हमने परम पूज्य गुरुदेव के जीवन के तीन
महत्वपूर्ण संकेतों की ओर र्इशारा किया था। इसमें एक संकेत है पूज्य गुरुदेव मात्र
सन् 2000 तक ही समयदान माँगते थे। सम्भवत: वह
युग निर्माण के तीन चरणों में से प्रथम प्रचारात्मक अभियान को 2000 से
आगे अपनी उर्जा नहीं देना चाहते थे। यह थोड़ा पैचीदा रहस्य है दिव्य सत्ताँए
अभियानो (events) को अपनी उर्जा देती है। इसके बाद वह
कार्य स्वत: चलता है देवसताओं के सहयोगियो
को फिर उस दिशा में जोर नहीं लगाना होता। जो कार्य हो रहा है अथवा जो कर रहा है
अपने अनुभवों के आधार पर उनका मार्गदर्शन करना होता है।
सन् 2000 के पश्चात् हमें अपनी दिशाधारा को मोड़ना चाहिए था। ऐसे एक या सवा
लाख लोग चुनने थे जिनको साधना के द्वारा हीरों के हार की श्रेणी में रखा जा सके।
इनके लिए विशेष रुप से मिशन में स्थान होना चाहिए था। गुरूदेव के करीबी लोगों (
जैसे श्री मती कुसुम लता बहन जी, जिनको
हम पटियाला वाली माता जी बोलते थे व अक्सर कुरूक्षेत्रा आती थी) के मुख से हमने
सुना है कि गुरूदेव कभी-2 अपने माथे पर हाथ मारते थे कि गुड़
गोबर एक हो रहा है न खाने लायक न निगलने लायक।
हीरों के हार का चयन न होने के कारण आज
मिशन में गुड गोबर एक होने की स्थिति आ गयी है। अधिकतर जगहो पर चाजलूसों व चम्मचों
का राज है। जो मिशन के लिए कुछ करना चाहते है, खपना
चाहते है उनके बारे में यह माना जाता है कि ये कुछ नहीं करते। व जो कुछ नहीं करते
मात्र पदाधिकारियों को सुबह शाम बढ़िया सलाम ठोकने के लिए वक्त जरुर निकाल लेते है
व पदाधिकारियों की प्रंशसा में कुछ अच्छे वाक्य या बोल अवश्य तैयार करते है वो
श्रेष्ठ समझे जाते है।
(मेरा यह विनम्र निवेदन है कि मैं कभी
किसी व्यक्ति विशेष पर व्यंग्य नहीं करता, मात्र
मिशनो की चरमराते ढाँचों को देखकर व उनके आधार स्तम्भों की त्याग तपस्या को देखकर
मुझे बड़ी वेदना होती है,
इस कारण मैं अपने अनुभव (Perception) के आधार पर कारण व निवारण खोजता हूँ।)
सन् 2000 के पश्चात् सवा लाख लोगों के एक वर्ग का चयन अवश्य किया जाना चाहिए
था। उनके लिए शर्त यही रखी जाती कि वो अपनी प्रतिभा का कम से कम आधा हिस्सा भगवान
के लिए व शेष अपनी पारिवारिक दायित्वों को निर्वाह के लिए लगाँए। ऐसे सुपात्रो को
उच्च स्तरीय साधना के लिए प्रेरित कर उनको साधना समर की चुनौतियों व समाधान से
अवगत कराया जाना चाहिए था। ऐसे व्यक्ति ‘‘ विश्वामित्र
‘‘ की भूमिका की ओर अग्रसर हो सकते है। इनमें
से प्रत्येक तीन वर्ष का गायत्री का म्हापुरुश्चर्ण सम्पन्न करें।
मिशन के head quarters पर उनके लिए उपयूक्त सुविधाँए प्रदान
की जाँए जिससे वो अपनी साधनाएँ निविघ्न पूरी कर सकें। व्यक्ति की साधना जैसे ही एक
स्तर से अधिक उठती हैं तो उसमें सावधानी की बड़ी आवश्यकता होने लगती है। सामान्यत:
परिवार व समाज उनको न तो समझ पाता है न हि सहयोग करता है। वो बेचारे मारे-2 रुलते फिरते हैं।
उनकी दयनीय दशा देखकर गुरू सत्ता के वो
बोल याद आते है। बीजों को बिखेर पछताना न पड़ें
जब मिशनो के संस्थापक शरीर छोड़ जाते
है तो अधिकतर मिशनों में बहुत तरह की समस्याँए पनपने लगती हैं।
उनमें से कुछ का विवरण निम्न है-
1- मिशन जातिवाद के शिकार होने लगते है मात्र एक जाति विशेष के लोगों का
