निष्कलक प्रज्ञावतार
एक ऐसी दिव्य सत्ता जिन्होंने
युगानुकुल ऋषि परम्परा का श्री गणेश किया। ऋषि गृहस्थ सन्यासी हुआ करते थे। यश
अपयश से उपर उठकर लोकमंगल के लिए जिनका जीवन समर्पित होता था। पूज्य गुरुदेव के वो
अनुकर्णीय आदर्श, जो कि आज बहुत कम देखने को मिलते है, हम सबके लिए एक प्रकाश स्तम्भ है।
1- पूज्य गुरूदेव ने अपने जीते जी अपने
नाम के आगे कभी बड़े-2 शब्दो का प्रयोग नहीं किया जैसे
परमहंस, ब्रह्मर्षि, महामण्डलेश्वर, महर्षि, श्री श्री 1008 आदि। बड़े सरल शब्द ( जैसे पण्डित जी
अथवा आचार्य जी) ही प्रयोग किए। यह उनकी विनम्रता व स्वंय के अवतारी स्वरूप को
छिपाकर रखने की कला थी। परंतु आज हमें, उनके
शिष्यों को उनको पण्डित, शर्मा जैसे शब्दो से हटाकर महर्षि, युगऋषि आदि से सम्बोधित करना चाहिए।
2-पूज्य गुरुदेव ने जीते जी अपने चित्र
अपनी पत्रिकाओं में नहीं छपवाए। न
ही अपनी बड़ार्इ, या चमत्कार छपने दिये। इससे उनकी
महानता व गहतना का आभास होता है। अन्यथा लोग पैसे दे देकर लोगों को अपने नाम के
झूठे चमत्कार छपवाते है।
3-गुरूदेव ने अपने पूर्व जन्म जीते जी
प्रकाशित नहीं होने दिए। अपनी जीवनी ‘‘वसीयत
विरासत ‘भी बहुत बाद में छपवायी।
4-जीवन के उतरार्द्ध में जब उनकी ख्याति
बढ़ने लगी तो स्वंय को एक कमरे तक ही सीमित कर लिया व सूक्ष्मीकरण में जूट गए।
लोगों से मिलना जुलना बंद कर दिया।
5-उन पर अपने जीते जी कभी कोर्इ कंलक
नहीं लगा। हत्यारों को भी भगा दिया उन पर भी कोर्इ आँच नहीं आने दी ऐसे करूणा रुप
थे वो।
6-माँ गायत्री को सम्मुख कर सदा लोगों के
दू:ख दूर करते रहे व एक विन्रम भक्त की तरह आपके लिए माँ गायत्री से प्रार्थना करेगे असाध्य रोग दूर हो
गए। यह नहीं कहा कि मेरी शक्ति से यह हो जाएगा वह हो जाएगा, वह हो जाएगा।
7-अपने आपको सदैव भगवान का डाकिया, अथवा संदेश वाहक बताते रहे।
8-अत्यंत सरल सामान्य व खुला जीवन जिया, अपने को कभी गुपचुप नहीं रखा।
9-जीवन के हर पक्ष को बखूबी निभाया, एक निर्भिक एंव महान स्वतंत्रता सेनानी, अन्तिम क्षण तक निरोग जीवन, आदर्श गृहस्थ, एक श्रेष्ठ स्वंय सेवी, एवं एक बहुत बड़े मिशन के संचालक। हम
सभी गुरुवर के इन आदर्शो का अनुकरण अपने जीवन में करें व उस दिव्य सत्ता को अपने
भीतर समाहित होते हुए अनुभव करें।
इतिहास से सीखें-गलतियाँ न दोहराएँ
हर देश के इतिहास में कुछ ऐसी खामियाँ
होती है जो वह देश बार-2 दोहराता है। अपने पास विद्या बल, शस्त्र बल, अर्थ बल, सब कुछ होने के बाद भी हम कर्इ सौ वर्षो तक गुलाम बने रहें व तरह-2 के अत्याचारों को सहते रहें। कारण एक
ही था हर शासक अपने आप में बहुत दमदार था परंतु पडौसी से ईर्ष्या करता था। बाहरी
आक्रमणकारीयों को यहीं के लोगों ने पनाह दी और उन्होंने मौका पाकर सबको रौंदा। यदि
अपने-2 अंह को प्राथमिकता ने देकर हमने बाहरी
आक्रमणकारीयों का एक जुट होकर मुकाबला किया होता तो आज हमारा देश कर्ज के नीचे न
दबा होकर सोने का शेर इतिहासकारों द्वारा कहलाता। आज भी यही समस्या है- अनेक मिशन
भारत में बहुत अच्छे-2 काम कर रहें है। परंतु प्रत्येक अपने
अंह में जी रहा है कि उनका गुरू ही सर्वोच्च है, उनकी पूजा पद्धति ही सही है व उनके मिशन को अपनाने से ही सबका कल्याण
हो सकता है। इस कारण ये सब मिशन आपस में एक जुट नहीं हो पा रहे हैं यदि भारत के
पाँच-सात बड़े मिशन सच्चे मन से एक जुट हो जाँए तो कुछ ही वर्षो में पूरें भारत को
पुन: जगदगुरु बना दें।
दुर्भाग्य से हमारे देश में सब कुछ
होते हुए भी एकजुटता की, आपसी सदभावना की कमी रही हैं। हमें यह
समझना होगा, अपनी गलती में सुधार करना होगा अन्यथा
देवत्व, संगठित आसुरी शक्ति से हारता पीटता
रहेगा।
इस प्रकार की गलती हिटलर ने भी की थी।
सन् 1941 में जब हिटलर ने रूस पर हमला बोला, तब उसकी जर्मन सेना रूसी सेना से अधिक
शक्तिशाली थी परंतु फिर भी हिटलर को रूस से करारी हारा मिली। क्यो? क्योंकि हिटलर ने भी वही गलती दोहरार्इ, जो इतिहास में नेपोलियन कर चुका था।
हिटलर ने भी नेपोलियन की तरह उस समय हमला किया, जब
रूस में कड़ाके की सर्दी पड रही थी। तब रूस ने फिर से 'scotched forth policy' अपनार्इ, जो उसने नेपोलियन से समय चुनी थी। यानी जब दुश्मन सेना रूस में घुसी, तो रूसी सेना बहुत अन्दर के क्षेत्र
में चली गर्इ। और जाते हुए सब कुछ जला गर्इ, ताकि
दुश्मनों के पास जिंदा रहने के लिए कुछ भी सामग्री उपलब्ध न रह सकें। ऐसा करने से
जर्मन सेना पर दोहरी मार पड़ी-एक हिमपात की मार, (जिसके लिए जर्मन सेना तैयार नहीं थी)। दूसरा, जीवित रहने के लिए आवश्यक संसाधनों का
अभाव। इससे रूसी सेना को आक्रमण करने का पर्याप्त समय मिल गया और हिटलर हार गया।
अत: इतिहास में की जा चुकी गलतियों से
सीख लें और उन्हें न दोहराएँ। यह सावधानी और सतर्कता ही हमें हमारे लक्ष्य तक
पहुँचा सकती है।
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