Sunday, May 26, 2013

New Book for Gayatri Pariwar- युग निर्माण-20

धन का पूर्ण आडम्बर रहित - सदुपयोग
‘‘बात सन् 60 के दशक की है, तब पूज्य गुरूदेव मथुरा में ही थे। सस्ता समय था। मैं गुरूदेव से मिलने मथुरा गया तो श्री अस्थाना जी ने पूज्य गुरूदेव के लिए दो आने की एक अच्छी सी फूल माला खरीदी। प्रणाम करके वह उन्हें पहना दी। फिर बातें होने लगीं। पूज्य गुरूदेव ने अचानक पूछा- बेटा, यह माला तू कितने में लाया? "दो आने की गूरूजी।" इसपर गुरूजी बोले, बेटा तेरे दो आने खर्च हो गए और यह माला मेरे किसी काम नहीं आर्इ। यदि तु दो आने की मेरी एक छोटी सी किताब ले जाता तो दसियों लोगों तक मेरे विचार पहुँचते। तेरे पैसे भी सार्थक होते, लोगों को भला भी होता और मुझे भी संतोष मिलता।
अस्थाना जी कहते हैं कि पूज्य गुरूदेव द्वारा सहजता से व्यक्त किए गए यह उद्गार मेरे हृदय में गहरार्इ से बैठ गए। मेरी समझ में आ गया कि अपने धन की सार्थकता, जन कल्याण और गुरू की प्रसन्नता, तीनों अर्जित करने के लिए युग साहित्य का प्रसार सबसे सुगम और उपयोगी माध्यम हैं। इसलिये मैंने ज्ञान-यज्ञ को गति देने के लिए साहित्य-विस्तार का ही लक्ष्य सामने रखा और गुरूकृपा से सफलता भी मिली।’’
युगऋषि की दिव्यदृष्टि-इक्कीसवीं सदी, उज्जवल भविष्य
तृतीय विश्व युद्ध निरस्त होगा। आज का आक्रोश ठंडा होगा। गरम युद्ध शीत युद्ध में बदलेंगे और शीत युद्ध अन्नत: उस स्थिति में जा पहुँचगें जिसे लम्बे समय के लिए सदा के लिए युद्ध विराम के रूप में देखा जा सके।
अणु युद्ध ही नहीं रूकेगा, देशों की वह विभाजन रेखा भी हटेगी, जो वर्गो ने, गुटों ने अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार कब्जा जमा कर बना ली है। वर्तमान नक्शे में जो देश जहाँ दिखार्इ देता है, वहाँ उनमें से एक भी न रहेगा। एक ‘‘विश्व राष्ट्र’’ का निर्धारण होगा। बिना पार्टी देश में एक ही प्रजा रहेगी। उसके द्वारा चुने संभा्न्त लोग शासन तंत्र चलायेंगे।
जन मानस को प्रभावित करने वाले गंदे साहित्य, चित्र, फिल्म आदि अगले दिनों बंद होंगे। जन जीवन की आवश्यकताएँ पूरी करने वाली प्रमुख वस्तुएँ कुटीर उद्योग में चली जायेंगी और उन्हें सहकारी तंत्र के अंतर्गत रखते हुए ऐसी स्थिति उत्पन्न की जायेगी कि बड़े उद्योग उनसे प्रतिदृन्दिता न करने पाएँ।
वस्त्र उद्योग, जन जीवन से सम्बन्धित शिल्प, छोटे कस्बों में बनने लगेंगे तो बेकारी की समस्या न रहेगी।
बड़े कारखाने मात्र उन्हीं वस्तुओं को बनाएँगें जो कुटीर उद्योग के अंतर्गत नहीं बन सकती। दैनन्दिन जीवन की समस्याओं का समाधान युग मनीषा के हाथों ही होगा। दार्शनिक और वैज्ञानिक दोनें ही मुड़ेंगें। लेखकों, दार्शनिकों का अब एक नया वर्ग उठेगा। वह अपनी प्रतिभा के बलबूते एकाकी सोचने और एकाकी लिखने का प्रयत्न करेगा।
उच्च स्तरीय वैज्ञानिकों का मस्तिष्क ऐसे छोटे उपकरण बनाने की ओर लौटेगा जिससे कुटिर उद्योगों को सहायता देने वाला नया माहौल उफन पड़े। नर और नारी का भेद-भाव मिटाना है। श्रृंगार सज्जा ने कामुकता बढ़ार्इ है और नारी का अवमुल्यन हुआ है। अगले दिनों नर-नारी, भार्इ-भार्इ की तरह बहन-बहन की तरह रहना सीखेगे। अगले दिनों यह मापदण्ड सर्वथा बदल जायेगा और यह जाना जायेगा कि किसने मानवी गौरव-गरिमा को किस प्रकार और कितना बढ़ाया?
