"हमें अगले दिनों सारे विश्व को यह बताना है कि नयी दुनिया कैसी होगी,
जमाना कैसे बदलेगा तथा
देखते-देखते व्यक्तियों के सोचने का तरीका कैसे बदलता चला जाएगा?
जैसे ब्रह्मजी ने इच्छा प्रकट कि ‘‘एकोऽहं बहुस्याम्’’
व देखते-देखते साकार हो गयी उनकी परिकल्पना उसी तरह हमने भी इच्छा व्यक्त की है, महाकाल के संकेतों पर कि हमें इस दुनिया को नयी बनाना है। इक्कीसवीं सदी का साहित्य
हम इसलिए रच रहे हैं, तुम्हारे तथ्यों के संकलन हमारे अभी के लेखन तथा हमारे बाद कलम पकड़ने वाली उँगलियों के लेखन के पीछे यही दैवी प्रेरणा काम कर रही है। इस तथ्य को समझना,
यह मानना कि तुम्हारे व्यक्तित्व का परिष्कार कर तुम से एक गहन साधना कराना मेरा उद्देश्य है। यह समझ लोगे तो तुम लो कभी लक्ष्य से भटकोगे नहीं"।
1977-78
में उन सभी विषयों पर पुनर्मन्थन का क्रम चला जिन्हें अध्यात्म और विज्ञान के समन्वयात्मक प्रतिपादनों की परिधि में लाना था, विशेषकर तब जब प्रयोग परीक्षणों हेतु एक प्रयोगशाला व ग्रंथागार विनिर्मित होने जा रहा था।
ऊपर से दिखार्इ देने वाले सत्कर्म भी अंतकरण:
की शुद्धता के अभाव में निष्फल चले जाते हैं।
आदमी के विचारों की शक्ति असाधारण है। जिजीविषा,
जीवट,
मनोबल में अपनी एक
अलग ही सामर्थ्य है, यह मनुष्य की सबसे बड़ी विशेषता है। हमारी अंत:विद्युत
की ताकत पर खड़ा है विचारों का ढाँचा। साधना उपचारों द्वारा जब तक इसे सशक्त किया जाता रहेगा,
मनुष्य का आंतरिक वैभव सतत् बढ़ता ही रहेगा।
भोगों से जहाँ शारीरिक व्याधियाँ बढ़ती है, वहाँ मानसिक चिंतायें भी बढ़ती हैं। यह चिंतायें मनुष्य को बन्धनों से बाँधती हैं
और दु:खी
करती हैं।
"धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा है और
विज्ञान
के बिना धर्म अंधा"। दोनों का समन्वय
युग संकट के निवारण एवं मानव जाति के कल्याण के लिए सबसे महत्वपूर्ण था।
इसके निदेशक डा
प्रणव पण्डया जी के मार्गदर्शन में अब तक दर्शन,
मनोविज्ञान,
समाजशास्त्र,
संस्कृति,
योग, आयुर्विज्ञान,
साहित्य,
संस्कार गायत्री,
यज्ञ,
संगीत जैसे 20
से अधिक विषयों पर शोध कार्य हो चुका है जिसके उच्च्तर एवं मौलिक
देन की शोध जगत् में मुक्त कण्ठ से प्रशंसा हुर्इ है। वैदिक सृष्टि विज्ञान,
आयुर्विज्ञान,
जलचिकित्सा,
मंत्र विज्ञान एवं योग साधनाओं का शोध कार्यो के अंतर्गत गहन मंथन चल रहा है, जिसके निष्कर्ष अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व-मनीषा को चमत्कृत कर दे तो कोर्इ अतिशयोक्ति न होगी।
नीवं
के पत्थरों का अभिनंदन
नींव के पत्थरों,
यह मिशन का भवन, युग युगों तक तुम्हारा रहेगा ऋणी।
1-मानते हैं कि तुम भूमि के गर्भ में, कर सकोगे न अनुभव पवन की छुअन।
मंदिरों की मधुर घंटियों की गमक, भोर की गोद में मुस्कुराती किरन।
दिख सकेगी न तुमको बसंती घटा, छू न पायेगी तुमको घटा सावी।।
2-सत्य है सामने भव्यता की छवि, तुम नहीं आ सकोगे किसी ध्यान में।
कोर्इ उत्सव समारोह अथवा सभा, भी न होगी तुम्हारे सुसम्मान में।
गीत स्तुति प्रशंसा तुम्हारे लिए, लिख सकेगी नहीं कोर्इ भी लेखनी।।
3-यह भवन अब भले ही गगन चूम ले, किंतु उसको जनाधार तुमसे मिला।
खुद अपरिचित रहे पर मिशन की प्रखर,
