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साधना में उन्नति एवम् मार्गदर्शन के लिए हमारी नयी पुस्तक साधना समर पढ़ें | मार्च के ब्लॉग से इस पुस्तक की pdf download कर सकते हैं|
समय की आवश्यकता ऐसे महान व्याक्तियों की है, जो स्वार्थ संकीर्णता की कीचड़ में से थोड़े ऊँचे उठकर देश, धर्म, समाज और संस्कृति के पुनरुत्थान में अपनी विभूतियाँ नियोजित कर सकते। ऐसी आत्माएँ अपने बीच भरी पड़ी है, अगणित नर-केसरी प्रचुर प्रतिभा और क्षमता के आगार हैं। उनकी गरिमा यदि इसी दिशा में चल पड़ी होती तो न जाने कितने गजब भरे प्रतिफल सामने आए होते, पर दुर्भाग्य इतना ही है कि धन का लालच, वासना का प्रलोभन और यश-लिप्सा का व्यामोह छोड़ सकने, घटा सकने का मनोबल उपलब्ध कर सकना, इन तुच्छ दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त कर सकना उनके लिए संभव न हो सका।
आवश्यकता इस बात की है कि प्रबुद्ध आत्माएँ अपनी मूच्र्छा त्यागें और महामानव जीवन के स्वरूप, लक्ष्य, प्रयोजन, कत्र्तव्य एवं उत्तरदायित्व के संबंध में गंभीर चिंतन करने के लिए तत्पर हों। इस प्रकार का चिंतन उन्हें एक ही निष्कर्ष पर ले पहुँचेगा कि भेड़-बकरियों जैसा, कीट-पतंगों जैसा पेट और प्रजनन के लिए जिया जाने वाला जीवन उनके लिए अनुपयुक्त है, भले ही उसी घृणित स्तर की जिंदगी सारा जमाना जी रहा हो।
अपना महान इतिहास ऐसे ही नर-नारायणों के कर्तृत्वों की यशगाथा गाता है। उस गौरव-गाथा की आधारशिला अब लुप्त और समाप्त हो गई हो तो यही मानना होगा कि देवत्व का अंश-वंश अब समाप्त हो गया और हम लोग श्वान, श्रृगाल जैसी शिश्नोदरपरायण निरुद्देश्य जीवन-पद्धति का वरण करके नर-पशुओं की जाति-वृद्धि ही कर पा रहे हैं।
उत्कृष्टता के लिए कुछ उत्सर्ग करने की महत्त्वाकांक्षा सो जाए तो समझना चाहिए कि मनुष्य मर गया। साँस तो लुहार की धौकनी भी लेती है, अन्न का चर्वण तो चक्की भी करती है, प्रजनन तो दीपक भी करता है और स्वाद के लिए मक्खियाँ भी दौड़-धूप करती रहती हैं। क्या इतना ही कर्तृत्व मनुष्य का होना चाहिए। मावन जीवन का लेखा-जोखा लेते समय उसकी वंश-वृद्धि और जमाखोरी, एयाशी, ऐंठ-अकड़, धूर्तता-विलासिता जैसी निकृष्ट प्रक्रियाएँ ही गिनी जा सकीं तो समझना चाहिए बेचारा अभागा प्राणी, नर तन की गरिमा को नष्ट और कलंकत कर डालने का ही निमित्त बना।
जीवन के सदुपयोग का प्रश्न सर्वोपरि और सर्वप्रथम है, पेट ही सब कुछ नहीं होना चाहिए चूँकि लोग ओछा जीवन जीते हैं इसलिए अपने को भी इनका अनुकरण करने के लिए अंधानुयायी नहीं बनना चाहिए। भगवान ने जो स्वतंत्र चिंतन की बुद्धि और प्रतिभा दी है, उसका उपयोग करना चाहिए।
समाज के हम अविच्छिन्न अंग हैं। हमारी जिम्मेदारी शरीर-परिवार तक सीमित नहीं वरन सुविस्तृत जन-समाज तक व्यापक है। पड़ोस की अवांछनीय हलचलें किसी न किसी प्रकार अपने को, अपने परिवार को प्रभावित करेंगी और हानिकारक सिद्ध होंगी। सामाजिक विभाषिकाओं का हमें सामना ही करना चाहिए और उन्हें रोकने के लिए कुछ न कुछ करना ही चाहिए। स्वार्थी मनुष्य सोचता भर है कि मैं बहुत लाभ में रहूँगा पर वस्तुतः वह रहता अत्यधिक घाटे में है।Please click here to download the Jeevan sangarsh book in pdf form
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