 ‘‘लार्जर फैमिली एक सहकारी संस्था के रूप में विकसित हो सकेगी। मोहल्ले के सभी काम मिल-जुल कर एक स्थान पर सम्पन्न होगें।
व्यक्ति, परिवार और समाज की ऐसी आदर्श संरचना को मात्र कल्पना या यूटोपिया न माना जाय। एक द्रष्टा की ऐसी भविष्यवाणी मानी जाए जो आगमी कुछ दशकों में ही साकार होकर रहेगी।
कैसा होगा नवयुग?
पूज्यवर लिखते हैं- हमने भविष्य की झाँकी देखी है एवं बड़े शानदार युग के रूप में देखी है। हमारी कल्पना है कि आने वाला युग प्रज्ञायुग होगा। ‘‘प्रज्ञा’’ अर्थात् दूरदर्शी विवकेशीलता के पक्षधर व्यक्ति या समुदाय। हर व्यक्ति स्वंय में एक आदर्श इकार्इ होगा एंव हर परिवार उससे मिल कर बना समाज को एक अवयव, सभी का चिन्तन उच्च्स्तरीय होगा।
संकीर्ण स्वार्थपरता मिटेगी। प्रज्ञायुग में हर व्यक्ति अपने अपको समाज का एक छोटा घटक किंतु अविच्छिन्न अंग मानकर चलेगा। निजी लाभ-हानि का विचार न करके विश्व-हित में अपना हित जुड़ा रहने की बात सोचेगा। किसी को अपनी चिंता में डूबे रहने की-अपनी ही इच्छा पूर्ति की अपने परिवारजनों की प्रगति की न तो आवश्यकता अनुभव होगी, न चेष्टा चलेगी। एक कुटुम्ब के सब लोग जिस प्रकार मिल-बाँटकर खाते और एक स्तर का जीवन जीते हैं, वही मान्यता व दिशाधारा अपनाये जाने का औचित्य समझा जाएगा।
प्रज्ञा युग के नागरिक- बड़े आदमी बनने की नहीं-महामानव बनने की महत्वकांक्षा रखेगें। कोर्इ किसी के विलास-वैभव की प्रतिस्पर्धा नहीं करेगा, वरन् होड़ इस बात की रहेगी कि किसने अपने आपको कितना श्रेष्ठ, सज्जन एवं श्रद्धास्पद बनाया। वैभव इस बात में गिना जायेगा कि दूसरे के अनुकरण करने के लिए कितनी कृतियाँ और परम्पराएँ विनिर्मित कीं। आज के प्रचलन में सम्पदा को सफलता का चिन्ह माना जाता है। अगले दिनों यह मापदण्ड सर्वथा बदल जायेगा और यह जाना जायेगा कि किसने मानवीय गौरव-गरिमा को किस प्रकार और कितना बढ़ाया?
