परम पूज्य गुरुदेव द्वारा सू़क्ष्मीकरण के पहले मार्च 1984
में लोकसेवी कार्यकर्ता समयदानी-समर्पित शिष्यों को दिया गया महत्त्वपूर्ण निर्देश। यह पत्रक स्वयं परम पूज्य गुरुदेव ने सभी को वितरित करते हुए इसे प्रतिदिन पढ़ने और जीवन में उतारने का आग्रह किया था।
यह मनोभाव हमारी तीन उँगलियाँ मिलकर लिख रही हैं। पर किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि जो योजना बन रही है और कार्यान्वित हो रही है, उसे प्रस्तुत कलम, कागज
या उँगलियाँ ही पूरा करेंगी। करने की जिम्मेदारी आप लोगों की, हमारे नैष्ठिक कार्यकर्ताओ की है।
इस विशालकाय योजना में प्रेरणा ऊपर वाले ने दी है। कोर्इ दिव्य सत्ता बता या लिखा रही है। मस्तिष्क और हृदय का हर कण-कण, जर्रा-जर्रा उसे लिख रहा है। लिख ही नहीं रहा है, वरन इसे पूरा कराने का ताना-बाना भी बुन रहा है। योजना की पूर्ति में न जाने कितनों का-कितने
प्रकार का मनोयोग और श्रम,
समय, साधन आदि का कितना भाग होगा। मात्र लिखने वाली उँगलियाँ न रहें या कागज,
कलम चुक जायें,
तो भी कार्य रूकेगा नहीं;
क्योकि रक्त का प्रत्येक कण और मस्तिष्क का प्रत्येक अणु उसके पीछे काम कर रहा है। इतना ही नहीं,
वह दैवी सत्ता भी सतत सक्रिय है, जो आँखों से न तो देखी जा सकती है और न दिखार्इ जा सकती है।
योजना बड़ी है। उतनी ही बड़ी,
जितना कि बड़ा उसका नाम है. ‘युग परिवर्तन'। इसके लिए अनेक वरिष्ठो का महान योगदान लगना है। उसका श्रेय संयोगवश किसी को भी क्यों न मिले।
प्रस्तुत योजना को कर्इ बार पढ़ें। इस दृष्टि से कि उसमें सबसे बड़ा योगदान उन्हीं का होगा,
जो इन दिनों हमारे कलेवर के अंग-अवयव
बनकर रहे हैं। आप सबकी समन्वित शक्ति का नाम ही वह व्यक्ति है, जो इन पंक्तियों को लिख रहा है।
कार्य कैसे पूरा होगा,
इतने साधन कहाँ से आएँगे?
इसकी चिन्ता आप न करें। जिसने करने के लिए कहा है, वही उसके साधन भी जुटायेगा। आप तो सिर्फ एक बात सोचें कि अधिकाधिक श्रम व समर्पण करने में एक दूसरे में कौन अग्रणी रहा?
साधन,
योग्यता, शिक्षा आदि की दृष्टि से हनुमान् उस समुदाय में अकिंचन थे। उनका भूतकाल भगोड़े सुग्रीव की नौकरी करने में बीता था, पर जब महती शक्ति के साथ सच्चे मन और पूर्ण समर्पण के साथ लग गए; तो लंका दहन, समुद्र छलांगने और पर्वत उखाड़ने का, राम-लक्ष्मण
को कंधे पर बिठाये फिरने का श्रेय उन्हें ही मिला। आप लोगों में से प्रत्येक से एक ही आशा और अपेक्षा है कि कोर्इ भी परिजन हनुमान् से कम स्तर का न हो। अपने कर्तृत्व में कोर्इ भी अभिन्न सहचर पीछे न रहे।
काम क्या करना पड़ेगा?
