भारतीय संस्कृति के लगभग सभी
धर्मग्रन्थ, सामान्यत: जिनको शास्त्र कहा जाता है
भोगो के बारे में अपना मत व्यक्त करते हैं। शास्त्रों को समझने के तीन स्तर हैं।
उच्च स्तर पर वेद है। मध्यम स्तर पर उपनिषद, दर्शन
व गीता हैं। इससे नीचे के स्तर पर पुराण व अन्य महाकाव्य हैं। इस विषय का विवेचन
मध्यम स्तर पर किया जा रहा है अर्थात् उपनिषद व गीता को माध्यम बनाया जा रहा है।
आइये उपनिषदों में सर्वप्रमुख व सर्वमान्य र्इशावास्योपनिषद के प्रथम श्लोक का
विश्लेषण करते हैं।
र्इशावास्यामिदं सर्वं सत्किचिंत
जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुन्जीथा मा गृध्: कस्य
स्वि(नम्।
1) यह समस्त संसार र्इश्वरीय चेतना से
अनुप्राणित हैं। जड़ चेतन जो कुछ भी है वह सब र्इश द्वारा आवृत-आच्छादित है
अर्थात् उसी के अधिकार में है।
2) केवल उसके द्वारा (उपयोगार्थ) छोड़े गए
(सौपें गए, दिए गए) का ही उपभोग करो। सामान्य
अर्थ- त्याग के साथ भोग का मर्यादा के साथ भोग कर
3) अधिक का लालच मत कर
4) क्योंकि यह धन (भोग्य पदार्थ) किसका है? अर्थात् किसी व्यक्ति का नहीं केवल
र्इश्वर का है।
सर्वत्रा र्इश्वर विराजमान है जो भी
कर्म तू करेगा, र्इश्वर की निगाह से नहीं बच पाएगा, उसकी न्याय व्यवस्था से नहीं चूक पाएगा
अत: जो भी कर्म करे यह सोच समझकर करना कि कण-कण में विराजमान भगवान देख रहा हैं।
संसार में भोग भोगने की मनाही नहीं है
अपितु भोग में लालच की मनाही हैं। जो मर्यादानुसार, नियमानुसार भोग्य पदार्थ आपके हिस्से में आते हैं उसका संतोष के साथ
उपभोग करो यही त्याग के साथ भोग की पहचान हैं।
भोग
त्याग के साथ लालच के साथ
त्याग के साथ भोग अर्थात विवेक के साथ
भोग, सोच समझ कर भोग। जैसे एक व्यक्ति अपनी
स्त्री के साथ गृहस्थाश्रम में रहता हैं। उसे सम्भोग की इच्छा होती है वह यह
देखेगा कि शास्त्र क्या कहता हैं शास्त्र पन्द्रह दिन में एक बार सम्भोग की अनुमति
देता है। यदि उसको जल्दी-जल्दी (15
दिन से कम समय में) सम्भोग की इच्छा हो रही है तो वह उस इच्छा को शास्त्र विरुद्ध
मानकर उसका त्याग करेगा ओर पद्रंह दिन के अंतर पर ही सम्भोग का प्रयास करेगा यह
त्याग के साथ भोग है। दूसरी भावना यह है कि मैं जितना अधिक सम्भोग करूँगा उतना मजा
लूटूगाँ यह लालच के साथ सम्भोग हैं। आज का व्यक्ति लालची हो गया है। वह हर कार्य
लालची प्रवृत्ति से करता है। लालची प्रवृत्ति का अर्थ है स्वंय के लिए अधिक से
अधिक प्राप्त करना चाहे वह धन हो, मकान
हो, खाने-पीने का समान हो। इस प्रवृत्ति के
वशीभूत हो वह आवश्यकता से अधिक चीजें जमा करने लगता हैं। यही प्रवृत्ति उसको भोग
करने की क्षमता से अधिक भोगने को मजबूर करती हैं। अत: आवश्यकता इस बात की है कि इस
लालची प्रवृत्ति, स्वार्थी प्रवृत्ति का अंत किया जाए
तभी विवेक एवं त्याग का उदय हो पाएगा लालच की प्रवृत्ति कब हट पाएगी जब हम सब
भोग्य पदार्थो का भगवान का मानना प्रारंभ कर देगे। यदि हम यह सोचते रहें कि इस
भोग्य पदार्थ पर तो केवल मेरा ही अधिकार हैं इसे केवल मैं ही भोगूगाँ तब लालच
बढ़ेगा। उदाहरण के लिए हम कोर्इ खाने पीने का समाना मिठार्इ खरीदते हैं पहले उसे
भगवान के अर्पित करते हैं जिससे यह भावना उत्पन्न हो कि यह भगवान का हैं। फिर उसे
दूसरों को बाँटतें है जिसमे त्याग की भावना का उदय होता है। तत्पश्चात स्वंय ग्रहण
करते हैं यही सही अर्थो में प्रसाद बनता है।
त्याग के साथ भोग का अर्थ है भोग की
