यह आपत्तिकाल है। इसमें आपत्ति धर्म का तात्पर्य है सामान्य सुख-सुविधाओं की बात ताक पर रख देना और वह करने में जुट जाना जिसके लिए मनुष्य की गरिमा भरी अंतरात्मा पुकारती है। आज किसी जागृत आत्मा को यह सोचने का आवकाश नहीं होना चाहिए कि उसका वैभव कैसे बढ़े,
कुटुंब कैसे फैले। आज न पदवी धारी बनने की आवश्यकता है और न बड़े आदमियों में गिने जाने के लिए चित्र-विचित्र उछल-कूद करने की। शांति का समय होता तो यह बाल-क्रीड़ाएँ भी किसी न किसी प्रकार दर-गुजर की जातीं। ओछे,
बचकाने लोग यदि इन उथली हरकतों में उलझे रहते तो भी कोई बात नहीं थी,
पर वरिष्ठों पर हेय स्तर का अवसाद चढ़ दौड़े तो इसे उनकी विशिष्टता पर लगा हुआ कलंक-ग्रहण ही कहा जायेगा।
प्रज्ञा परिवार को अन्य संगठनों,
सभा-संस्थानों के समतुल्य नहीं मानना चाहिए। वह युग सृजन के निमित्त अग्रगामी मूर्धन्य लोगों का एक सुसंस्कारी परिकर-परिसर है। उसके सदस्यों को,
प्रज्ञा परिजनों को प्रस्तुत युग चुनौती स्वीकार करनी ही चाहिए। इस संदर्भ में किसी को भी परिस्थितियों की विषमता या अनुकूलता का बहाना नहीं गढ़ना चाहिए। व्यस्त से व्यस्त और दरिद्र से दरिद्र भी इस विषम बेला में इस प्रकार न सही तो उस प्रकार कोई न कोई ऐसी भूमिका निभा सकता है जिसे असंख्यों के लिए अनुकरणीय कहा जा सके। अमुक-अमुक उत्तरदायित्वों से निवृत्त होने के उपरांत निश्चिन्त होने और संन्यास धारण करके लोक मंगल में लगने के स्वप्न संसार में किसी को भी नहीं देखना चाहिए। अगले साल हममें से अमुक जीवित रहेगा ही इसकी कोई गारंटी नहीं। जो आज की परिस्थितियों में संभव है बात उतनी ही सोचनी और करनी चाहिए। भविष्य में दस लाख की लाटरी खुलने पर आधा धन सदावर्त में लुटाया जायेगा यह शेखचिल्ली का सपना कोई और देखे तो देखे पर प्रज्ञा परिवार के सदस्यों को ऐसे स्वप्न लोक में उड़ने की आवश्यकता नहीं। उन्हें केवल एक ही बात सोचनी चाहिए कि समय की जिस चुनौती ने जागृत आत्माओं को कान पकड़कर झकझोरा है उसके उत्तर में उन्हें दाँत निपोरने हैं या सीना तानना है।
प्रज्ञा अभियान ने इसीलिए हर परिजन को कहा है कि वह इस विषम बेला में किसी भी कारण हाथ पर हाथ रखकर न बैठें,
जहाँ संगठन सही है वहाँ उनका अंग बनकर रहने में सुविधा तथा सफलता रहेगी,
पर जहाँ इस संदर्भ में कठिनाइयाँ हैं,
वहाँ हर जागृतात्मा को अपने पैरों खड़ा होना चाहिए। भीतर के महान को जगाना चाहिए और अपने विवेक के सहारे अपने पैरों आप चलने के लिए कटिबद्ध हो जाना चाहिए।
प्राचीन काल में ब्राह्मण अपने आप में एक पूर्ण संस्था था। उसका अपना व्यक्तित्व, अंतराल,
वर्चस् एवं अनुभव इतना समग्र होता था कि उसे संस्था के साथ संबद्ध रहने या नियंत्रण की अनिवार्यता में बाँधने की कोई आवश्यकता नहीं समझी जाती थी। लोग ब्राह्मण के हाथों नि:संकोच दान-दक्षिणा सौंपते थे। उसकी प्रामाणिकता इतनी असंदिग्ध,
परखी हुई प्रखर होती थी कि उसमें अनैतिकता बरती जाने की आशंका तो दूर,
कोई कल्पना तक नहीं करता था।
फलत:
ब्राह्मण के हाथ में पहुँचा धन एक अधिकृत बैंक-सार्वजनिक ट्रस्ट के हाथ में पहुँचा हुआ माना जाता था। उसका ठीक वैसा ही उपयोग भी होता था। लोक मंगल के लिए समर्पित अपना निजी निर्वाह अपरिग्रह के आधार पर निर्धारित होने के कारण कहीं किसी को असमंजस की आवश्यकता भी नहीं पड़ती थी। ब्राह्मण को भूसुर,
