Friday, June 7, 2013

science of sex-1

भारतीय परिपेक्ष में ब्रह्मचर्य का ज्ञान विज्ञान
            ब्रह्मचर्य के विषय में हमें दो विरोधी विचार धाराओं का टकराव देखने का मिलता है। एक है पूर्व की धारा जिसको हम भारतीय संस्कृति कहते है व दूसरी है पश्चिम की धारा। हमारी संस्कृति ब्रह्मचर्य पालन पर बहुत जोर देती है व इसको तपो में सर्वात्तम तप कहकर सम्बोधिम करती है। पश्चिम (west) की संस्कृति में इस बात का जोर है कि इन्द्रियों के दमन से मानसिक विकृतियाँ जन्म लेती है अत: व्यक्ति को स्वच्छद जीवन जीना चाहिए। सैक्स (sex) से जीवन में रस आता है व सम्पूर्ण शरीर में एक प्रकार की charging होती है जो वीर्य निकलता है उसकी क्षति कुछ कैल्शियम, पोटोशियम या minerals के द्वारा आसानी से हो जाता है। सैक्स (sex) से व्यक्ति जवान बना रहता है, नही तो life dull होती जाती है। पश्चिम में सिग्मण्ड फ्रायड नामक एक दार्शनिक हुए है जिन्होंने इस दिशा में काफी शोध कार्य किया है। West की theory उन्ही की researchers पर आधारित है।
            नि:सन्देह पश्चिम में भी बहुत अच्छे दार्शनिक व वैज्ञानिक हुए है जिनकी खोजें मानवता के लिए बहुमूल्य रही है। परंतु इन्द्रिय संयम अथवा sexual desires के विषय में जो विचारधारा उन्होंने दिए है उसको गलत नहीं कहा जा सकता हाँ उथली (surface level) अवश्य करार दी जा सकती है। फ्रायड का जहाँ तक प्रश्न है उनका सारा जीवन मनोरोगियों की सेवा में बीता। मानसिक रोगीयों के लिए या अवसाद ग्रस्त लोगों के लिए यह कहा जा सकता है कि वे अपनी इच्छाओं को दबाँए नहीं अपितु उनको पूरी करें इससे उनको शान्ति व प्रसन्नता मिलेगी, दबाव हटेगा। परन्तु इस बात का सर्वसामान्य के लिए लागू करना बहुत बड़ी मूर्खता होगी। यह बात एक उदाहरण से समझी जा सकती है। एक चिकित्सक के पास दमे के, खाँसी के, न्योमोनिया के मरीज आते थे। पता चला कि ठण्डे पानी से नहाए तो दमा बढ़ गया। सर्दियों में प्रात: भ्रमण किया तो ठण्ड लगने से बीमार हो गए। डाक्टर साहब ने सामूहिक घोषणा करना प्रारम्भ कर दिया कि शीतल जल से स्नान हानिकारक है। प्रात: ठण्डी हवा में भ्रमण करना भी लाभदायक नहीं है। इससे जन सामान्य में शीतल जल से स्नान से होने लाभो से वंचित रहना पड़ जाएगा। यदि पाँच सात कमजोर पाचन वालों को घी से गैस बन गयी तो क्या घी समाज के लिए खतरा हो जाएगा?
