‘‘कोई भी काम न तो अपने-आप में अच्छा है न बुरा । उसे जिस भावना से किया जाता है, उसी के अनुसार वह भला-बुरा बन जाता है ।’’ ‘‘पानी रंग रहित है, उसमें जैसा भी रंग डाल दिया जाय, वैसे ही रंग का बन जाता है । इसी
प्रकार समस्त कार्य भावना के अनुसार भले-बुरे बनते हैं । कई बार सदुद्देश्य के
लिये विवेकपूर्वक, सद्भावना के साथ हिंसा,
चोरी, असत्य, छल, व्यभिचार तक बुरे नहीं ठहरते । इसी प्रकार अविवेकपूर्वक या बुरे उद्देश्य से
किये गये सत्कर्म भी बुरें हो जाते हैं । आततायी पर दया करना, हिंसक , वधिक के पूछने पर पशु-पुक्षियों के पता बताने का सत्य बोलना, कुपात्रों को दान देना आदि कार्यों से उलटे पाप लगता है । इसलिये कर्म के
स्थूल रूप पर अधिक ध्यान न देकर उसकी सूक्ष्म गति पर विचार करना चाहिये । व्यापार, कृषि, शिल्प, यु़द्ध, उपदेश आदि को यदि यह सोचकर किया जाये कि इन कार्यों से संसार के सुख-शान्ति
में वृद्धि हो, सात्विकता बढ़े, मेरे कार्य नर-नारायण को प्रसत्र करने वाले और सन्तोष देने वाले हों तो इन
भावनाओं के कारण ही वे साधारण कार्य पुण्यमय, यज्ञ-रुप बन जाते हैं।’’
Sunday, June 23, 2013
स्वामी विवेकानन्द की संशिप्त जीवनी part-2
पश्चिमी क्षितिज पर भारत का ‘ज्ञान सूर्य’
अमेरिका की यात्रा पर निकले स्वामी विवेकानन्द चीन, जापान और कनाडा होते हुए, जुलार्इ 1893 के मध्य में शिकागो पहुँचे । वे जब शिकागों पहुँचे, तब पश्चिम के धन-वैभव की चकाचौंध और अनुसंधान की प्रतिभा ने उन्हें अपनी मातृभूमि में लोगों द्वारा झेले जा रहे कष्टों की याद दिलार्इ । उन्हें ज्ञात हुआ कि, सितम्बर तक सर्वधर्म महासभा नहीं होगी और बिना पहचान-पत्र के उसमें कोर्इ अधिकृत ‘प्रतिनिधि’ नही हो सकता । इस अनजानी जगह में बिना धन के कैसे जियें? वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए, किन्तु अपने-आपको विधाता के हवाले कर बोस्टन चले गए, जो शिकागो से कम महँगा था । गाड़ी में उनकी पहचान श्रीमती कैथरीन सेनबोर्न से हुर्इ । जिन्होंने उन्हें बोस्टन में अपने अतिथि के रूप में आमंत्रित किया। वहाँ उन्हें अपने भोजन के खर्च के लिए संघर्ष करना पड़ा ।इस समय उनके पास र्इश्वरीय सहायता हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रो. जॉन हैनरी राइट के माध्यम से आर्इ । वे स्वामी विवेकानन्द के संपर्क में आए और उनसे अत्यंत प्रभावित हुए । स्वामीजी के संसद में भाग लेने की कठिनार्इ को जानकर उन्होंने कहा, ‘‘स्वामीजी, आपसे आपकी योग्यता का प्रमाण-प्रत्र माँगना, तो सूर्य से उसके चमकने का अधिकार पूछने जैसा है।’’ उन्होंने धर्म संसद के आयोजकों के नाम ये कहते हुए एक परिचय-पत्र लिखा, ‘‘यहाँ एक ऐसा विद्वान व्यक्ति है जिसकी विद्वता हमारे (देश के) सभी ज्ञानवान प्राध्यापकों से भी बढ़कर है।’’ इस पत्र को लेकर स्वामी जी 9 सितम्बर 1893 की शाम को शिकागो वापस आए ।