यह निर्देश और परामर्श आप लोगों को समय-समय
पर मिलता रहेगा। काम बदलते भी रहेंगे और बनते-बिगड़ते भी रहेंगे। आप लोग तो सिर्फ एक बात स्मरण रखें कि जिस समर्पण भाव को लेकर घर से चले थे, पहले लेकर आए थे (हमसे जुड़े थे) उसमें दिनों-दिन बढ़ोत्तरी होती रहे। कहीं रार्इ-रत्ती भी कमी न पड़ने पाये।
कार्य की विशालता को समझें। लक्ष्य तक निशाना न पहुँचे,
तो भी वह उस स्थान तक अवश्य पहुँचेगा,
जिसे अदभुत,
अनुपम,
असाधारण और ऐतिहासिक कहा जा सके। इसके लिए बड़े साधन चाहिए,
सो ठीक है। उसका भार दिव्य सत्ता पर छोड़ें। आप तो इतना ही करें कि आपके श्रम,
समय, गुण-कर्म, स्वभाव में कहीं भी कोर्इ त्रुटि न रहे। विश्राम की बात न सोचें,
अहर्निश एक ही बात मन में रहे कि हम इस प्रस्तुतीकरण में पूर्णरूपेण खपकर कितना योगदान दे सकते हैं? कितना आगे रह सकते हैं? कितना भार उठा सकते हैं? स्वयं को अधिकाधिक विनम्र,
दूसरों को बड़ा मानें। स्वयंसेवक बनने में गौरव अनुभव करें। इसी में आपका बड़प्पन है।
अपनी थाकान और सुविधा की बात न सोचें। जो कर गुजरें,
उसका अहंकार न करें वरन् इतना ही सोचें कि हमारा चिंतन,
मनोयोग एवं श्रम कितनी अधिक ऊँची भूमिका निभा सका? कितनी बड़ी छलाँग लगा सका? यही आपकी अग्नि परीक्षा है। इसी में आपका गौरव और समर्पण की सार्थकता है। अपने साथियों की श्रद्धा व क्षमता घटने न दें। उसे दिन दूनी-रात चौगुनी करते रहें।
स्मरण रखें कि मिशन का काम अगले दिनों बहुत बढ़ेगा। अब से कर्इ गुना अधिक। इसके लिए आपकी तत्परता ऐसी होनी चाहिए,
जिसे ऊँचे दर्जे की कहा जा सके। आपका अन्तराल जिसका लेखा-जोखा लेते हुए अपने को कृत-कृत्य
अनुभव करे। हम फूले न समाएँ और प्रेरक सत्ता आपको इतना घनिष्ठ बनाए,
जितना कि राम पंचायत में छठे हनुमान् भी घुस पड़े थे।
कहने का सारांश इतना ही है, आप नित्य अपनी अन्तरात्मा से पूछें कि जो हम कर सकते थे, उसमें कही रार्इ-रत्ती त्रुटि तो नहीं रही? आलस्य-प्रमाद को कहीं चुपके से आपके क्रिया-कलापों में घुस पड़ने का अवसर तो नहीं मिल गया? अनुशासन में व्यतिरेक तो नहीं हुआ? अपने कृत्यों को दूसरे से अधिक समझने की अहंता कहीं छù रूप में आप पर सवार तो नहीं हो गयी?
यह विराट् योजना पूरी होकर रहेगी। देखना इतना भर है कि इस अग्नि परीक्षा की वेला में आपका शरीर, मन और व्यवहार कहीं गड़बड़ाया तो नहीं। ऊँचे व्यक्तित्व करते हैं। कोर्इ लम्बार्इ से ऊँचा नहीं होता;
श्रम,
मनोयोग,
त्याग और निरंहकारिता ही किसी को ऊँचे बनाती है। अगला कार्यक्रम ऊँचा है, आपकी ऊँचार्इ उससे कम न पड़ने पाए, यह एक ही आशा, अपेक्षा और विश्वास आप लोगों पर रख्रकर कदम बढ़ रहे हैं। आप में से कोर्इ इस विषम वेला में पिछड़ने न पाए, जिसके लिए बाद में पश्चाताप करना पड़े।
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