए।
नि:संदेह साधना के द्वारा देव चेतना को धारण करना एक दुष्कर कार्य हैं परंतु जब लाखो लोग इस दिशा में प्रयास करेंगे तो कुछ हजार लोगों को तो सफलता अवश्य मिलेगी। सबसे बड़ी कठिनार्इ यह है कि साधना काल में व्यक्ति अधिक भाव विहवल होता है दया, करूणा, प्रेम की एक धारा उसके अंदर हिलोरें मारती हैं उसके आस-पास वाले व्यक्ति सोचते है कि यह तो पागल हो गया हैं। उसको कहीं से भी समर्थन नहीं मिल पाता इस कारण व्यक्ति घबरा कर साधना करना छौड़ देता है या फिर कुछ समय अंतराल बाद लगातर दबाव के कारण कोर्इ न कोर्इ उचित विकृति उसमें जन्म ले जाती है।
यदि ऐसे व्यक्ति को उचित मार्ग दर्शन, संरक्षण व वातावरण दिया जाए तो वह ब्रह्मकमल के रूप में खिल जाएगा। अधिकतर मिशनों में भी इतना ईर्ष्या द्वेष भरा पड़ा है कि उनको यह खतरा हो जाता है कि यदि किसी की साधना सफल हो गर्इ तो उनकी पूछ कम हो जाएगी। क्यों नही हम साधक के पिता बन कर एक ऊच्च सन्तान के पिता होने का गौरव ले लेतें?
हमें बड़ा दुख होता है जब गुरू सत्ता के बोये ब्रह्मबीज विकसित नहीं हो पाते व उनके भीतर का ब्रह्मवर्चस उभरकर समाज को सुभावित नहीं कर पाता। कहते है कालिदास जिस डाल पर खड़े थे उसको काट रहे थे। लेकिन यह स्थिति यह संकेत करती है कि हम जिन पैरो पर खड़े है उन्हीं को काट रहे है।
साधना से सम्बन्धित चुनौतियों का पता होना सभी परिजनों के लिए आवश्यक है जिससे हम एक ऐसा वातावरण तैयार कर सके कि साधकों की साधना पुष्पित पवल्लवित हो सकें। गुरूदेव अपनी दिव्यदृष्टि से इसका संकेत पहले ही कर चुके हैं।

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