यह ऐसा पूर्ण दरबार है, जहाँ से कोर्इ खाली हाथ वापस नहीं
लौटता। पूज्यवर के सान्निध्य में आकर ‘‘नास्तिक’’
‘‘आस्तिक’’ बन जाता है। जो आस्तिक है, केवल ईश्वर को मानता भर है, उसके भीतर ईश्वर को जानने की जिज्ञासा
जन्म ले लेती है, यानी ‘‘आस्तिक’’ ‘‘जिज्ञासु’’ बन जाता है। और जो जिज्ञासु है, वह ज्ञान का अनमोल खजाना पा लेता है। ‘जिज्ञासु’ से ‘ज्ञानी’ बन जाता है। जो पहले से ही ज्ञान पा
चुका है, वह ‘ज्ञानी’ भक्त बनने के मार्ग पर अग्रसर हो जाता
है। इस प्रकार गुरूसत्ता के चरणों में बैठकर निरन्तर एक विकास की श्रृंखला चलती रहती
है-नास्तिक से आस्तिक, आस्तिक से जिज्ञासु, जिज्ञासु से ज्ञानी, ज्ञानी से भक्त।
जिज्ञासु- हे भगवन्! मुझे लगता है कि मैं अपनी
इच्छाओं का गुलाम बन चुका हूँ। जितना इनके बंधन से मुक्त होना चाहता हूँ, उतना ही ये मुझे जकड़ लेती हैं। मैं
क्या करूँ?
महर्षि- सोच कर देखो, पिंजरे में बंद एक पक्षी के बारे में!
वह पिंजरे से मुक्त होना चाहता है। इसलिए बार-बार अपनी चोंच से उसकी सलाखों पर
प्रहार करता है। अपने पंखों को उन सलाखों पर मारता है। परिणाम? उसकी चोंच लहूलुहान हो जाती है और पंख
जख्मी! ठीक यही स्थिति तुम्हारी है। अपने मन रूपी पिंजरे में तुम कैद हो। इस
पिंजरे की सलाखें तम्हारे मन में उठती इच्छाएँ है। तुम इस पिंजरे से मुक्त होने के
लिए इन सलाखों से टकराते हो यानी इच्छाओं को जबरन दबाने की कोशिश करते हो, इसलिए बार-बार हार जाते हो।
जिज्ञासु- तो फिर क्या उपाय है भगवान? मैं अपने मन के पिंजरे से कैसे मुक्ति
पाऊँ?
महर्षि- यदि पंछी को पिंजरे से बाहर आना है, तो उसे किसी ऐसे को खोजना होगा, जिसके पास पिंजरे की चाबी है और वह उस
चाबी से पिंजरा खोल दे। तभी पंछी गगन में
स्वछंद उड़ान भर सकता है।
जिज्ञासु- मेरे मन के पिंजरे की चाबी किसके पास
है भगवन्?
महर्षि- सद्गुरू के पास। उनके पास ही वह ज्ञान
की चाबी है, जिससे मन का पिंजरा खुलता है।
आत्मज्ञान( ब्रह्मज्ञान) पाकर ही एक व्यक्ति अपने मन के स्तर से ऊपर उठकर अपने
आकाश में यानी ब्रह्मरंध्र में स्वतंत्र रूप से उड़ान भर पाता है।
जिज्ञासु- गुरूवर, मुझे साधना में पहले बहुत से दिव्य रूपों के दर्शन हुआ करते थे। पर
अब नहीं होते? क्या मुझसे कोई भुल हो गई है?
महर्षि- न! ऐसा क्यों सोचता है? बात बस इतनी है कि छोटे बच्चों की
किताबों में चित्र दिए जाते है, बड़े
बच्चों की किताबों में नहीं। अब तु भी बड़ा हो गया है। इसलिए बिना चित्र वाली
साधना करनी सीख जा!
जिज्ञासु- भगवन्, आपसे ज्ञान लिए हुए और इस मार्ग पर चलते हुए मुझे कई साल हो गए हैं।
पर कई बार ऐसा लगता है कि मैं वहीं का वहीं खड़ा हूँ। मैंने कोई उन्नति नहीं की।
महर्षि- जो यात्री ट्रेन के प्रथम श्रेणी के
डिब्बे (First class
coach ) में
सफर करते हैं, वे रात को बार-बार जागकर यह नहीं देखते
कि कहीं उनका स्टेशन तो नहीं आ गया। वे तो डिब्बे के खिड़की-दरवाजे बंद कर
निश्चिन्त हो सोते हैं। क्योंकि उनके स्टेशन पर उन्हें उतारने की जिम्मेदारी उस
डिब्बे के गार्ड की होती है। तुम भी प्रथम श्रेणी के डिब्बे में सफर कर रहे हो।
मैं तुम्हारा गार्ड हूँ। इसलिए तुम्हें यह
चिंता करने की जरूरत नहीं कि तुम कहाँ तक पहूँचे हो। तुम्हें मंजिल तक ले जाना
मेरी जिम्मेदारी है। बस तुम इस ट्रेन में बैठे रहना। उतर गए, तो गड़बड़ हो जाएगी। यानी
अध्यात्म-मार्ग पर सद्गुरू द्वारा चलाई गई ट्रेन में बैठा हर शिष्य अपनी मंजिल पर
पहूँचता ही है। इसलिए स्वयं को गुरू को समर्पित कर शिष्य को चिंता रहित हो जाना
चाहिए।
जिज्ञासु- भगवन्, आपकी इस अनंत कृपा का मोल तो हम चुका नहीं सकते। पर फिर भी
गुरू-दक्षिणा स्वरूप कुछ देना चाहते है, क्या अर्पित करें?
महर्षि- यदि कुछ देना चाहते हो, तो एक वचन दो कि तुम अडिगता से
अध्यात्म-मार्ग पर चलोगे। आत्मोन्नति के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहोगे। अज्ञानता के
अंधकार में डूबे इस समाज को ज्ञान के दीपक से आलोकित करोगे। यही मेरी गुरू-दक्षिणा
होगी।
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