पुस्तक का प्रारम्भ-प्रयोजन
हम अक्सर गायत्री परिवार (विशेषत:
सहारनपूर व कुरूक्षेत्र) की गोष्ठियों को सम्बोधित करने क्षेत्रों में जाते रहें
हैं। वहाँ लोगों का एक प्रश्न बहुत सुनने को मिलता हैं। भार्इ साहब कुछ ऐसा
सम्बोधित करें जिससे प्रचार कार्य में तेजी आए यहाँ गुरू का काम सुचारू रूप से
नहीं चल पा रहा हैं। यह प्रश्न हम सभी प्रज्ञा परिजनों को बैचेन करता है व सोचने
को मजबूर करता है कि किस प्रकार हम अपना निर्माण करे व गुरुसत्ता की अपेक्षाओ पर
खरे उतरें। यह पुस्तक इसी सन्दर्भ में प्रकाशित की गई है जिसके निम्न तीन उद्देश्य
सोचे गए हैं:-
1. बड़ी संख्याँ में कार्यकर्ताओं की खोज, उनका प्रशिक्षण, नियोजन एवं उनमे ब्रह्मवर्चस का
अभिवर्धन।
2. मिशन की रुपरेखा एवं कार्य योजना का
विवरण।
3. विभिन्न गतिविधियों में उत्पन्न
समस्याओ का निराकरण।
मैं (राजेश अग्रवाल) जब पी एच डी के
कार्य से दिसम्बर 2012 में निवृत हुआ तो अधिक दबाव के कारण
सर्वाइकल आदि से परेशान था इस कारण घर में अधिक विश्राम करता था। परंतु अंतरात्मा
में यही प्रश्न उठता रहता कि इस खराब स्वास्थ्य से भगवान का कार्य कैसे किया जाए?
इससे मैं बिस्तर पर पड़े-पड़े अधिक
ध्यान, जप व मनन चिन्तन करने लगा। लेटे-2 प्रभु कृपा से मेरा जप में मन लगने
लगां कभी-2 बठैकर कुछ लिखने की इच्छा होती। एक
डायरी पेन लेकर लिखने बैठ जाता। लिखते-2 ये
विचार एक छोटी पुस्तक का रूप लेते चले गए।
यह पुस्तक उन युग सैनिको एवं
प्रज्ञापुत्रों के लिए लिखी गयी है जो देवात्मा हिमालय के ‘‘21वी सदी उज्जवल भविष्य’’ के मिशन को अपने लहु से सीचना चाहते
है। आत्ममंथन एवं चिंतन के आधार पर समर्पण से आत्मदान तक की यात्रा पूरी करना
चाहते है, ऋषि दधीचि के समान जो अपनी अस्थियाँ
भगवान के कार्य के लिए दान करना चाहते है, धरती
पर देवत्व के अवतरण के इस महान यज्ञ में अपने जीवन की आहुति देने के लिए जिनका
हृदय मचलता है। जिनकी आत्मा मानव जीवन की नश्वरता का बोध कर चुकी है व इस क्षण
भंगुर जीवन में आत्म ज्ञान- ब्रहाज्ञान के सर्वोच्य लक्ष्य पाने के लिए प्राणपण से
कटिबद्ध है ऐसी महान आत्माएँ ही ब्रहाकमल के रूप में खिल सकेंगी व भविष्य में
विश्वामित्र की भूमिका निभा सकेंगी।
जब भी कोर्इ आत्मा मंगलमय भगवान से
अपना सम्पर्क बनाना चाहती है अथवा मंगलमय भगवान जिस आत्मा को अपनी शरण में लेना
चाहते है तो आत्म कल्याण,
लोक कल्याण की पावन प्ररेणाँए उस आत्मा
के अन्त:करण में उदय होने लगती है। वह र्इश्वरीय कार्य को पूरा करने के लिए
समर्पित होकर भावना पूर्वक समय दान, अंशदान
देना प्रारम्भ कर देता है। यही समर्पण आत्मदान के रूप में अपनी पूर्णता तक पहुँचता