बाहुल्य विशेषकर उच्च पदों पर स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगता है।
2- मिशन वंशवाद के शिकार होने लगते है। एक सत्ता अपनी संतानों को अपना
उतराधिकारी घोषित करती है। अपने गुरुदेव पूर्व जन्मों से ही इसके विरोधी रहे है।
कबीर से समय उन्होंने अपने बेटे को उत्तराधिकारी नहीं बनाया। समर्थ गुरु रामदास व
स्वामी रामकृष्ण परमंहस ने भी अपने किसी रिश्तेदार अथवा वंशज को अपना उत्तराधिकारी
नहीं बनाया। गुरुदेव श्री राम जी भी अन्तिम संदेश में स्पष्ट कर गए कि कोर्इ भी
उनके उत्तराधिकारी बनने के लायक नही है अत: आँख मूँद कर किसी पर भी श्रृद्धा न की
जाय ।
3- अधिकतर मिशनों में बहुत वृद्ध (aged persons) पदो के चिपक जाते हैं लोगों को आश्रम व्यवस्था पालन करने के लिए कहते
है परन्तु स्वंय नहीं करते। आज व्यक्ति की औसत आयु 80 वर्ष है ब्रह्मचर्य आश्रम 20
वर्ष, गृहस्थ 20 से 40 वर्ष, वानप्रस्थ 40 से 60 वर्ष, व सन्यास 60 से 80 वर्ष।
20 वर्ष के पश्चात आज युवा पीढ़ी गृहस्थ
आश्रम वाले मोड पर आ जाती है। लड़के लडकियो में घनिष्ठता बढ़ती है ईश्कबाजी चलती
है व एक दूसरे को जीवनसाथी के रुप में चयन के सपने बनने प्रारम्भ हो जाते है। भोग
विलास की ओर उनका रुझान बढ़ने लगता है।
40 वर्ष के उरान्त विपरीत लिंग के प्रति
आकर्षण मंद होने लगता है क्योकि शारीरिक शक्ति कम होती जाती है। यह वानप्रस्थ है
कि भोग विलास से उपर होकर त्याग तपोमय जीवन जिया जाए।
ऐसे phase में व्यक्ति को सामाजिक, धार्मिक
पदो पर शोभामान होकर जनकल्याण के कार्यो का नेतृत्व करना चाहिए। वानप्रस्थ आश्रम
में व्यक्ति को परिव्रज्या करनी चाहिए व विभिन्न आध्यात्मिक अभियानो में रूचि
दिखानी चाहिए। 60 वर्ष के उपरान्त व्यक्ति में दुर्बलता
आने लगती है। अत: उसको महत्वपूर्ण पदो को त्यागने का विचार करना चाहिए।
एकान्त साधना व सरलता से होने वाले
कार्यो में रुचि लेनी चाहिए। अच्छे व्यक्तियों की खोज कर उन्हें जिम्मेदारियाँ व
पद सोपने चाहिए।
जबकि स्थिति यह है कि अधिकतर मन्दिरों, केन्द्रो पर वृद्ध कुर्सियों से बुरी
तरह चिपके पडे हैं हालत यह है कि “प्राण
जार्इ पर कुर्सी न जार्इ”
जब बड़े-2 आध्यात्मिक मिशनों में व्यक्ति पद
प्रतिष्ठा की होड़ों में शामिल है तो फिर सामान्य जन ही कैसे इन सब चीजों से अपना
बचाव कर सकता हैं।
4- प्रत्येक पद Rotation
पर होना चाहिए। एक जगह रुका पानी सड़ता
है। व्यक्ति के भीतर कोर्इ न कोर्इ कमी होना स्वाभविक है। उस कमी का लाभ उठाकर
स्वार्थी तत्व अपना अड्डा बनाने लगते है।
यदि हमने एक सुनिश्चित योजना के
अंतर्गत मिशन की गतिविधियों को आगें नही बढ़ाया तो लोगों एवं विश्लेषको(Analysts) को यह कहते देर न लगेगी कि गायत्री
परिवार बिल्कुल उन बादलो की तरह है जो गरजे तो खूब, बिजली भी जोर से चमके लेकिन पानी कुछ न बरसे। अथवा हल्की बूदाँ बाँदी
ही कर पाए।
तीन संकेत
1- हमने जीवन त्याग तितिक्षा तप में सतत गलाया और जीवन के ब्रहाकमल को
पूरी तरह खिलाया।
2- 2000 तक ही समयदान क्यों?
3- 2011 जन्म शताब्दी समारोह एक फलाप शो।
4- सन् 1991 से देव स्थापना कार्यक्रम हो रहा है
तो देव आत्माँए अपने असली स्वरुप को क्यों नहीं ग्रहण कर रही है
5- गुरुदेव सन् 2000 तक सूक्ष्म शरीर व तत्पश्चात कारण में
रहेंगें। इसमें क्या अन्तर है?
