भारतीय Íषियों ने समाज को व्यवस्थित रखने के लिए, सवार्ंगीण विकास के लिए, रिश्ते-नातों को दृढ़ रखने के लिए विभिन्न प्रकार के पर्व, त्यौहार का प्रचलन किया है। उदाहरण के लिए दाम्पत्य जीवन अर्थात पति पत्नी के लिए करवा चौथ, भार्इ बहन के लिए रक्षाबंध्न, माता व संतानों के लिए अहोर्इ अष्टमी, कन्याओं के लिए नवरात्रा अष्टमी, पितृों के लिए पितृ अमावस्या, सभी वर्गो की समानता व भार्इचारे के लिए होली, पर्यावरण विकास के लिए दीपावली, असुरता निवारण के लिए दशहरा, घर की पूर्ण सपफार्इ के लिए नरक चौदस, नशा निवारण के लिए शिवरात्री आदि-आदि। सभी पर्वो व त्यौहारों का वर्णन करना संभव नहीं है। परंतु मुख्य-मुख्य पर्वो व त्योहारों का वर्णन किया जा रहा हैं। पर्व व त्यौहारों का वास्ताविक स्वरूप क्या था? व उन्हें किस प्रकार मनाया जाना चाहिए इन बिंदुओं पर नीचे प्रकाश डाला जा रहा है।
1. श्रावणी पर्व ;रक्षाबंध्नद्ध
श्रावण मास की पूर्णमासी के दिन यह पर्व पूरे भारत में बहुत धूमधाम से मनाया जाता हैं। इस पर्व को मनाने के दो प्रधन उद्देश्य रहे हैं।
1. समाज में ब्राह्मणत्व का अभिवर्ध्न
2. भार्इ बहिन के सम्बन्धें में आत्मीयता का अभिवर्ध्न
समाज में ब्राह्मणत्व का अभिवर्ध्न
ब्राह्मणत्व क्या है व समाज में उसकी क्या उपयोगिता है यह बात आज समाज ने नजरंदाज कर दी हैं। ब्राह्मण, पंडित के बारे में लोग इतना ही जानते है कि मंदिर में आरती, पूजा, घंटा बजाने वाला, प्रसाद देने वाला
अथवा जन्म कुण्डली देखकर जाप करने वाला व्यक्ति है। विश्वविख्यात कवि जय शंकर प्रसाद अपनी कृति ‘चन्द्रगुप्त’ में लिखते है -’’जिसमें त्याग और क्षमा, तप और विद्या, तेज और सम्मान है और जो लोहे सोने के सामने सिर नहीं झुकाता, वही सच्चा ब्राह्मण है।’’
दिव्यद्रष्टा स्वामी विवेकानंद स्पष्ट करते हैं- ‘‘ ब्राह्मण मानवता का दिव्य आदर्श है। यह श्रेष्ठ योजना है जो समाज को ऊपर उठाता है किसी के नीचे नहीं गिरने देता और यह पुण्य कार्य ब्राह्मणत्वरूपी श्रेष्ठ व्यक्तित्व को करना है यह गिरे को उठाता है, उठे को चलाता है और चलने वालो को लक्ष्य की ओर दौडा देता है। ब्राह्मण के पास जीवन जीने की सच्ची दृष्टि होती है। उसकी दिव्य बु(ि अपनी और औरों की क्षमताओं का आकलन करके भविष्य के सुखद स्वप्न को निर्मित करती हैं।’’
महात्मा बुद्ध के अनुसार
न ब्राह्मणस्सेतदकि×िच सेÕयो
यदा निसेधे मनसो पियेहि।
यतो यतो हिंसमनो निवत्तति
ततो ततो सम्मति एव दुक्खं।।
न जटाहि न गोत्त्ोन न जच्चा होति ब्राह्मणो।
यम्हि सच्चंच ध्म्मो च सो सुखी सो च ब्राह्मणो।।
अर्थात-’’ब्राह्मण के लिए यह कम श्रेयस्कर नहीं है कि वह प्रिय पदार्थों को मन से हटा लेता है। जहाँ-जहाँ मन हिंसा से निवृत होता है, वहाँ-वहाँ दु:ख शांत हो जाता है।
‘न जटा से, न गोत्रा से, न जन्म से ब्राह्मण होता है जिसमें सत्य और ध्र्म है, वही शुचि है, वही ब्राह्मण है।’’
पूज्य गुरुदेव महर्षि श्रीराम जी के अनुसार-’’सूर्य की ब्राह्मण से उपमा दी गर्इ है। ब्राह्मण तेजस्वी होता है। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी चलता रहता है। कभी रूकता नहीं। वह कभी आवेश में नहीं आता। उसका लोभ-मोह पर नियंत्राण होता है। पैसे-साध्नों के आकर्षण में वह उलझता नहीं। अपनी संतानों तक, अपने घर-परिवार तक वह सीमित नहीं रहता। उनसे परे चलकर वह समाज के लिए जीता है। ‘ब्राह्मण’, शब्द ही ब्रह्म से बना है। ब्रह्म की तरह ही ब्राह्मण से श्रेष्ठ समाज की उत्पत्ति होती है।
पुरुषसूक्त मे शीर्ष कहा गया है ब्राह्मण को। वह सृष्टि का निर्माता प्रारंभिक देवता है। जब ब्राह्मण सारे समाज में जलकुंभी की तरह छा जाता है तो सतयुग आ जाता है। आज की परिस्थितियाँ इसीलिए बिगड़ी कि ब्राह्मणत्व लुप्त हो गया। पहले संसार में सबसे बड़ा पद ब्राह्मण का था। वह भूसुर-भूमि पर विद्यमान देवता कहा जाता था। इस समय वह भिखारी हो गया है। देने के स्थान पर माँगने वाला बन गया है। संसार के बिगड़ने का यही कारण है। ब्राह्मण वह सूत्रा देता था, जो व्यक्तित्व का परिष्कार करते थे। वह न्यूनतम में निर्वाह करता था- अपरिग्रह उसका गुण था। इसी तप के कारण, इंद्रियसंयम के कारण, वासना, तृष्णा, अहंता पर नियंत्राण होने के कारण वह सच्चरित्राता का वातावरण बनाता था।’’