है। ऐसे ही 24,000 आत्मदानियों की रूपरेखा हिमालय के
ऋषियों के द्वारा तैयार की जा रही हैं। परमब्रहृम परमात्मा की शक्ति को धरण किए
हिमालय के उन महातपस्वियों के आगे असम्भव कुछ भी नहीं हैं। भारत माता व धरती माता
के परित्राण का संकल्प लेकर जब वो अपना शक्ति प्रयोग करना प्रारम्भ करते हैं तो
इसे महाकाल के तांडव नृत्य की संज्ञा दी जाती है। ऐसा ही एक प्रयोग उन्होंने भारत
की स्वतन्त्रता के लिए श्री अरविन्द व श्री रमण को माध्यम बनाकर किया जिससे हजारो
बलिदानी पैदा हो गए। इस बार आत्मदानियों का निर्माण होना है क्योंकि युग का
निर्माण आत्मदानियों के बलबूते पर होना हैं।
इसके लिए तीन वर्ग के लोग चाहिए। पहले
वर्ग में पूर्ण आत्मदानी लोग नेतृत्व हेतु चाहिए। ऐसे लोग यद्यपि कम मिलेगें परन्त
बहुत शक्तिशाली होगें। आत्मदान की भूमिका में जो भी अग्रसर होगा, सनातन धर्म के रहस्य उसके भीतर से
प्रस्फुटित होगें। ये लोग श्रेष्ठतम स्वर के साधक होगें; सिद्ध पुरूष, महापुरूष होगें। सूक्ष्म व कारण शरीर
में विद्यमान हिमालय के ऋषियों से सम्पर्क बना पाने में ये ही आत्माँए सक्षम होगी।
घरती पर हिमालय के ऋषियों का सीधे प्रतिनिधित्व करेगी। उनकी विश्वव्यापी योजनाओं को
क्रियान्वन करने की क्षमता भी इन्हीं आत्मदानी आत्माओं में होगी।
दूसरे वर्ग में वो आत्माँए आँएगी जो
साधना में रूचि लेगी तथा तप के द्वारा अपने पूर्व जन्मों के कुसंस्कारों व
प्रारब्ध को काटने का प्रयास करेगी। संसारिक वासनाओं, तृष्णाओं, ऐषणाओं से संघर्ष कर साधना में प्रगति
करने की इच्छुक होगी। ये पहले वर्ग की सहयोगी आत्माँए होगी। यद्यपि हिमालय के
ऋषियों का संदेश, संरक्षण इनको भी मिलेगा परन्तु ये बहुत
स्पष्ट उनका सन्देश नहीं सुन पाएगी। अत: मूलत: इन सभी बातों में ये पहले वर्ग पर
निर्भर रहेगी। निष्काम कर्म योगी की तरह ये सनातन धर्म का प्रसाद जन-जन तक बाँटने
में महत्वपूर्ण भूमिका निभाँएगी।
तीसरे वर्ग में वो आत्माँए होगी जो
साधना करने की मन: स्थिति में तो नहीं होगी परन्तु सनातन धर्म के सिद्धान्तों को
ठीक से समझने, अनुसरण करने में रूचि दिखाँएगी। अपनी
कष्ट कठिनाइयों के निराकरण के लिए मूलत: ये सनातन धर्म की शरण में आँएगी। इनके कष्टो
को दूर करने में व इनको सनातन धर्म का सही स्वरूप समझाने में उपरोक्त दोनो वर्ग की
आत्माँए सहायता करेगी।
लेखक न कोर्इ सफल साधक होने का दावा
करता है न कोर्इ बड़ा कार्यकर्ता। हाँ एन, आर्इ, टी कुरूक्षेत्र में पढ़ाते-2 बुद्धि का उपयोग करने का अभ्यस्त
अवश्य है। साथ-2 यह भाव भी बनाने का प्रयास करता है कि
भगवान यह जो जीवन आपने दिया है यह आपके काम आ जाए। देव सत्ताओं की कृपा से यह जो
लेखन कार्य हुआ है इसका लाभ सभी गायत्री परिजन उठाएगें। परंतु मेरी अल्प बुद्धि व