दुर्भाग्यवश, शिकागो पहुँचकर स्वामी विवेकानन्द ने हताश होकर देखा कि जो आने वाले प्रतिनिधियों का स्वागत व व्यवस्था कर रहे हैं, उस समिति का पता खो गया है । रात भर रेलवे के माल यार्ड में पड़े एक बडे़ बक्से में विश्राम करने के बाद स्वामी जी प्रात: इस उद्देश्य से निकले कि इस संकट में उनकी कोर्इ सहायता कर सके । परन्तु नीग्रो, काला कुत्ता आदि अपमानजनक शब्दों के साथ उनके सामने ही द्वार बन्द कर दिए जाते । काले व्यक्ति को आसानी से सहायता नहीं मिलती थी। निष्फल प्रयासों से थककर चूर सब कुछ र्इश्वरेच्छा पर छोड़ वे सड़क के किनारे बैठ गए । अचानक सामने के भव्य भवन में से एक महिला, उनके पास आर्इ और उन्हें सहायता प्रदान की । ये थीं श्रीमती जॉर्ज डब्ल्यू. हेल, जिनका घर भविष्य में स्वामीजी का अमेरिका में स्थायी पता रहा, क्योंकि हेल परिवार उनका अनुचर भक्त बन गया था ।
धर्म संसद 11 सितम्बर 1893 को प्रारम्भ हुर्इ । आर्ट इंस्टीट्यूट का विशाल सभाकक्ष लगभग 7000 श्रोताओं से खचाखच भरा हुआ था जिसमें विभिन्न देशों के श्रेष्ठतम प्रतिनिधि थे । मंच पर विश्व के कोने-कोने से प्रत्येक संगठित धर्म के प्रतिनिधि उपस्थित थे । स्वामी विवेकानन्द ने कभी इतने विशाल और विशिष्ट जनसमूह को सम्बोधित नहीं किया था । उनको भारी घबराहट का अनुभव हुआ । अपने बारी आने पर उन्होंने मन-ही-मन वाणी की देवी माँ सरस्वती को नमन किया और अपना भाषण इन शब्दों से शुरू किया,
‘‘मेरे अमेरिका निवासी बहनों और भाइयों!’’
तत्काल श्रोतागणों की करतल-ध्वनि की गड़गड़ाहट लगभग दो मिनट तक होती रही । ‘‘सात हज़ार लोग किसी अकल्पनीय तत्व का सम्मान करने खड़े हो गए।’’ स्वामीजी के आàान के ओजस्वी स्वामीजी का प्रभावशाली व्यक्तित्व और उनके तेजस्वी मुखमण्डल से सब इतने प्रभावित थे कि, अगले दिन समाचार-पत्रों में विवरण था कि वे धर्म संसद की महानतम् विभूति हैं । हाथ में कटोरा लिए सरल सा साधु उस समय का नायक बन गया था । अब वह अनजाना संन्यासी नहीं किन्तु विश्व का चहेता शिक्षक था ।
धर्म संसद में स्वामीजी के पहले भाषण ने उन्हें इतनी ख्याति दिलार्इ कि शिकागो के विशिष्ट गणमान्य लोागों ने उन्हें अपने घर आमन्त्रित किया । हर व्यक्ति उनका आतिथेय बनना चाहता था । पहले दिन के सत्र समापन के बाद स्वामीजी को एक करोड़पति के भवन में ले जाकर राजसी स्वागत किया गया । आतिथेय ने स्वामीजी की सुख-सुविधा में कोर्इ कसर नहीं छोड़ी, परन्तु स्वामीजी न तो नाम और ख्याति के भूखे थे, न ही उन्हें भौतिक सुविधा की चाह थी । इसलिए इस ठाठ-बाट, शान-शौकत और अमरीकियों की उत्सफूर्त प्रशंसा से स्वामी जी को बड़ी बेचैनी हुर्इ । वे अपने देशवासियों के कष्टों को भुला नहीं पाए । उनके हृदय में भारत के प्रति वेदना बनी रही और वे ऐशो-आराम वाले बिस्तरों पर सो नहीं सके । उन्होंने प्रार्थना की- ‘‘हे माँ! जब मेरा देश घोर गरीबी में गहरा डूबा हुआ है, तब प्रसिद्धि की चिन्ता कौन करता है? हम भारतीय इतने दरिद्र हैं कि हममें से लाखों तो मुट्ठीभर अनाज के अभाव में ही मर जाते हैं जबकि यहाँ के लोग अपने आराम के लिए पैसा पानी की तरह बहाते हैं । भारतीयों का उत्थान कौन करेगा? और कौन उन्हें खाने को देगा? हे माँ, मुझे बता मैं उनकी सेवा कैसे करूँ?’’