कीर्ति को विश्व विस्तार तुमसे मिला।
छा गर्इ छाँह बनकर मिशन के लिए, साथियों भाव श्रद्धा तुम्हारी घनी।।
4-नींव के पत्थरों पात्रता का नहीं,
मिल सकेगा तुम्हारा न सानी कभी।
एक पल भी नहीं भूल पायेंगे हम, त्याग तप की तुम्हारी कहानी कभी।
स्वार्थ को त्यागकर बीज से तुम गले, दीप से तुम जले भावना के धनी।।
5-तुम धरा में दबे पर तुम्हारे लिए, सिर झुकता भवन का शिखर सर्वदा।
पुंज हो तुम अमित शक्ति वैराग्य के, उच्च् आदर्श हो साधकों के सदा।
गीत वंदन प्रशंसा तुम्हारे लिए, लिख सकेगी नहीं कोर्इ भी लेखनी।।
6-नींव बनती तुम्हीं से सब यदि नहीं,
तो मिशन भव्यता प्राप्त करता नहीं।
जुड़ न पाते जड़ों से करोड़ों विटप,
विश्व उद्यान इतना सँवरता नहीं।
सुरसरी भी मिशन की न बनती कभी, त्रस्त संसार के हित तरण तारणी।।
7-कोर्इ जाने न जाने सभी के लिए, माँ के मन में उमड़ता अमर प्यार है।
हम
सभी के लिए दिव्य अनुदान से, छलछलाती हुर्इ गुरू कृपा धार है।
नाम,
यश, साधनों की नहीं कामना,
उनकी करूणा मिली,
क्या नहीं पा लिया?
।।
नींव
के पत्थरों का निवेदन
युग-युगों तक रहे यह मिशन का भवन। जिसने जीवन हमारा सफल कर दिया।
1-कोर्इ यह न कहे त्याग हमने किया,
एक टुकड़ा भी अपना न खण्डित हुआ।
भव्यता छोड़कर दिव्यता पा गये, इसमे घाटा नहीं,
लाभ ही तो हुआ।।
शीत आतप सभी से सुरक्षित यहाँ,
दिव्य आँचल से माँ ने हमें ढक लिया।।
2-घण्टियों की खनक, ढोलकों की गमक, शुद्ध भावों सहित आ रही भा रही।
और सबसे बड़ी बात सौभाग्य की, भूमि माता हमें नित्य दुलरा रही।
माँ के मन की उमंगों से हम जुड़ गये, माँ ने दिल से लगा धन्य ही कर दिया।।
3-सोचते हैं कभी त्याग उनका अरे, जो कि कट-पिट
गये, फिर कँगूरे बने।
ताप-वर्षा विकट शीत सब सह रहें,
पर वहीं पर जमे हैं, खड़े हैं तने।
रूप अपना तजा, झेल ली हर सजा, रूप सुंदर भवन को मगर दे दिया।।
4-वे भी पत्थर थे जो टूटकर पिस गये, चूना-सीमेंट बन काम में आ गये।
जो स्वंय को मिटा जोड़ने में लगे, रूप रचना को देते रहे नित नये।
कोर्इ देखे न देखे ये चिंता न की, इस भवन की हरइक सैंध को भर दिया।।
5-पात्रता है अनोखी सभी की यहाँ,
इस सभी से अनोखी नजीरें बनीं।
विश्व लेता सभी से सहज प्रेरणा,
ये सभी हैं प्रखर आस्था के धनी।
साधना से मिले सिद्धि निश्चित सदा, कर्मनिष्ठा से यह सिद्ध भी कर दिया।।
6-भेद हममें करें,
हम उन्हें क्या कहें,
सत्य समझा नहीं वे तो नादान हैं।
हमसे दृढ़ता भवन को मिली है सही, इस भवन की उन्हीं से बढ़ी शान है ।।
भूमि माता से सच्चे सभी पूत है, और माँ ने हमें है अभव वर दिया ।
7-कोर्इ जाने न जाने सभी के लिए, माँ के मन में उमड़ता अमर प्यार है ।।
हम सभी के लिए दिव्य अनुदान से, छलछलाती हुर्इ गुरू कृपा धार है।
नाम,
यश, साधनों की नहीं कामना,
उनकी करूणा मिली,
क्या नहीं पा लिया।।
ब्रह्मवर्चस की स्थापना के प्रारंभिक दिन थे। उत्साही वैज्ञानिक दल का प्रयोगशाला में वैज्ञानिक उपकरणों पर जोर अधिक था। गुरूदेव का मत स्पष्ट था कि अध्यात्म चेतना का विज्ञान है और इसका स्थूल प्रयोगशाला से अधिक लेना-देना नहीं। दो टेस्ट ट्युबों में आँसूओं का विश्लेषण कर यह बताना