पृथ्वी के देवता कहा जाता था। वे अपने आप में एक सार्वजनिक संस्था थे। गांधी जी ने इसी स्तर के लोगों को वरिष्ठ सत्याग्रही कहा था और व्यक्तिगत सत्याग्रह के संबंध में सभी सामयिक निर्णय अपनी विवेक-बुद्धि से करने की छूट दी थी। बुद्ध के भिक्षु परिव्राजक साधना काल में ‘संघारामों’
में नालंदा तथा तक्षशिला जैसे प्रज्ञा विहारों में पढ़ते थे पर जब उन्हें कार्यक्षेत्रों में भेजा जाता था तो परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाने वाली रीति अपनाने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया जाता था। इसे न तो स्वेच्छाचार कहा गया,
न अनुशासनहीनता जैसा कोई दुष्परिणाम सामने आया। विग्रह तो मनुष्य की अपनी विकृतियाँ ही उत्पन्न करती हैं। उनके रहते बंदीगृहों के कठोर प्रतिबंधों में भी भ्रष्टाचार पनपता रहता है। जहाँ शालीनता है वहाँ वनवासी भी निर्बंध रहकर कठोर मर्यादाओं को निबाहते हैं।
युग संधि की इस बेला में वरिष्ठ जागृत आत्माओं को कहा गया है कि वे अपने आपको एक छोटा प्रज्ञा संस्थान मानें और यदि स्थानीय संगठन नहीं बन सकता है अथवा उसमें खींचतान चल रही है तो उस गुत्थी के सुलझने तक की प्रतीक्षा न करके महाकाल के आमंत्रण को एकाकी ही स्वीकार करें और अपनी छोटी सामर्थ्य के अनुरूप बिना एक पल गँवाए उन रचनात्मक कार्यो में तुरंत जुट पड़े जिनसे समय की मांग पूरी होती है।
समुद्र मंथन में चौदह रत्न निकले पर उनमें सर्वप्रथम दो निकले-एक हलाहल विष,
तदुपरांत मद्य। हलाहल देखने में अत्यंत आकर्षक,
नील वर्ण था। मद्य होठों तक पहुँचते-पहुँचते उन्मत्त विक्षिप्त कर देने वाला फिर भी उसकी ललक ऐसी थी कि जिसके एक बार स्वाद लग जाये फिर छूटने का नाम ही न लेगा। इस प्रथम उपलब्धि को पीने के लिए देव-दानव दोनों ही आतुर थे। पर प्रजापति ने दोनों को ही यह समझाने का प्रयत्न किया कि यह देखने और चखने में आकर्षक लगते हुए भी अंतत:
विनाश उत्पन्न करने वाले हैं। शिवजी ने हलाहल तो अपने कंठ में धारण कर लिया। मद्य के लिए आतुर दैत्यों ने हठपूर्वक उसे गटक लिया। फलत:
उनकी सामर्थ्य उद्धत प्रयोजनों में लगी और पतन-पराभव का कारण बनी।
लोकसेवा के क्षेत्र में प्रवेश करने वाले के संबंध में जन-साधारण की श्रद्धा उमड़ती है। परमार्थ की साहसिकता अपनाने वाले पर सम्मान बरसता है। उसकी प्रशंसा होती है। प्रशंसा भी एक संपदा है। संपदाओं की उपयोगिता तो है,
पर उनके पीछे एक ऐसा आवेश भी रहता है,
जो हजम न हो सके तो लाभ के स्थान पर विनाश ही उत्पन्न करता है। धन हजम न हो सके तो दुर्व्यसन उत्पन्न करेगा। बुद्धि हजम न हो तो कुचक्र-षडयंत्र रचेगी। बल हजम न हो तो उद्दंडता के रूप में प्रकट होगा। हजम न होने पर तो अमृत भी विष बन जाता है। यश हजम न हो तो ऐसा अहंकार बनता है,
जिसकी तुष्टि के लिए लोकसेवी को अपने चिंतन,
चरित्र व्यक्तितव एवं भविष्य को हेय स्तर का बनाकर उतना पतित बनना पड़ता है,
जितने कि सेवा से सर्वथा दूर रहने वाले सामान्य श्रमिक भी नहीं होते। लोकसेवियों में से अधिकांश को अपने व्यक्तित्व और सेवा-क्षेत्र में ऐसे विग्रह उत्पन्न करते देखा जाता है,
जिसे दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना ही कहा जा सकता है और सोचना पड़ता है कि यदि यश हजम कर सकने में असमर्थ लोग लोकसेवा के क्षेत्र में न आया करें तो वे अपनी और समाज की अधिक सेवा कर सकते हैं।
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