Friday, June 7, 2013

science of sex-2

संवेदनशील चेतना भक्ति रस, वीर रस, करूणा रस, में लगी रहे तो व्यक्ति का जीवन धन्य हो जाता है। परंतु यदि सर्कीणंता के दायरे में उलझ गयी तो व्यक्ति बहुत दुर्गति भोगता हैं। चेतना के सम्वेदनशील होने से लाभ भी है और नुक्सान भी। यदि चेतना उर्ध्वगामी हो गयी तो व्यक्ति महामानव, देवमानव की श्रेणी में आएगा अपने साथ-2 ओरो का जीवन भी धन्य करेगा। यदि चेतना निम्नगामी अथवा संर्किण हो गयी तो व्यर्थ के मकड़जाल अपने चारो और बुन लेगा व उन्हीं में मर खप जाएगा। अत: भारत के लोगों के लिए यह आवश्यक है कि समाज आध्यात्मिक रहें, भारत को देवभूमि इसीलिए कहा जाता हैं। क्योंकि यहाँ 33 करोड़ देवता वास करते थे अर्थात यहाँ के 33 करोड़ नागरिक अपने उज्जवल चिन्तन, चरित्र के कारण देवी-देवताओं की तरह पूजे जाते हैं।
यदि देवभूमि भारत के लोग अपने ऋषियों द्वारा दिए गए आदर्शो का अनुकरण न कर पश्चिम की धारा का अंधानुकरण करेगें तो उनके लिए जीवन यापन कठिन हो जाएगा। पुरूष वर्ग वीर्य हिन होकर प्रमेह, मधुमेह से ग्रस्त हो जाँएगे व स्त्रियाँ ल्यूकोरिया जैसी घातक बीमारियों के चपेट में आकर जीवन को नर्क बना डालेगी। मधुमेह, ल्यूकोरिया आदि ऐसे रोग है जो व्यक्ति का खोखला कर डालता हैं। महिलाओं में नर्वस सिस्टम कमजोर होने से कमर दर्द रहने लगता है, कैन्सर आदि होने का खतरा बढ़ जाता है। चालीस वर्ष तक व्यक्ति का शरीर वीर्य हीनता की मार सहन कर लेता है उसके पश्चात् मानव का रो-रोकर जीना पड़ता है। अत: ऋषियों के आदर्शो का अनुकरण कर अपने जीवन का लक्ष्य महान बनाँए। राष्ट्र सेवा, जन कल्याण, परमात्मा प्राप्ति की दिशा मे आगे बढ़ें। यह कदापि न सोचें कि भोग विलास से हमें कुछ विशेष सुख हासिल हो जाएगा। कुछ ऐसे उदाहरण यदा-कदा देखने को मिलते है कि व्यक्ति ऐशो आराम का जीवन भी जी रहा है। फिर भी निरोग है प्रसन्न हैं। ऐसा इस कारण है कि उसने प्राचीन कई जन्म तप त्याग का जीवन जिया है जिस कारण उसका प्राणमय कोष बहुत मजबूत होता है तथा भोगों व वासनाओं का दबाव सह जाता है। परंतु जैसे ही पुण्य कर्मो की संचित पूँजी समाप्त हो जाती है। व्यक्ति अनेक प्रकार के समस्याओं, रोगों से ग्रस्त हो जाता है। अत: विवेकवान वही है जो पहलवान की नकल के चक्कर में घी पी जाए व फिर दर्द से तड़पता न फिरे। हम भी पश्चिम की नकल कर अपने हाथो अपनी कब्र न खोदें। संयम व त्यागपूर्ण जीवन जीकर खुशहाल बनें।
हमारी संस्कृति हमें त्यागपूर्ण भोग करने का, मार्यादापूर्ण भोग करने का निर्देश देती हैं। र्इश्वरीय उजनिषद में आता है ‘‘तेन त्य्तेष्ण भुंजीथा’’ अर्थात त्याग के साथ भोग यदि आपको एक लाख रू मासिक मिलता है तो कम से कम दंशाश जन कल्याण में लगाइए। पूरा का पूरा अपने लिए उपयोग न करिए। इसी प्रकार एक पत्नीव्रत का पालन करें तथा पत्नी को साथ रखते हुए भी कभी-2 चालीस दिन ब्रह्मचर्य से रहने का प्रयास करें। अर्थात यदि दो आइसक्रिम खाने का मन है तो एक ही खाँए इससे त्याग की वृत्ति उत्पन्न होगी जो धर्य इन्द्रिय संयम के लिए मजबूत आधार बनाएगी। पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित कुछ लोगों का कथन है कि भोग विलास में एकबार पूर्णतया डूब जाओ तृप्त होने पर अपने आप निकल आओगें। परंतु इस कथन से विवेकवान पुरूष कभी सहमत नहीं हो सकते। वस्तुस्थिति कहती है कि क्या शराब के नशे में पूर्णत: डूबकर उससे कोर्इ आसानी से बाहर निकल सका है क्या सिगरेट अथवा अन्य कोर्इ भी दुर्व्यसन में डूबकर आसानी से छोड़ा जा सका है फिर वासना के विषय में यह कैसे सोच लिया कि डूब जाओं फिर स्वत: बाहर निकल जाओगें। शास्त्रों में एक लघु कथा राजा ययाति की आती है। उन्होनें अपनी पूरी जवानी भोगों में गुजार दी यह सोचकर कि यदि उन्हें कुछ और समय भोगों के लिए मिल जाए उन्होंने अपने पुत्र से भी जवानी माँगली। पुत्र वैरागी था उसने अपनी जवानी सहर्ष दे दी। एक अत्यन्त रमणीय वन में वह विश्वाची नाम की अपसरा के साथ विहार करने लगा। लम्बे समय तक उनका यह क्रम चला परंतु परिणाम क्या निकला? कामलिप्त होकर एक अतंहिन वासना के जाल में फंस गया और यह स्वीकार किया-
