उत्साह-सबसे बड़ा बल
क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ
नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं
त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।
(अध्याय: 2-श्लोक: 3)
‘‘अनुचित नपुंसकता तुम्हें हे पार्थ!
इसमें मत पड़ो।
यह क्षुद्र कायरता परन्तप! छोड़ कर आगे
बढ़ो।।’’
अर्थ: हे अर्जुन! नपुंसकता को मत
प्राप्त हो, तुझे यह शोभ नहीं देती। हे शत्रुओं को
संताप (पीड़ा) पहुंचाने वाले अपने मन की तुच्छ दुर्बलता को छोड़ कर युद्ध के लिए
खड़ा हो जा।
धैर्य और सहनशीलता
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्ण
सुखदु:खदा:।
आगमापायिनोSनित्यांस्तितिक्षस्व भारत।।
(अध्याय: 2-श्लोक: 14)
शीतोष्ण या सुख-दुख-प्रद कौन्तेय!
इन्द्रिय भोग हैं।
आते व जाते हैं सहो, सब नाशवत संयोग हैं।।
अर्थ: हे कुन्तीपुत्र! सर्दी-गर्मी और
सुख-दुख तो इंद्रियों के (अपने) विषयों के संयोग से उत्पन्न होते हैं। उनका आदि
एवं अंत होता है तथा वे अस्थायी होते हैं। हे भरतवंशी (अर्जुन) उन्हें
(धैर्यपूर्वक) सहन कर।
कर्म में लीन होने से ही सफलता
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोSस्त्व कर्मणि।।
(अध्याय: 2-श्लोक: 47)
‘‘अधिकार केवल कर्म करने का, नहीं फल में कभी
होना न तू फल हेतु भी, मत छोड़ देना कर्म भी।।’’
अर्थ: तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। (इसलिए) तू
कर्मो के फलका कारण मत हो और तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।
आत्मसंयम-सफलता के लिए आवश्यक
रागद्वेष वियुक्तैस्तु
विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा
प्रसादमध्गिच्छति।।
(अध्याय: 2-श्लोक: 64)
‘‘पर राग द्वेष-विहीन सारी इन्द्रियां
आधीन कर।
फिर भोग करके भी विषय, रहता सदैव प्रसन्न नर।।’’,
अर्थ: परन्तु स्वाधीन अन्त:करण वाला
(आत्मसंयमी साध्क) प्रेम तथा ईर्ष्या से रहित और अपने वश में की हुर्इ इंद्रियों
द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ (अर्थात् विषयों को भोगता हुआ भी) आंतरिक
प्रसन्नता को प्राप्त होता है।
उदाहरण द्वारा नेतृत्व
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
(अध्याय: 3-श्लोक: 21)
‘‘जो कार्य करता श्रेष्ठ जन करते वही हैं
और भी।
उनके प्रमाणित-पंथ पर ही पैर ध्ररते
हैं सभी’’।।
अर्थ: महापुरुष (ज्ञानी व्यक्ति)
जैसा-जैसा आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करते हैं।
वह जो सिद्धान्त रूप में प्रतिपादित कर देता है, समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है।
उपद्रव में उभरता है नेतृत्व
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्तुत्थानमधर्मस्य तदात्मानं
सृजाम्यहम्।।
(अध्याय: 4-श्लोक: 7)
‘‘जब-जब धर्म की हानि होती और बढ़ता पाप
ही।
तब-तब सदा मैं धरता अवतार भारत! आप
ही।।’’
अर्थ: जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की
वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप (रूप) को रचता
हूं (साकार रूप में लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं)।
न्याय की स्थापना
परित्राणाय साधुनां विनाशाय च
दुष्कृताम्।
ध्र्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे
युगे।।
(अध्याय: 4-श्लोक: 8)
‘‘उद्धार करने साधुओं का, दुष्टजन संहार हित।
होता प्रकट में नित्य युग-युग, धर्म के विस्तार हित।।’’
अर्थ: साधु पुरुषों (सज्जन-महात्माओं)
की रक्षा करने के लिए, दूषित (पाप) कर्म करने वालों का विनाश
करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग (प्रत्येक
युग) में प्रकट हुआ करता हूँ।
सीखना-आत्मविकास की प्रक्रिया
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन
सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं
ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:।।
(अध्याय: 4-श्लोक: 34)
‘‘सेवा विनय प्रणिपात पूर्वक प्रश्न पूछो
ध्यान से।
उपदेश देंगे ज्ञान का तब तत्वदर्शी
ज्ञान से।।’’
अर्थ: इसलिये तू ब्रह्मनिष्ठ आचार्यो
के पास जा और श्रद्धापूर्वक प्रणाम करके, सरल
भाव से प्रश्न करके, सेवा द्वारा उस ज्ञान को भलीभांति समझ।