            इसी प्रकार फ्रायड को आधार मानकर जो लोग चल रहे है वो समाज को कितना नुक्सान कर रहे है यह वो नहीं जानते फ्रायड की सोच केवल मनोरोगियों तक सीमित थी। सर्वसामान्य यदि उसको अपनाएगा तो ब्रह्मचर्य के लाभों से वंचित रह जाएगा। फ्रायड के समकालीन एक और दार्शनिक हुए है उनका नाम था कार्ल जुंग वो अतिन्द्रिय क्षमता सम्पन महामानव थे। एक बार वो फ्रायड से मिले व उनको बताया कि उन्होंने सदा इन्द्रिय सयंम किया है और इससे उनको प्रचण्ड आत्मबल प्राप्त हुआ है। जुंग की चमत्कारिक शक्तियों को देखकर फ्रायड दंग रह गए और अपनी हार स्वीकार कर ली। अंत में उन्होंने घोषणा की कि उनकी सारी खोंजे जुंग साहब की क्षमताओं के आगे बेकार व इन्हें न स्वीकार किया जाए।
            परंतु समाज उसको पसन्द करता है जो उसकी इच्छा के अनुसार बोलता व लिखता है। उस देवता को पसन्द करता है जो उसकी मनोकामनाओं की पूर्ति करता है उसको नहीं जो उसके गलत कर्मो का दण्ड तुरन्त उसको दे। समाज की इसी सोच का लाभ उठाकर कुछ चालाक लोग अपने स्थलों में वेश्यावृति कराते है व उसके उपर धर्म कर्म अथवा समाधि तंत्र अथवा गुह्म साधनाओं का मुलम्मा लपेटते है। ऐसे लोगों को तात्कालिक प्रसिद्धि तो मिलती है ‘‘ स्वार्थी गूरू और लोभी चेला , दोनों नरक में ठेलम ठेला ’’। अन्त गुरू व चेलो दोनों का भयावह होता हैं। इसी प्रकार फ्रायड व जुंग दोनों समकालिक दार्शनिक हुए है। लोग फ्रायड के भक्त अधिक है जुंग के न के बराबर जबकि जुंग अत्याधिक तेजस्वी व्यक्ति व उच्च क्षमताओं से युक्त थे। लोगों को अपनी बालत ढग से वासनापूर्ति के लिए व अपने बचाव के लिए फ्रायड जैसा दार्शनिक चाहिए, भले ही हो वो जीवन के उतरार्ध में जुंग से प्रभावित होकर यह कह गए हो कि उसकी विचार धारा में बहुत खामियाँ रह गर्इ है।
            इतिहास गवाह है कि जिस-जिस समाज में वासना व कामुकता का नंगा नाच होना प्रारम्भ हुआ व समाज बरबाद हो गया। अनेक राजा व उनके वंशज शराब कबाब के कारण मिट गए। नंदवंश अपने समय का अत्यंत शक्तिशाली सम्राज्य था परंतु अपनी भोग विलासिता की वुति के कारण खोखला होता गया। चंद्रगुप्त व चाणक्य ने मुठठी भर लोगों को साथ लेकर नंद वंश का समाप्त कर दिया। अनेक मुगल व रोमन सम्राट अपनी इसी वृति के कारण नष्ट हो गए। अत: यह वकालत करना कि व्यक्ति या समाज इन विषयों में संयम छोंड़कर स्वच्छंद अथवा उन्मुक्त विचरण करें एवं धीरे-धीरे वह समाधि भी पा जाएगा, बड़ा घातक भी सिद्ध हो सकता है। मक्खी चासनी पर किनारे बैठे तो स्वाद ले सकती है परंतु यदि लोभवश भीतर घुस जाए तो प्राण ही गंवाने पड़ते हैं। इसलिए जो लोग भारत में पश्चिम की विचारधारा की वकालत करते है वो अपने स्वार्थो की लिए भारतीय समाज को प्राणहीन कर रहें हैं। पश्चिम की जलवायु ठण्डी है व चेतना की स्थिति कम संवेदनशील हैं। वो लोग इस तरह की विचाराधारा में भी survive कर पा रहे है। यदि गर्म जलवायु में यह विष घोला तो अनेक अफ्रिकन देशों की तरह भारत भी विनाश के कगार पर आ खड़ा होगा। भारत में लोगों की चेतना अधिक संवेदनशील हैं जैसे