समर्पण की कमी के कारण इसमें काफी त्रुटियाँ भी होगी। बीच-2 विषय थोड़ा संवेदनशील भी बनता रहा है
व कहीं-2 कडे शब्दो का प्रयोग भी हुआ है। मिशन
के अनुभवी कार्यकर्ता, वरिष्ठ भार्इ बहन मेरा मार्गदर्शन करें
जिससे इस पुस्तक को और अधिक सुंदर बनाया जा सकें, गायत्री परिवार के कार्यकर्ताओं के लिए उपयोग सिद्ध हो सकें।
इस पुस्तक में हमने लेखक का नाम देना
उचित नहीं समझा क्योंकि इसको हम गायत्री परिवार के हर परिजन की आवाज के रूप में
देखना चाहते हैं। पूज्यवर की देववाणी हर परिजन को अल्प या अधिक मात्रा में सुनार्इ
देती हैं। जो भी परिजन अपनी प्ररेणाएँ, अपने
अनुभव, अपने हृदय की वेदना इस पुस्तक के
माध्यम से प्रकट करना चाहें उसका स्वागत है। आवश्यक है कि वो विषय से भटके नहीं, किसी व्यक्ति विशेष पर व्यंग (comment) ना करें। यह पुस्तक हमारे मिशन का एक open platform बनें, सही मायनों में प्रजातंत्र का अर्थ है प्रत्येक को अपनी आवाज उठाने
का मौंका मिलें। जो भी परिजन इस पुस्तक के गठन में अपना योगदान देना चाहे, वितरण में सहयोग दे सकें सभी का स्वागत
है। पुस्तक की कम्प्यूटर कापी (soft copy) हम
सी डी (C.D.) से भेज सकते है जो चाहे तो क्षेत्रीय
स्तर पर भी पुस्तक छपवा सकते है। Soft Copy Blog से भी डाउनलोड कर सकते है।
यह पुस्तक मिशन का संविधान बने व आगे
बढ़कर इस राष्ट्र का सविंधान बने हमारी यही इच्छा हैं प्रार्थना है।
हम भाग्यशाली है जो सस्ते में निपट रहे
हैं। असली काम और बड़े-बड़े त्याग बलिदान अगले लोगो को करने पड़ेगे। अपने जिम्में
ज्ञानयज्ञ का समिधदान और आज्याहुति होम का मात्र प्रथम चरण आया है। आकाश छूने वाली
लपटों में आहुतियाँ अगले लोग देगें। हम प्रचार और प्रसार जैसी नगण्य प्रक्रियाँए
पूरी करके सस्ते में छूट रहे हैं। रचनात्मक और संघर्षात्मक अभियानों का बोझ तो
अगले लोगो पर पडेगा।
हमारा आज का ज्ञानयज्ञ छोटा सा है।
उसका उत्तरदायित्व भी नगण्य सा हम लोगो के कंधे पर आया है। युग निर्माण की
विशालकाय प्रक्रिया में यह बीजारोपण मात्र है। इसका श्रेय सुअवसर हमें मिला हैं तो
उसे करने के लिए उत्साह के साथ आगे आना चाहिए। प्रस्तुत छोटे से क्रिया कलाप को, ज्ञान यज्ञ के प्रस्तुत कार्यक्रम को
गतिशील बनाने के लिए हमें बिना कृपणता दिखाए, अपने
उत्तरदायित्व निबाहने के लिए निष्ठा और उल्लासपूर्वक अग्रसर होना चाहिए। इस स्तर
के लोग कृपणता बरतें तो उन्हें बहुत मंहगी पडेगी। लडार्इ के मैदान से भाग खडे होने
वाले भगोडे सैनिको की जो दुर्दशा होती है, अपनी
भी उससे कम न होगी।
-पृष्ठ 17 (ऋषि युग्म का उदबोधन)अंकुश
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