जिनका जीवन ब्रह्मकमल
पूजें उनके चरण विमल।
जिनका जीवन ब्रह्मकमल।।
ब्रह्म विचार प्रसार किया,
ब्रह्मयर्च का व्रत पाला।
ब्रह्मकर्म में लगे रहे,
उसमें ही जीवन ढाला।।
पाया ब्रह्मतेज अविचल।
पूजें उनके चरण विमल।।
हिमगिरि सा उन्नत जीवन,
गरिमामय
शीतल पावन,
तप ऊर्जा से भरा हुआ,
प्रेम-भक्तिमय मन भावन।।
उसमें विकसा बह्मकमल।
पूजें उनके चरण विमल।।
काया से ऊपर उठकर,
ब्रह्मबीज शुभ फैलाये।
पंचकोष जाग्रत करके,
वीरभद्र निज विकसाये।।
सृजन योजना रची अटल।
पूजें उनके चरण विमल।।
जो हैं उनसे जुड़े हुए,
उनके अपने कहलाये,
मनोभूमि में विकसाये।
पायेंगे सौभाग्य अटल।
पूजें उनके चरण विमल।।
हम हैं संतानें युगऋषि की, युग के संत महान् की।
कभी न गिरने देंगे गौरव-गरिमा उनकी शान की।।
सहस्त्रार सिद्ध योगी गुरूदेव-
देवरहा बाबा का के मत में आचार्य श्री सहस्त्रार स़िद्ध योगी या युग अवतार थे। इस तरह के अवतार ज्ञात इतिहास में
केवल दो बार और हुए हैं- एक भगवान् बुद्ध और दूसरे आदि शंकराचार्य। यह भी एक अद्भुत संयोग है कि बुद्ध और आदि शंकर के अवतरण में बारह सौ साल का अंतर है। बुद्ध,
र्इसा पूर्व चौथी-पाँचवी शताब्दी में हुए और शंकराचार्य का कार्यकाल अठावीं-नवमीं शताब्दी ठहराया है। गुरूदेव का अविर्भाव भी आदि शंकराचार्य के
ठीक बारहवीं-तेहरवीं शताब्दी बाद ही हुआ। गुरूदेव भी इन सहस्त्रार सिद्ध योगियों में से एक हैं। जिन्होंने अपनी समय की धारा को उलट दिया। सहस्त्रार सिद्ध अवतारी आत्माएँ अपने आपको छिपा कर रखती हैं। अपनी विभूतियों को प्रकट नहीं करती। जीवन व्यवहार में वे सामान्य व्यक्तियों जैसे ही दिखार्इ देते है गुरूदेव से कृतार्थ होने वाले साधकों की संख्या हजारों-लाखों में होगी,
लेकिन उनके बारे में शायद ही कोर्इ कह पाता हो कि वे किसी भी समय असाधारण और विशिष्ट,
व्यक्ति जैसे दिखार्इ दिए हों, उनका संसर्ग पिता की तरह आश्रस्वत और निश्चिंत करने वाले सहृदय अभिभावक से अलग प्रतीत होता है। जब देवरहा बाबा को 1990
में गुरूदेव के शरीर छोड़ने
का पता चला था तो वे बोले थे कि अब इस शरीर की भी जरूरत नहीं रही हम भी श्री राम के साथ सूक्ष्म जगत में प्रभु का काम करेंगे। इसके कुछ दिन
बाद 19
जुन को योगिनी एकादशी के दिन बाबा महासमाधि में चले गए।
उपासना
के दो चरण-
जप और ध्यान
जप के समय ध्यान करते रहने की आवश्यकता इसलिए रहती है कि मन एक सीमित परिधि में ही भ्रमण करता रहे, उसे व्यथे की उछल-कूद, भाग-दौड़
का अवसर न मिले।
जिन्हें निराकार साधना-क्रम पसंद है, उनके लिए प्रात:
काल उगते हुए अरूण वर्ण सूर्य का ध्यान करना उत्तम हैं।
मन को भागने से रोकने के लिए इष्टदेव की छवि को मनोयोगपूर्वक निरखते रहने से काम चल जाता है, पर इसमें रस-प्रेम, एकता और तादात्म्य उत्पन्न करना और भी शेष रह जाता है और यह प्रयोजन ध्यान में प्रेम-भावनाओं का समावेश करने से ही सम्भव होता है।
उपासना के आरम्भ में अपनी एक दो वर्ष जितने निश्चिन्त,
निर्मल,
निष्काम,
निर्भय बालक जैसी मनोभूमि बनाने की भावना करनी चाहिए और संसार में नीचे नील-जल
और ऊपर नील आकाश के अतिरिक्त अन्य किसी पदार्थ एवं इष्टदेव के अतिरिक्त और किसी व्यक्ति के न होने की मान्यता जमानी चाहिए,
बालक
और माता,
प्रेमी और प्रेमिका
और सखा जिस प्रकार पुलकित हृदय परस्पर मिलते,
आलिंगन करते हैं, वैसी ही इष्टदेव की समीपता की होनी चाहिए।