रामकृष्ण परमहंस यदि पैसे हाथ में ले लेते थे तो उनका हाथ टेढ़ा होने लगता था। संवेदनशील चेतना पर वासना के हावी होन का खतरा अधिक रहता है। इसको समझने का बड़ा सरल तर्क है कुत्ते को, गाय को कभी संयम करने की जरूरत नहीं पड़ती, मानव को क्यों पड़ती है? चेतना जितनी विकसित होती है उतनी संवेदनशील होती चली जाती है। मानवीय चेतना की विभिन्न प्रकार की हो सकती है। संवेदनशील चेतना या तो देवत्व का वरण करेगी जब उर्ध्वमुखी होगी अन्यथा यदि नीच प्रवृत्तियों के सम्पर्क में आ गयी तो अनेक समस्याएँ उत्पन्न होगी। उदाहरण के लिए रामबोला व बिल्वमंगल की चेतना संवदेनशील थी। रामबोला अपनी पत्नी के मोह में इतने अन्धे थे कि एक दिन भी उसके बिना नहीं रह सकते थे। जब उनकी पत्नी मायके गयी तो रात्रि में वो उसका वियोग सह न सके। शव पर बठैकर रात्रि में नदी पार की, साँप को सस्सी समझकर घर की दीवार फाँदी व पत्नी के पास पँहुचे। इतनी अंधेरी रात में पति को अपने पास देखकर पत्नी ने धिक्कारा ‘‘ मेरे हाड माँस, चमड़े के शरीर से तुम्हारी जैसी प्रीति है, काश वैसी प्रीति श्री राम से होती तो हम सबका उद्धार हो गया होता ’’  रामबोला की चेतना को यह शब्द तीर की तरह घुम गए अपनी चेतना का प्रभु श्री राम की ओर मोड़ना प्रारम्भ किया तो गौस्वामी तुलसीदास बन गए। बिल्वमंगल एक महिला के सौंदर्य पर मोहित थे बार-बार उनका मन उसकी तरफ दौड़ता था महिला यद्यपि विवाहित थी उसके पति बहुत ही समझदार व्यक्ति थे जो बड़े विवेक से परिस्थिति का सामना कर रहे थे। एक बार पति-पत्नी दोनों ने मिलकर उनको बहुत समझाया कि वो व्यर्थ में अपना जीवन नष्ट कर रहे है उनको भारी पश्चताप करना पड़े ‘‘न माया मिली न राम’’ वाली हालत उनकी होगी अत: वो कोर्इ और रास्ता चुनें। या फिर प्रभु की शरण में चले जाए या फिर कहीं ओर विवाह करे। परंतु बिल्वमंगल की चेतना तो उस औरत की ओर बुरी तरह आसक्त थी समझ सब कुछ आता था परंतु नेत्र उस औरत को ही ढुढ़ते थ व उसके लिए ही तड़पते थे। एक बार तो अति हो गयी उनके भीतर कोहराम मच गया विवेक व मन दोनों में संग्राम छिड़ गया उसके रस्साकस्सी में बिल्वमंगल ने आवेश में आकर सुआ उठाया और दोनों नेत्र फोड डालें। तत्पश्चात् कृष्ण भक्ति में लीन हो गए सूरदास के नाम से भाव भरे गीत आज भी प्रसिद्ध है। कहते है कि एक बार वो कुएं में गिरे कृष्ण-2 चिल्लाने लगे। श्री कृष्ण आए कुँए से निकाला, दृष्टि प्रदान की व वरदान माँगने का कहा। सूरदास जी ने कहा कि जिन नेत्रों से मैंने आपके दर्शन किए वो किसी और को न देखें। पुन: नेत्र खो दिए।
            और उदाहरण दे तो बुद्ध की चेतना संवेदनशील थी। राजमहल में आराम से रहते थे परंतु रोगी, वृद्ध व मृतक का देखकर आत्मा ने जीवन का उद्देश्य खोजना प्रारम्भ कर दिया। इतना परेशान हुए कि राजपाट, बीवी-बच्चा सब छोड़कर भागे जंगल की ओर। जब बोधिसत्व की प्राप्ति हुर्इ तो आन्दमय हो गए। उनके सम्पर्क में जो भी आता एक आपार आन्नद का अनुभव करता व जैसे गुड़ पर मक्खियाँ चिपकती वैसे ही उनसे चिपक जाते।

No comments:

Post a Comment