संसद के शेष दिनों में, प्रतिदिन लोग उनको सुनना चाहते थे । 27 सितम्बर के ‘अन्तिम सत्र’ में भी उनका भाषण बड़ा प्रशंसनीय रहा । वास्तव में, उनसे प्रभावित अमरीकियों ने यहाँ तक कहना शुरू कर दिया कि, ‘‘ऐसे विद्वान राष्ट्र में मिशनरी भेजना तो निरी मूर्खता है । वहाँ से तो हमारे देश में धर्मप्रचारक भेजे जाने चाहिएं।’’ वास्तव में शिकागो की धर्म संसद में स्वामीजी की उपस्थिति भारत के पुनरुत्थान के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना रही । श्री अरविन्द कहते है, ‘‘विवेकानन्द का (पश्चिम में) जाना ...विश्व के सामने पहला जीता-जागता संकेत था कि भारत जाग उठा है ... न केवल जीवित रहने के लिए बल्कि विजयी होने के लिए।’’
वे पश्चिम में दिसम्बर 1896 तक रहे, वहाँ उनके कुछ शिष्य बने जिनमें प्रमुख हैं जे.जे.गुडबिन कैप्टेन और श्रीमती सेवियर, मार्गरेट नोबल जो आगे चलकर भगिनी निवेदिता के नाम से प्रसिद्ध हुर्इ और र्इ.टी.स्टर्डी । स्वामीजी अमेरिका में जाने-माने व्यक्ति बन गए थे । इस प्रकार स्वामीजी का कार्य पश्चिम में जड़ पकड़ने लगा था अब उनकी मातृभूमि उन्हें पुकारने लगी और उनका संदेश पाने को आतुर थी ।
विजयोल्लासपूर्ण भव्य वापसी और अद्वितीय स्वागत
पश्चिम में सक्षम लोगों को काम सौंपकर जब स्वामी जी ने सन् 1896 में लन्दन छोड़ा, उसी दिन से वे पूरी तरह भारत के विषय में विचारमग्न हो गए । उन्होंने श्री व श्रीमती सेवियर से कहा, ‘‘अब मेरे सामने एक ही विचार है और वह है भारत । मेरे सामने केवल भारत ही भारत दिखार्इ देता है!’’ स्वामीजी के लौटने के समाचार पहले ही भारत पहुँच चुके थे । देशभर में जगह-जगह लोग अति उत्साह से उनके स्वागत में पलक-पाँवड़े बिछाए बैठे थे । 15 जनवरी 1897 को कोलम्बो का सूर्योदय भारतमाता के पुत्र स्वामी विवेकानन्द के विजयी स्वागत के साथ हुआ । स्वामीजी मद्रास से जलमार्ग द्वारा 20 फरवरी को कोलकाता पहुँचे । उनके पैतृक नगर ने उनका भव्य स्वागत किया । यहाँ उन्होंने अपने गुरु के मर्मस्पश्र्ाी श्रद्धांजलि देते हुए कहा- ‘यदि मैंने विचारों से, शब्दों से या कृत्य से कुछ प्राप्त किया है, यदि मेरे मुख से एक भी ऐसा शब्द निकला है, जिससे विश्व में किसी का कुछ भला हुआ है, तो मैं ढृढ़ता से कहता हँ कि मेरा उसमें कुछ भी नहीं है, सब उन्हीं का है ।"