सच्चार्इ को समझने के लिए भोग। भोगों की नि:सारता को समझने के लिए भोग।
त्याग के साथ भोग का अर्थ है मात्रा
शरीर की आवश्यकता पूर्ति के लिए भोग।
भोग के साथ त्याग का भाव जुड़ने से
विवेक जाग्रत रहता हैं व्यक्ति यह भी सोचता है कि व्यक्ति के अंदर भोग की क्षमता
भी विद्यमान है या नहीं।
भोग के साथ लालच का भाव जुड़ने पर
व्यक्ति अंधा हो जाता हैं बस भोग भोगकर अधिक से अधिक सुख बटोर लूँ यही मान्यता
बनाकर वह भोगो के दलदल में जा फँसता हैं। भोग से सुख प्राप्ति का लालच बढ़ने पर वह
न तो शास्त्र की सम्मति देखता है न समाज की मर्यादा न स्वंय की शारीरिक मानसिक
स्थिति। अधिक से अधिक भोग-भोगते जाओ। उसकी आँख तब खुलती है जब वह दलदल में फँस गया
होता है तरह-तरह के रोगो का शिकार बन चुका होता है? मक्खी जब किनारे पर बैठकर (त्याग की भावना के साथ) भोग नहीं करती व
चासनी के भीतर फँस जाती है तो क्या वह चीनी की चासनी का सुख ले पाती है मात्रा
उससे बाहर निकलने के लिए तब तक तड़पफती है जब तक उससे बाहर न आ जाए। अन्यथा उसी
में अपने प्राण गंवा बैठती है। आज समाज भोग प्रधान हो गया है। उसकी भी यही दुर्दशा
हैं वह भोग रूपी दलदल के भीतर फंसकर तरह छटपटा रहा है। भोग की बढ़ती हुयी मानसिकता
ने उसे तरह-तरह के शारीरिक और मानसिक रोगो का शिकार बना डाला है।
लोग फ्रायड की मान्यता बताते है कि
भोगों में कमी करने से व्यक्ति मानसिक रूप से विकृत होने लगता है। यह बात जन
सामान्य के लिए युक्ति संगत नहीं है एक उदाहरण के द्वारा इसको समझने का प्रयास
करते है।
नहाने से ठंड लग जाएगी क्या यह बात
सचमुच सही है क्या इस आधर पर हमें शीतल जल में स्नान करना छोड देना चाहिए? मात्रा रोगियों पर ही यह बात लागू होती
हैं। एक डाक्टर के पास 50 रोगी आए। उन्होंने कहा डाक्टर साहब हम
वर्षा में भीग गए थे अत: खाँसी जुकाम हो गया, गंगा
जी में नहाए बुखार हो गया,
ठंडे पानी में स्नान किया तो जोड दुखने
लगे बस डाक्टर ने अपनी मान्यता बना ली कि ठंडे पानी में स्नान किसी को भी नहीं
करना चाहिए अन्यथा सर्दी व रोगों की उत्पत्ति होती हैं। फ्रायड के साथ भी यही हुआ
उसने पश्चिम जगत के कुछ मानसिक रूप से पीडित लोगो का अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाल
डाला कि भोगो की खुली छूट समाज को दी जाय अन्यथा भोग की इच्छा को दबाने से रोगों
की उत्पत्ति हो सकती हैं। यह सिद्धान्त या तो मानसिक रूप से बहुत दुर्बल लोगों पर
लागू होता है। या भोगो केा उचित प्रकार समझे बिना उसको दबाने वालों पर लागू होता है।
यदि स्वस्थ व्यक्ति शीतल जल से स्नान करेगा तो उसे और अधिक स्वास्थय प्राप्त होगा।
इसी प्रकार यदि स्वस्थ व्यक्ति संयम का अभ्यास करेगा तो वह और अधिक स्वस्थ होगा।
भारत भूमि वीर भूमि हैं यहाँ पुरातन काल
से संयमी, भीष्म जैसी दृढ़ प्रतिज्ञा वाले, प्रज्ञा जाग्रत कर भोगों की नि:सारता
के समझने वाले लोगों की कोर्इ कमी नहीं रही। यदि हम यह मान्यता सार्वजनिक अपना ले
कि शीतल जल में स्नान हानिकारक है तो आज सारा समाज अस्वस्थ होने लेगगा यह बात
मात्रा कुछ रोगियों पर ही लागू होती है। इसी प्रकार भोगो की खुली छूट देने पर सारा
समाज तहस नहस हो जाएगा। यह मान्यता बडी ही खतरनाक हैं। यदि व्यक्ति संयम के पथ पर
चलना छोड़ देगा, शमन और दमन के मार्ग को नहीं अपनाएगा
तो अपनी प्राण शक्ति, जीवनी शक्ति, तेजस्विता, आरोग्यता खो बैठेगा। क्या नरेन्द्र
जैसा बालक संयम के, त्याग के पथ पर चलकर विवेकानंद जैसा
परम तेजस्वी नहीं बन गया?