सन् 2011 का फलाप शो हमें यह आत्मचिंतन का मजबूर करता है कि हमारा ढ़ाँचा उपर
से कितना भी विशाल होता जा रहा हो, कितना
भी सुंदर दिखता हो, परंतु उसमें कोर्इ घुन तो नहीं लग गया
है जो कि भीतर से उसको खोखला करता चला जा रहा है। यह घुन किसी भी रुप में लग सकता
है जैसे लोगों में सदभावना समाप्त होकर ईर्ष्या, द्वेष बढ़ गया हो, शक्तिपीठ
महत्वकाँक्षी व धनवानों के हाथो की कठपुतली बन जाएं व सच्चे त्यागी तपस्वियों को
वहाँ से भगाया जाए।
यदि इसको रोका न गया, सम्भाला न गया तो अन्य मिशनों कि तरह
यह ढ़ाँचा भी चरमरा कर गिर सकता है। रामकृष्ण मिशन व ब्रहम समाज किसी समय में बहुत
सक्रिय थे परंतु आज उनकी दयनीय दशा किसी से छिपी नहीं है। दुनियाँ को उज्जवल
भविष्य देने का वायदा करने वाला अपना मिशन अंहकारियों व महत्वाकाक्षियों का अडडा न
बन जाए इसके लिए हम सबको सचेत रहना नितान्त अनिवार्य है। इस मिशन की सचांलक गुरु
सत्ता व हिमालय की देव सताँए हम सबको जीवन्त बनाएँ,जागरुक बनाँए,
समर्थ बनाँए व समर्पित होकर हम एक महान
योजना को सरंजाम दे सकें मात्र यही हमारी प्रार्थना है।
यह पुस्तक उन युग सैनिको एवं
प्रज्ञापुत्रों के लिए लिखी गयी है जो देवात्मा हिमालय के ‘‘21वी सदी उज्जवल भविष्य’’ के मिशन को अपने लहु से सीचना चाहते
है। आत्ममंथन एवं चिंतन के आधार पर समर्पण से आत्मदान तक की यात्रा पूरी करना
चाहते है, ऋषि दधीचि के समान जो अपनी अस्थियाँ
भगवान के कार्य के लिए दान करना चाहते है, धरती
पर देवत्व के अवतरण के इस महान यज्ञ में अपने जीवन की आहुति देने के लिए जिनका
हृदय मचलता है। जिनकी आत्मा मानव जीवन की नश्वरता का बोध कर चुकी है व इस क्षण
भंगुर जीवन में आत्म ज्ञान- ब्रहाज्ञान के सर्वोच्य लक्ष्य पाने के लिए प्राणपण से
कटिबद्ध है ऐसी महान आत्माएँ ही ब्रहाकमल के रूप में खिल सकेंगी व भविष्य में
विश्वामित्र की भूमिका निभा सकेंगी।
बड़े अच्छे एवं उच्च उदेश्यों लेकर
बढने वाले मिशन कर्इ बार व्याभिचार के अडडे बन जाते है। पदाधिकारियों के पास
महिलाओं का बड़ी सख्ंया में आना प्रारम्भ होने लगता है। कुछ महिलाएँ जरुरत से
ज्यादा घनिष्ठता बढ़ाना प्रारम्भ कर देती है। यदि दुर्भागयवश किसी पदाधिकारी का
पैर फिसल जाए तो उसके देखा देखी अनेक लोग वैसा करना प्रारम्भ कर देते है। बौद्ध
मिशन बड़े वेग से अपने त्याग तपोमय उच्च स्वरूप को लेकर आगे बढ़ा। लेकिन जैसे-2 बौद्ध मठो में महिलाओं का हस्तक्षेप
बढ़ा तो बौद्ध मिशनों में वासना का नंगा नाच प्रारम्भ हो गया। गुरूदेव 24 देवकन्याओं के द्वारा अखण्ड जप
का क्रम बनाए हुए थे। इनमें से कुछ वहाँ
आने वाले युवाओ से घनिष्ठता बढ़ाने लगी। गुरूदेव को जैसे ही इसका भान हुआ उन्होंने
इन सभी का विवाह करा दिया।
मिशनों में लोक सेवी वर्ग महिलाओं से न
तो घनिष्ठता बढ़ाए न ही एकांत में मिलें।
महिलाओं को कहा जाए कि वो अपने भार्इ, बहन, पिता, पति को साथ लेकर आए।
बहुत से साधक बड़े लम्बे समय तक
महिलाओं से पवित्रता पूर्वक सम्बन्ध बनाए रखने में सफल होते है परंतु लोक सेवी यदि
कुछ मर्यादाओं का पालन करे तो अच्छा ही रहेगा। इससे समाज में एक अच्छा संदेश ही
जाएगा।
काजल की कोठरी में कितने ही सयाने जाए
एक लीक काजल की लागी ही जाए। किसी ने सत्य ही कहा है- इसी प्रकार सत्ता का नशा भी
छाने का पूरा मान रहता है इसलिए पदो पर आत्मकल्याण की साधना करने वालो को पदो पर अधिक समय तक नहीं बने रहना
चाहिए।
राखाल महाशय (स्वामी ब्रह्मनंद) ने
परम्परा बनायी थी कि कोर्इ भी दो वर्ष से अधिक मिशन का अध्यक्ष नहीं बनेगा।
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