चकोर जैसे चंद्रमा को प्रेमपूर्वक निहारता है और पतंगा जैसे दीपक पर अपना सर्वस्व समर्पण करते हुए तदनुरूप हो जाता है, ऐसे ही भावोदे्रक इष्टदेव की समीपता के उसे ध्यान-साधना मे जुड़े रहना चाहिए। इससे भाव-विभोरता
की स्थिति प्राप्त होती है और उपासना ऐसी सरस बन जाती है कि उसे छोड़ने को जी नहीं चाहता।
अंतरात्मा के जिज्ञासु को चाहिए कि वह मन के कोलाहल की ओर से कान बंद कर अंतरात्मा का निर्देश सुनने और पालन करने लगे, निश्चय ही उस दिन से यथार्थ सुख-शांति का अधिकारी बन जायेगा। जिज्ञासा की प्रबलता से मनुष्य के कान उस तन्मयता को सरलता से सिद्ध कर सकता है। आत्मा मनुष्य का सच्चा मित्र है। वह सदैव ही मनुष्य को सत् पथ पर चलने और कुमार्ग से सावधान रहने की चेतावनी देता रहता है, किंतु खेद है कि मनुष्य मन के कोलाहल में खोकर उसकी आवाज नहीं सुन पाता। किंतु यदि मनुष्य वास्तव में उसकी आवाज सुनना चाहे तो ध्यान देने से उसी प्रकार सुन सकता है, जिस प्रकार बहुत सी आवाजों के बीच भी उत्सुक शिशु
अपनी माँ की आवाज सुनकर पहचान लेता है।
सुर्य
में एकाकार चेतना पूज्य गुरूदेव
मर्इ 1987
की बात है। पूज्य गुरूदेव सूक्ष्मीकरण साधना से बाहर आ चुके थे। हम कुछ परिजन गुरूदेव के पास बैठे थे। साधना संबंधी चर्चाएँ हो रही थीं। इन्दौर के एक परिजन ने पूज्यवर से पूछा कि गुरूदेव,
कहते हैं कि गुरूदीक्षा के बिना गायत्री फलित नहीं होती और हमने
अभी दीक्षा नहीं ली है! तो क्या फिर भी हम गायत्री मंत्र का जप व अनुष्ठान कर सकते हैं?
इस पर गुरूदेव ने उनकी शंका का समाधान यह कहते हुए किया- "बेटे किसी गुरूवार या रविवार को उगते हुए स्वर्णिम सूर्य के सामने हाथ में पुष्प,
अक्षत ,जल लेकर सूर्य भगवान् की किरणों का ध्यान करते हुए मन से कहना कि हम आपको अपना इष्ट-मार्गदर्शक स्वीकार करते हैं। फिर तीन बार मन ही मन गायत्री मंत्र दुहराकर सूर्य भगवान को अर्घ्य समर्पित कर देना। तुम्हारी दीक्षा हो जाएगी और अगर तुम्हारा मन हो तो शान्तिकुज्ज में कभी दीक्षा संस्कार में शामिल हो सकते हो।’’ फिर वे बोले ‘‘मैं शरीर छोड़ने पर ऐसा करूँगा,
जैसे कोर्इ कुर्ता उतारता है, पर फिर मैं तीन स्थानों पर रहुँगा-
एक माता जी के पास, दूसरा सजल-श्रृद्धा, प्रखर प्रज्ञा,
तीसरा अखंड दीपक। हमारे बीच अमेरिका के एक परिजन भी
बैठे थे। उन्होंने कहा गुरूजी,
यह तीनों स्थान तो शान्तिकुज्ज में हैं और हम लोग तो बहुत दूर हैं। इस पर गुरूजी बोले बेटा,
मेरा चौथा स्थान उगता हुआ सूर्य होगा।’’
तीन
अलौकिकताएँ-जो छिपा कर रखी गर्इ
20
जून सन् 1953
में गायत्री तपोभूमि का स्थापना उत्सव था। गुरूदेव ने 24
दिन केवल गंगाजल लेकर आत्मशुद्धि के लिए उपवास किया था। उनका वनज 117
पौण्ड से घटकर 93
पौण्ड रह गया। 24
पौण्ड भार घट गया। किसी से कुछ कहना होता,
तो पास बुलाकर धीमी आवाज में या इशारों से कहते। सौभाग्य से मुझे उनके पास रहने और उनके आवश्यक काम करते रहने का अवसर मिला। उन्हें अधिक निकटता से देखा-समझा,
उनकी आाध्यात्मिक गरिमा के संबंध में
तो क्या कहा जाए, पर शारीरिक विशेषताएँ विशेष रूप से अनुभव कि-शरीर
में से गुलाब जैसी तीव्र सुगंध महकती थी, छूते ही झटका लगता था और रोमांच हो आते थे। खुली आँख से किसी को देखें,