क्या मूलशंकर ब्रह्मचर्य के तेज से
दयानंद जैसे वीर, पराक्रमी, साहसी नहीं बन गए? क्या रयड को अपनी मान्यता देने से पहले
ऐसे लोगो का अèययन नहीं करना चाहिए था?
यह बात भी सच है कि ऐसे लोग भी समाज
में बहुत कम हैं। इतना साहस भी कुछ ही कर सकते हैं इसलिए शास्त्र मध्यम मार्ग
अपनाने का संदेश देता है- ‘‘भोग तो करो परंतु त्याग के साथ यदि
लालच के साथ भोग करोगे तो डूब जाओगे न तो भोग का सुख मिलेगा न स्वास्थ्य का सुख।
यदि त्याग के साथ भोग करोगे तो भोग भोगने की क्षमता बनी रहेगी व भोग भोगने में मजा
भी आएगा तथा रोगो की उत्पत्ति का भी भय नहीं होगा। क्योंकि त्याग के साथ भोग-
मर्यादा में होगा, शास्त्र सम्मत होगा विवेक सम्मत होगा, जितना आपके लिए उचित है उतना होगा।
इसने ने तो समाज का ही अहित होगा न आपका स्वंय का ही।
अत: इस मान्यता को दृढ़ करिए जो कुछ भी
भोग्य पदार्थ सृष्टि में है वो सब र्इश्वर के है। मेरे लिए जो भी उपयुक्त
निर्दिष्ट है, मैं उतने को ही उपभोग करूँगा, उतने में ही संतुष्ट रहूँगा।
साराँश
‘‘सर्वत्रा भगवान विराजमान है, सब
भोग पदार्थ भी भगवान के है। मैं उतना ही भोग करूँगा जितना मेरे लिए उपयुक्त है
अधिक का लालच नहीं करूँगा पहले सूत्र में र्इश्वरीय अनुशासन, जीवन जीने का दर्शन, सिद्धान्त दिया गया हैं अब आगे के दो
श्लोक यह बताते है कि यदि इस प्रकार का अनुशासन हम अपनाते है तो क्या परिणाम होगा
यदि नहीं अपनाते तो क्या होगा।
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रथम
मन्त्र में जीवन और जगत को र्इश्वर का आवास कहकर जीवन सम्पदा का उपभोग
मर्यादापूर्वक करने का निर्देश हैं। ‘यह
धन किसका है?’ प्रश्न करके ऋषि ने मनुष्य को
विभूतियों और सम्पदाओं के अभिमान से मुक्त होने का अमोघ सूत्र दे दिया है।
द्वितीय मन्त्र में ऋषि कहता है कि हे
मनुष्य उपरोक्त र्इश्वरीय अनुशासन को स्वीकार कर कर्म करते हुए आप सौ वर्ष तक जीने
की कामना करें। इस प्रकार अनुशासित रहने से कर्म मनुष्य को लिप्त (विकारग्रस्त)
नहीं करते। (विकारमुक्त जीवन के निमित्त) यह (मार्गदर्शन) तुम्हारे लिए है, इसके अतिरिक्त परम कल्याण का और कोर्इ
अन्य मार्ग नहीं है।
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत
समा:।
एंव त्वयि नान्यथेतो¿स्ति न कर्म लिप्यते नरे।।2।।
तृतीय मन्त्र में ऋषि चेतावनी देता है
कि जो लोग र्इश्वरीय अनुशासन को नहीं मानते उनकी बडी दुर्गुति होती है।
असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता:।
तास्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के
यात्महनो जना:।।3।।
वे (इस अनुशासन का उल्लंघन करने वाले)
लोग असुर्य (केवल शरीर एवं इन्द्रियों की शक्ति पर निर्भर-सदविवेक की उपेक्षा करने
वाले) नाम से जाने जाते हैं। वे (जीवन भर) गहन अंधकार (अज्ञान) से घिरे रहते है।
वे आत्मा (आत्म चेतना के निर्देशों) का हनन करने वाले लोग, प्रेत रूप में (शरीर छूटने पर) भी वैसे
ही (अन्ध्कार युक्त) लोकों में जाते हैं।
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