मानसिक व्याधियाँ से छुटकारा- प्रज्ञा युग में शारीरिक और मानसिक व्याधियों से सहज ही छुटकारा मिल जाएगा, क्योंकि लोग प्रकृति के अनुशासन में रहकर आहार-विहार का संयम बरतेंगे और अन्य प्राणियों की तरह अंतप्रेरणा का अनुशासन मानेंगे, फलत: न दुर्बलता सतायेगी, न रूगणता।
परिवार का गठन- व्यक्तित्व और परिवार को एक दूसरे का पूरक माना जायेगा और संयुक्त परिवार की वैज्ञानिक आचार संहिता विकसित होगी। हिल-मिलकर रहने, मिल-बाँटकर खाने से हँसती-हँसाती जिन्दगी जीना ही पारिवारिकता है। प्रज्ञा युग का हर मनुष्य शरीर निर्वाह की तरह पारिवारिकता में भी पूरा रस लेगा और प्रयत्नरत रहेगा। प्रज्ञायुग में हर गृहस्थ को स्नेह, सद्भाव एवं उत्साह से भरा-पूरा पाया जायेगा। क्योंकि उसके सभी सदस्य श्रमशीलता, सुव्यवस्था, मितव्ययिता उदार-सहकारिता और सुसंस्कारिता-सज्जनता के पंचशीलों को सूख-शांति का आधार मानेंगे। साथी एवं बालकों को सुसंस्कारी, सम्भा्रन्त एंव स्वावलम्बी नागरिक बना सकने की योग्यता एवं घर का उपयुक्त वातावरण है या नहीं, इन सभी बातों का गम्भीरतापूर्वक पर्यवेक्षण के उपरान्त ही विवाह एवं संतानोत्पादन का साहस किया जाया करेगा।
संतान- अभिभावक न तो संतान से वंश चलने, पिण्डदान मिलने, सेवा-सहायता पाने की अपेक्षा रखेंगे और न संतान अपने अभिभावकों की संपदा के सहारे गुलछर्रे उड़ाने की। दोनों की बीच विशुद्ध स्नेह-सदभाव का रिश्ता होगा और श्रृद्धा शालीनता बढ़ाने का अभ्यास करेंगे। कन्या और पुत्र के बीच कोर्इ भेद भाव नहीं किया जायेगा। दोनों को समान स्नेह एवं महत्व मिलेगा। प्रज्ञा युग का हर विचारशील सन्तानोत्पादन से बचेगा और यदि वात्सल्य-आनंद लेने का मन होगा तो किसी को गोद लेने की अपेक्षा अनेकों असहाय बालकों को पालने और सूयोग्य बनाने का भार ग्रहण करेगा।
सबसे बड़ा परिवर्तन- आगामी युग प्रज्ञायुग में जो सबसे बड़ा परिवर्तन होगा, वह मनुष्य-मनुष्य की बीच में आत्मभाव की स्थापना होगी। अध्यात्म-भावना के प्रसार का परिणाम यह होगा कि मनुष्यों का दृष्टिकोण विशाल बनेगा और वे विश्व मानव की भावना को ग्रहण करने लगेंगे। तब एक ऐसा समय आ जाएगा, जब एक परम पिता के पुत्र होने के नाते समस्त मनुष्य अपने को एक ही मानव जाति का सदस्य समझने लगेंगे।
पीड़ितों की सेवा ही सच्चा धर्म
र्इसा मसीह केपर नाम के नगर में पहुँचे। वे दुष्ट दुराचारियों के मुहल्ले में ठहरे और वहीं रहना शुरू कर दिया। नगर के प्रतिष्ठित लोग र्इसा के दर्शनों को पहुँचे तो उनने आश्चर्य से पूछा-भला इतने बड़े नगर में आपको सज्जनों के साथ रहने की जगह न मिली या आपने उनके बीच रहना पंसद न किया? हँसते हुए र्इसा ने पूछा-वैद्य मरीजों को देखने जाता है या चंगे लोगों को? ईश्वर का पुत्र पीड़ितों और पतितों की सेवा के लिए आया है। उसका स्थान उन्ही के बीच तो होगां जहाँ वह उनकी सेवा कर सके और शांति अर्जित कर सके।
 दिसम्बर 1989 में पूज्यवर ने वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की गोष्ठी बुलार्इ और कहा- बच्चो हमारा प्रमोशन हो गया है। हमें अब अधिक ऊँचे स्तर की आत्माओं के साथ बैठना पड़ रहा है। मैं चाहता हूँ कि तुम सब भी प्रमोशन ले लो। वर्तमान स्थिति में जब मैं वहाँ बैठकर तुम लोगों को देखता हूँ तो मुझे अपने अंगों की स्थिति रोगी जैसी होने की ग्लानि होती है। हमने तुम बच्चों को इसलिए बुलाया था कि तुम्हे भगवान का दर्शन इन्हीं आँखों से करा सकूँ। यदि अभी तक भगवान् के दर्शन किसी रूप में नहीं कर सका तो एक बात कहता हूँ- मुझे ही भगवान मानलो और मेरे आदर्शवादी जीवन दर्शन का अपनाकर अपना प्रमोशन करा लो, ताकि उच्च आत्माओं की जमात में बैठकर मुझे आत्म संतोष हो सके।