‘‘न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवत्र्मेव भूय एवामिवर्धर्त।।              (महाभारत संभव पर्व)
हे पुत्र! मैंने तेरे यौवन द्वारा काम-वासना का जी भर कर के भोग कर लिया। परंतु जितना भोग किया, उतनी वासना बढ़ती गर्इ। मैं जान गया हुँ, विषयों की कामना विषयों के भोग से शांत नहीं हो सकती, अपितु उनका अनुभव तो घी के समान है, जो वासना की अग्निशिखा को अधिकाधिक भड़काता है। ययाति ने कहा- ‘‘देखो न पुत्र! एक हजार वर्षो तक काम रस भोगने पर भी तृष्णा का बाण मेरी छाती में ज्यों का त्यों धसाँ हैं।
यदि हम इस प्रश्न पर एक बार पुन: विचार करें कि भारतीय शास्त्रों में ब्रह्मचर्य की इतनी महता क्यों है? पाश्चत्य दार्शनिको की खोजें तो सत्य है परंतु वो ब्रह्मचर्य के सदंर्भ में उतनी गहरार्इ तक नहीं पहुँच पाए जितनी गहरार्इ में ऋषि पहुँचे थे। उदाहरण के लिए कोर्इ भी धातु सामान्य प्रयोग में लार्इ जाती है परंतु यदि उसे उर्जा में परिवर्तित किया जाए तो अत्याधिक उर्जा निकलेगी। सोना मात्र पहना जाता है परंतु यदि उसे सुक्ष्म दृष्टि से स्वर्ण भस्म बना दिया जाए तो वह स्वास्थ दृष्टि से लाभप्रद है। इसी प्रकार सम्भोग प्रिय पश्चिम में केवल स्थूल पक्ष देखते है परंतु ऋषि सूक्ष्म उर्जा को भी देखते है। उनका विचार है कि यदि उर्जा का यह क्षरण जो कामुक विचारो से होता है रोक ले तो मानव जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन सम्भव है।
वासना के इस अंतहीन चक्कर से व्यक्ति कैसे बाहर आ सकता है। सर्वप्रथम तो व्यक्ति ब्रह्मचर्य की महत्ता से पूर्णत: सहमत (convince) हो।
इस संदर्भ में शास्त्रों के दो श्लोक विचारणीय है:-
संकल्पाज्जायते काम: सेव्यमानो विवर्धते।
यदा प्राज्ञो विरमते तदा सघ: प्रणश्यति।।      (महाभारत आपद्धर्म पर्व)
काम संकल्प से उत्पन्न होता है। उसका सेवन (अनुभव) किया जाए, तो वह बढ़ता है। परन्तु जब प्रज्ञावान व्यक्ति उससे विरक्त हो जाता है, तब काम निश्चय ही नष्ट होने लगता है।
परन्तु वासना-प्रवाह को बलपूर्वक तिलांजलि देना या उससे विरक्ति भी तो अस्वाभाविक है। मनोवैज्ञानिक फ्रायड का मत था -'मनुष्य में काम-तृप्ति की एक नैसर्गिक माँग उठती है। उसका बलात दमन करना हानिकारक सिद्ध हो सकता है। यह दमन इंसान को पागलपन तक धकेलने में सक्षम है- Suppression of lust creates many perversions, which if suppressed, makes the man perverted and mad.’
ध्यायतो विश्यांपुंस विषयान्पुंस: संगस्तेषूपजायते
संगात्सन्जायते  काम: कामात्क्रोधोSभिजायते ।।62/2।।
क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:
स्मृतिभ्रंशाद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।।63/2।।
विषयों का चिंतन करने वाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्ति से कामना पैदा होती है। कामना से (बाधा लगने पर) क्रोध पैदा होता है। क्रोध होने पर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होने पर बुद्धि (विवेक) का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होने पर (मनुष्य का) पतन हो जाता है।

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