स्वास्थ्य में एकदम भारी गिरावट आने के कारण मार्च 1897 में स्वामीजी स्वास्थ्य लाभ के लिए दार्जिलिंग चले गए । ‘‘यदि पृथ्वी पर कोर्इ ऐसा देश है, जिसे हम धन्य पुण्यभूमि कह सकते हैं, यदि ऐसा कोर्इ स्थान है, जहाँ पृथ्वी के सब जीवों को अपना कर्मफल भोगने के लिए आना पड़ता है, यदि कोर्इ ऐसा स्थान है जहाँ भगवान् की ओर उन्मुख होने के प्रयत्न में संलग्न रहने वाले जीवमात्र को अन्तत: आना होगा, यदि कोर्इ ऐसा देश है जहाँ मानवजाति की क्षमा, धृति, दया, शुद्धता आदि सद्वृत्तियों का सर्वाधिक विकास हुआ है और ऐसा कोर्इ देश है जहाँ आध्यात्मिकता तथा आत्मान्वेषण का सर्वाधिक विकास हुआ है, तो वह भूमि भारत ही है । अत्यंत प्राचीन काल से ही यहाँ पर भिन्न-भिन्न धर्मों के संस्थापकों ने अवतार लेकर सारे संसार को सत्य की आध्यात्मिक सनातन और पवित्र धारा से बारम्बार प्लावित किया है । यहीं से उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम चारों ओर दार्शनिक ज्ञान की प्रबल धाराएँ प्रवाहित हुर्इ हैं, और यहीं से धारा बहेगी, जो आजकल की पार्थिव सभ्यता को आध्यात्मिक जीवन प्रदान करेगी । विश्वास करो, मेरे मित्रों, यह होकर ही रहेगा । सम्पूर्ण जगत को प्रकाश की आवश्यकता है । यह प्रकाश केवल भारत में ही है ... इसलिए र्इश्वर ने इस जाति को आज तक सभी प्रकार की विपदाओं से सुरक्षित बचा कर रखा है ।"
‘‘हम आलसी हैं, हम काम नहीं कर सकते, हम आपस में जुड़ नहीं पाते, हममें आपस में प्रेमभाव नहीं है, हम बड़े स्वाथ्र्ाी हैं, घृणा और द्वेष के बिना हम कोर्इ तीन भी एक साथ बैठे नहीं सकते ...बहुत-सी बातों में हम तोतारटन्त की तरह बोल तो लेते है, परन्तु उसे क्रियान्वित नहीं करते । कहना, किन्तु करना नहीं यह हमारा स्वभाव बन गया है । धर्म में ही भारत के प्राण हैं, और जब तक हिन्दू जाति अपने पूर्वजों की धरोहर को नहीं भूलती, विश्व की कोर्इ भी शक्ति ऐसी नहीं है जो उसे नष्ट कर सके । जब तक शरीर का रक्त शुद्ध और सशक्त रहता है, उस शरीर में किसी रोग के कीटाणु नहीं रह सकते । हमारे शरीर का रक्त अध्यात्म है । जब तक यह निर्बाध गति से, सशक्त, शुद्ध तथा जीवन्तता से प्रवाहित होता रहेगा, सब कुछ ठीक-ठाक रहेगा, राजनीतिक, सामाजिक और दूसरे कर्इ बड़े दोष, यहाँ तक कि देश की दरिद्रता भी, सब ठीक हो जाएँगे यदि रक्त शुद्ध है । स्वामी विवेकानन्द का आàान इतना शक्तिशाली था कि भारतीय मन में अन्दर तक प्रविष्ट हो गया और शताब्दियों से जमी हुर्इ धूल को झकझोर कर हटा दिया । उसी के परिणाम स्वरूप अनेक आन्दोलन, सेवा-कार्यों का अगली शताब्दी में उदय हुआ । कोलम्बो से अल्मोड़ा की यात्रा में उनके द्वारा दिए गए संदेश राष्ट्रीय कार्य के लिए सदा के लिए प्रेरणादायी बन गए ।
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