तेरे आचरण से संतुष्ट होकर वे परम होकर वे परम तत्व को जानने वाले तुझे उसका उपदेश
करेंगे।
उदेद्श्य की स्पष्टता
श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्पर:
संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधि
गच्छति।।
(अध्याय: 4-श्लोक: 39)
‘‘जो कर्म तत्पर है जितेन्द्रिय और
श्रद्धावान है।
वह प्राप्त करके ज्ञान पाता शीघ्र
शान्ति महान है।।’’
अर्थ: श्रद्धायुक्त, साधनपराण और जितेन्द्रिय (व्यक्ति)
तत्त्वज्ञान को प्राप्त करता है। तत्त्वज्ञान को प्राप्त कर वह बिना विलम्ब के
परमशान्ति को प्राप्त हो जाता है।
संशय रहित निश्चय
तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं
ज्ञानसिनात्मन:।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठि
भारत।।
(अध्याय: 4-श्लोक: 42)
‘‘अज्ञान से जो भ्रम हृदय में, काट ज्ञान कृपान से।
अर्जुन खड़ा हो युद्ध कर, हो योग आश्रित ज्ञान से।।’’
अर्थ: तू अज्ञान से उत्पन्न, हृदय में स्थित अपने इस संशय को विवेक
ज्ञान रूप तलवार से काट करके (दूर करके) समत्व रूप कर्मयोग की शरण में आ जा और फिर
युद्ध के लिए खड़ा हो जा।
सर्वश्रेष्ठ मित्र
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव हृयात्मनो बन्धुरात्मैव
रिपुरात्मन:।।
(अध्याय: 5-श्लोक: 17)
‘‘तन्निष्ठ तत्पर जो उसी में, बुद्धि मन ध्रते वहीं।
वे ज्ञान से निष्पाप होकर जन्म फिर
लेते नहीं।।’’
अर्थ: उसका (र्इश्वर का) ध्यान करने
वाले, उसका सतत मनन करने वाले तथा उसी में
अनवरत रत रहने वाले, ज्ञान के द्वारा विनष्टपाप होकर, ऐसे पद को चले जाते हैं जहां से फिर
लौटना नहीं होता।
सभी का कल्याण
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना:
पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं
वहाम्यहम्।।
(अध्याय: 9-श्लोक: 22)
‘‘जो मन मुझे भजते अनन्य-भावापन्न हो।
उनका स्वंय मैं ही चलाता योग-क्षेम
प्रसन्न हो।।’’
अर्थ: जो अनन्त भाव से (मुझमें) स्थित
हुए भक्तजन मुझ (परमेश्वर) को निरन्तर चिंतन करते हुए, भजते हैं उनके योग तथा क्षेम
(कुशल-मंगल) का दायित्व स्वयम् मैं निभाता हूं।
सहयोगियों के प्रति प्रेम
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं
पर्युपासते।
श्रद्धधाना मत्परमा भक्तास्तेSतीव मे प्रिया:।।
(अध्याय: 12-श्लोक: 20)
‘‘जो मत्परायण इस अमृतमय धर्म में
अनुरक्त हैं।
वे नित्य श्रद्धावान् जन मेरे परम
प्रिय भक्त हैं।।’’
अर्थ: श्रद्धायुक्त तथा मुझे (ही)
परमलक्ष्य मानने वाले जो भक्तजन इस धर्ममय अमृत (उपदेश) का, जैसे (ऊपर) कहा गया है, (वैसे ही), पूरी तरह सेवन (पालन) करते हैं, वे निस्सन्देह मुझे बहुत ही प्रिय हैं।
निर्णय की स्वतंत्रता
इति ते ज्ञानमाख्यांत गुहृयोद्गुहृयतंर
मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।
(अध्याय: 18-श्लोक: 63)
‘‘तुझसे कहा अतिगुप्त ज्ञान समस्त यह
विस्तार से।
जिस भांति जो चाहे वही कर पार्थ! पूर्ण
विचार से।।’’
अर्थ: इस प्रकार यह गोपनीय से भी अधिक
गोपनीय ज्ञान मुझसे तेरे लिए कहा गया है। अब इसको सम्पूर्णतया भलीभांति विचार करके
तू जैसा चाहता है वैसे ही कर।
एक आदर्श व्यक्ति अपने अनुयायियों को
लक्ष्य प्राप्त करने की विधि का स्वंय चुनाव करने की स्वतंत्रता देता है। यद्यपि
वह उन्हें क्या करना है, और कैसे करना है के बारे में पूरा
ज्ञान, सूचनायें तथा विचार बताता है; तथापि वह अंत में कार्यकर्ताओं पर ही
यह चुनाव छोड़ देता है।
वह उन्हें स्वयं विचार करने, सभी विकल्पों पर ध्यान देने और अपने
निष्कर्षो के अनुसार सर्वोत्तम चुनने की सलाह देता है।
इस प्रकार एक सच्चा नेता अपने निर्णयों
को टीम पर थोपता नहीं वरन् स्थिति के विभिन्न पहलुओं को दिखाने के बाद वह उन्हें
अपने चयन के अनुसार कार्य करने की छूट दे देता है।
इस प्रकार वह अपने सभी अनुयायियों को
व्यक्तिगत स्वतंत्राता प्रदान करता है। इससे उन सभी की इच्छाशक्ति का विकास होता
है और उनका चरित्र शक्तिशाली बनता है। इसके पफलस्वरूप सभी अनुयायी आपस में
विचार-विमर्श कर अपनी इच्छा से कार्य तथा उसकी एक निश्चित विधि चुनते हैं।
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