नदी में नहाती हुर्इ एक युवा नारी के फटे वस्त्रों को देखकर महात्मा गाँधी ने अपनी आधी धोती फाड़कर उसको दे दिया, तब से वे आधी धोती से अपना काम चलाते रहे। समाज के दर्द को  देख कर पूज्य गुरूदेव का मन तड़प उठा। समाज का दर्द दूर करने का संकलप लेकर उन्होंने सभी प्रकार के साधन सुविधा का त्याग कर दिया और आजीवन सादगी से रहे।
उन्होंने कहा है- लोग मुझे संत, गुरू, सद्गृहस्थ, ऋषि पता नहीं क्या-क्या कहते हैं, परंतु मेरी छाती को चीर कर कोर्इ देखे तो उसमें समाज की पीड़ा और पतन की चोट से छटपटता एक हृदय मिलेगा। मेरी कितनी रातें इसी पीड़ा हेतु जागते हुए समर्पित हो गयीं।
कहते है कि कलिंग देश का राजा मधुपर्क खा रहा था। उसके प्याले में से थोडा सा शहद टपककर जमीन पर गिर पड़ा।
उस शहद को चाटने मक्खियाँ आ गई। मक्खियाँ को इकट्ठी देख छिपकली ललचाई और उन्हें खाने के लिय आ पहुँची। छिपकली को मरने बिल्ली पहुँची, बिल्ली पर दो-तीन कुत्ते टूटे। बिल्ली भाग गई और कुत्ते आपस में लड़कर घायल हो गए।
कुत्तों के मालिक अपने-अपने कुत्तों के पक्ष का समर्थन करने लगे और दुसरे का दोष बताने लगे। उस पर लड़ाई ठन गई। लड़ाई में दोनों ओर की भीड़ बड़ी और आखिर सारे शहर में बलवा हो गया। दंगाइयों  को मौका मिला, उन्होंने सरकारी खजाना लूटा और राजमहल में आग लगा दी।
राजा ने इतने बड़े उपद्रव का कारण पूछा तो मंत्री ने जाँचकर बताया -"राजन। आपके द्वारा असावधानी भी मनुष्य के लिए कितना बड़ा संकट उत्पन्न कर सकती है।
आनंद कब? ............ जब त्याग।
एक बार अकबर बादशाह ने भरे दरबार में एक सवाल रखा कि मनुष्य को आनन्द कब आता है?
किसी स्वाद के गुलाम ने षट रस भोजन को सर्वाधिक आनन्द की उत्पत्ति का स्त्रोत बताया तो किसी ने गहरी नि:स्वप्र निद्रा में आनन्द का आवास माना। एक विलासी ने सुरा और सुन्दरी में अधिकतम सुख का प्रतिपादन किया तो एक पूंजीपति ने धन संग्रह में आनन्द की उच्चता को आंका। अकबर को इनमे से एक भी उत्तर नहीं भाया फिर उन्होंने बीरबल से पूछा, बीरबल का उत्तर सारे दरबार को सर्वोतम लगा। बीरबल ने कहा था - जहाँपनाह, इन्सान को आनंद तब आता है, जब वह अपने को हल्का-फुल्का महसूस करता है, वह उस वकत फुल सा खिल पड़ता है, जब उसे शौच साफ़ हो जाता है जब वह एक ही प्रयास में अथवा एक ही मिनिट में सरलता पूर्वक शीघ्र पूरा-पूरा बचा हुआ मल त्याग करता है।
इस तलीफे के तथ्य को गहराई से देखे, कितना सच है? संसार में वे मनुष्य गंदे हैं, जिन्हें कब्ज रहता है। वह मैला जब पेट में अपनी जड़ चिपकाये सड़ता-गलता और गंदाता रहता है तो मन की प्रफुल्लता गायब हो जाती है और स्वास्थ्य का पतन होने लगता है।
सनातन धर्म के नॊ उद्देश्य:-
सुख 
समृद्धि 
स्नेह 
सदभाव 
शांति 
शक्ति 
संकल्प 
संस्कार 
समर्पण 
सनातन धर्म पर आधारित समाज
सुख से समर्पण तक 
सनातन धर्म द्वारा सभ्य समाज का निर्माण।

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