कठिन है कि किसमें रोते हुए आँसू हैं और किसमें हँसते हुए। पदार्थ की एक सीमा है, अध्यात्म विज्ञान के शोध के लिए शरीर और मन को ही प्रयोगशाला बनाना होगा और साधना विज्ञान का सहारा लेते हुए चेतना का रूपांतरण करना होगा।
यह तो परिधि से केंद्र की ओर अंर्तजगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान है, वैज्ञानिक उपकरणों की पहुँच शरीर की जैविक ऊर्जा तक ही एक सीमा तक संभव है। मन की गहरार्इयों में इसका प्रभावी दखल संभव नहीं। यह तो ध्यान की गहरार्इयों में संभव है।
परमपूज्य गुरूदेव कार्यकर्ताओं को लेखन सिखा रहे थे। उनको कुछ पुस्तकें देकर संदर्भ निकालकर देख तैयार कर लाने के लिए कहते। कर्इ बार ऐसा होता कि जब कार्यकर्ता अपना लेख सामने रखते तो गुरूदेव उनसे पहले ही वह सब बातें अपने लेख में लिख चुके होते। एक बार एक भार्इ ने ग्रीन हाउस इफैक्ट के बारे में एक लेख तैयार किया। जिसमें बताया गया था कि विश्व भर में बढ़ने वाली गर्मी से पूरे विश्व में कितना बढ़ा असंतुलन आ जायेगा,
और खण्ड प्रलय या जल प्रलय जैसी स्थिति आ जायेगी और दुनिया नष्ट हो जायेगी। पूज्यवर ने कहा, लेख तो ठीक है, बढ़िया
बना है, पर
अब मेरी सुन। एक लेख और तैयार कर, जिसमें लिख कि यह सब कुछ नहीं होगा। दुनिया का भविष्य उज्जवल होगा। तो उन्होंने पूछा,
गुरूजी लेकिन उसका प्रमाण क्या है? वे बोले,
प्रमाण खोजना तुम्हारा काम है, पर होगा वही जो मैं कह रहा हूँ। इस बात को उन्होंने उबाव पूर्वक दो-तीन
बार कहा।
फिर कहने लगे, ये दुनिया तो भगवान् की इच्छा से चल रही है। भगवान् ने धरती गोल बनायी,
तो वैज्ञानिक शोध कर कहने लगे कि ये गोल है, इसलिए घूम रही है। अगर वह बेलनाकार बनाकर उछाल देता,
तो वैज्ञानिक उसकी व्याख्या कर कहते कि यह बेलन आकार है, इसलिए घूम रही है।
आज के घटनाचक्रों पर नजर डालें तो स्पष्ट होता है कि भारत ही नहीं,
वरन् संपूर्ण विश्व में परिवर्तन का पहिया तीव्र से तीव्रतम गति से घूम रहा है। अरब देशो में चल रही परिवर्तन की लहर, विकीलीक्स के खुलासे,
भारत में बेनकाब होते घोटालेबाप,
भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना की आँधी एवं जागृत होता जनमानस परिवर्तन की कहानी बयाँ कर रह हैं। विनाश एवं ध्वंस के इस आसुरी प्रवाह के साथ सृजन एवं सकारात्मकता का देव प्रवाह शीतल झोंके की तरह आतंक,
अशांति एंव असुरक्षा के माहौल में संतप्त हो रही मानवता को यदा-कदा
उज्जवल भविष्य की आस दिलाता है।
गुरूदेव का कथन सत्य होता प्रतीत होता है जो उन्होंने सूक्ष्मीकरण एवं उज्जवल भविष्य के अवतरण नामक ग्रंथ में लिखा है- नया युग तेजी से बढ़ता चला आ रहा है, उसे कोर्इ रोक न सकेगा। प्राचीनकाल की महान् परंपराओं को अब पुन: प्रतिष्ठित किया जाना है और मध्यकालीन दुष्ट विषमताओं का तिरोधान होना है। महाकाल उसके लिए आवश्यक व्यव्स्था बना रहे हैं और तदनुकूल आधार उत्पन्न कर रहे हैं। युग का परिवर्तन अवश्यंभावी है। हालँकि महाकाल के तांडव नृत्य से उत्पन्न गगनचुम्बी जाज्वल्यमान आग्रेय लपटों द्वारा पुरातन को नूतन में परिवर्तित करने की भूमिका अगले दिनों किस तरह सम्पन्न होने जा रही है, इसे कल्पना परिधि में लाना असंभव सा जान पड़ता है, लेकिन परिवर्तन होकर रहेगा।
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