तो वह सकपका जाता था। इन विशेषताओं को छिपाने के लिए उन्होंने पूरा प्रबन्ध कर रखा था। भरी गर्मियों में पूरे शरीर को कंबल से लपेटे रहते थे, आँखों पर काला चश्मा चढ़ा रहता था। किसी को पैर नहीं छूने देते थे। इससे पहले भी उनसे कर्इ बार मिला था, पर काला चश्मा,
पूरा शरीर कंबल से लपेटा तथा पैर आदि छूने की मनाही जैसे बंधन नहीं थे। पूछने पर माताजी ने बताया कि जब कभी वे उग्र तपश्चर्या की स्थिति में होते हैं, तब दिव्यतत्त्वों की मात्रा अधिक बढ़ जाने से यह विशेषताएँ उनके शरीर में अक्सर पैदा हो जाती हैं। इन दिनों भी यही स्थिति है। इसका पता वह किसी को चलने देना नहीं चाहते,
सो किसी से कहना मत, मैंने इस बात को आज पहली बार प्रकट किया है। एक साधक
प्राचीनकाल के आत्मवेत्ता अपने को इतना समर्थ और प्रभावशाली बनाते थे कि लोकनेतृत्व कर सकें। इसके लिए वे बुद्धि या प्रतिभा को प्रखर करने में ही नहीं लगे रहते थे, वरन् समग्र व्यक्तित्व को विचार एवं कर्म के समन्वय से प्रचण्ड बनाते थे। भारतीय तत्त्तज्ञान की विश्वव्यापी गौरव-गरिमा,
प्रभावशीलता एवं सफलता का मूल कारण उसके व्याख्यताओं द्वारा अपने जीवन की प्रयोगशाला में अपने कथन की सार्थकता सिद्ध करना ही था। आज वह क्रम टूटा,
तो वह दर्शन भी बैठ गया, जिसकी अब चर्चा ही शेष रह गयी है। भारतीय तत्त्वदर्शन एवं अध्यात्म के सम्मुख इस जीवन-मरण जैसे अवरोध का वेश्लेषण और निराकरण सही रूप से प्रस्तुत करने के लिए गुरूदेव ने न केवल कहा और लिखा,
बल्कि उसे अपने कर्तव्य का अविच्छिन्न अंग भी बनाया। उन्होंने यह प्रतिपादित किया कि सैनिक और संन्यासी दोनों का एक साथ रह सकना सम्भव है। सम्भव ही नहीं,
स्वाभाविक भी है और आवश्यक भी। दयालुता का अर्थ अनाचार का संरक्षण नहीं और वैराग्य का अर्थ आलसी और अकर्मण्य हो जाना नहीं है।
इसी तरह क्षमा का अर्थ पाप और अनीति को स्वच्छंद रूप से कुहराम मचाते रहने की छूट देना नहीं है। पापी को भी प्यार किया जा सकता है, पर पाप के प्रति तो निष्ठुरता बरतनी ही पड़ेगी। संत की भी पूजा,
कसार्इ की भी पूजा। पुण्य की भी जय-पाप
की भी जस, ऐसा समदर्शन तो व्यक्ति को दार्शनिक भूल- भूलैयों में उलझाकर संसार का सर्वनाश ही कर देगा। गूरूदेव ने अपने जीवन क्रम में उन तथ्यों को स्थान दिया,
जिनमें उनके सैनिक तत्त्व से साथ संन्यासी तत्त्व भी पूरी तरह जुड़ा हुआ था। (
पूज्य गूरूदेव श्री राम आचार्य का जीवन मिशन)
मैं
प्रकाश की खातिर पूरी रात चलूँगा
मुझे नहीं आता है, कोरे स्वप्न सजाना,
मैं अपने मन की देखी साकार करूँगा।
माना यह, हर एक कल्पना सत्य न होती,
हर अभिलाषा,
पूरी हो पाती ही
कब है?
सभी ओर अवरोध खड़े हैं, भाँति-भाँति के,
हर पगडंडी मंजिल
तक, जाती ही कब है?
लेकिन मुझे न
आता, आधे में रूक जाना,
निकल पड़ा हूँ तो, बाधायें पार करूँगा।
ऋतुएँ भी बदलेंगी,
अपने-अपने क्रम से,
कभी मेघ गरजेंगे,
सरिता इतरायेगी,
धूप कभी अपना शरीर ही झुलसायेगी,
लौट पुन: दिन वासंती वेला भी
आयेगी,
मैंने कब सीखा है, पीड़ा से डर जाना,
अभिसंघातो से, जीवन श्रृंगार करूँगा।
मेरा रहा अंसभव से आकर्षण गहरा,
चाँद-सितारों पर, मेरा मन ललचाता है,
जाने क्यो,
घनघोर तिमिर की छाया में भी,
मुझको आशा दीप दूर से दिख जाता है,
मुझे नहीं आता, अँधियारे से घबराना,
मैं प्रकाश की खातिर पूरी रात चलूँगा।
मुझे नहीं आता है, कोरे स्वप्न सजाना,
मैं
अपने मन की, देखी साकार करूँगा।
-परमपूज्य गुरूदेव
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