‘‘कलियुग इसीलिए आया कि ब्राह्मण दुनिया से समाप्त हो गया। ब्रह्मतेज के अभाव के कारण ही चारों ओर आज अंध्कार दिखार्इ देता है। आज की सारी समस्याओं का समाधन है -ब्रह्मतेज का उदय, सद्गुणों की अभिवृधि, ब्राह्मणत्व का विस्तार। इक्कीसवीं सदी में ब्रह्मयुग होगा। सबके मन में देवताओं की तरह जीने की उमंग विकसित होने लगेगी। ऐसा हो तो समझना चाहिए कि अमरार्इ में बौर आ गए। ‘संत’ भगवान हो कहते हैं। सतयुग यानी भगवान का, अच्छाइयों का युग। इसका आना सुनिश्चित है।’’
‘‘गीता की दैवी संपदा की जो व्याख्या गीता में आती है, वह ब्राह्मण के लिए ही योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कही है। भगवान कहते हैं- निर्भयता, अंत:करण की पूर्ण निर्मलता, तत्त्वज्ञान प्राप्ति के लिए èयानयोग में दृढ़ स्थिति, सात्विक दान देने की वृत्ति, इंद्रियदमन, भगवान-देवता-गुरुजनों की पूजा, अग्निहोत्रा आदि उत्तम कर्मों का आचरण, वेदशास्त्रों का पठन-पाठन, भगवान के नाम के गुणों का कीर्तन, स्वध्र्म पालन के लिए कष्टसहन, शरीर तथा इंद्रियों सहित अंत:करण की सरलता, मन-वाणी-शरीर से किसी भी प्रकार से किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण, अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध्ति न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, चित्त की चंचलता का अभाव, किसी की भी निंदादि न करना, सभी भूत प्राणियों के प्रति दया, इंद्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी आसक्ति न होना, कोमलता, शास्त्राविरुद्ध आचरण में लज्जा, व्यर्थ चपल चेष्टाएँ न करना, तेजस्विता, क्षमाशीलता, धर्य्र, बहिरंग की शुचिता, किसी में
भी शत्रुभाव का न होना एवं अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव-ये सभी दैवी संपदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं। ;ये सभी अèयाय 26 के प्रथम तीन श्लोकों में वर्णित हैं।द्ध ब्राह्मण, श्रीकृष्ण भगवान द्वारा वर्णित इन अट्ठाइस गुणों का पालन करता है, तीनों नरक के द्वारों से मुक्त पुरुष बनता है ;काम, क्रोध्, लोभ ये तीन नरक के द्वार कहे गए हैं- श्लोक 21, अèयाय 16। इसी कारण वह परमगति को जाता है। अर्थात परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होता है। ‘‘
‘‘पृथ्वी पर सतयुग का आना, न आना, ब्राह्मणत्व की अभिवृ(ि पर, मनुष्य की इच्छा पर निर्भर है। ब्राह्मणत्व ही सतयुग को पृथ्वी पर खींच बुलाता है। वृ़क्ष-वनस्पति जिस तरह बादलों से जल खींचते हैं, सूर्य के गुणों को खींचकर ब्राह्मण वैसा ही वातावरण ध्रती पर बना देता है। सद्गुणों का बाहुल्य जहाँ होता है, वहाँ सतयुग स्वयं आ जाता है। आदमी की नीयत बदल जाएगी, विचार बदल जाएँगे तो स्वत: सतयुग आ जाएगा। सत अर्थात सत्यपरायण, श्रेष्ठता से युक्त, ऐसा ही जमाना सतयुग कहलाता है।’’
2. गुरु पूर्णिमा
गुरु की महत्ता का बखान करते-करते शास्त्रा नहीं थकते। परन्तु आज कलियुग है। त्रोता युग में एक कालनेमि था जो दिखता तो सन्त था पर भीतर से असुर था। अपना उल्लू सीध करने के लिए ही उसने यह वेष धरण किया था। आज जगह-जगह हजारों कालनेमि विराजमान है जो अपने को हिमालय का योगी, ब्रह्म्रज्ञानी, अवतार न जाने क्या-क्या घोषित करते रहते है। उनका उद्देश्य होता है ध्न व प्रतिष्ठा प्राप्त करना। जब तक किसी संत, योगी आदि को र्इश्वर साक्षात्कार न हो जाए, भारतीय संस्कृति के अनुसार उसे गुरु बनने का अिध्कार नहीं है। अत: गुरु सोच समझकर बनाए, गुरु बनाने में शीघ्रता न करें। यदि कोर्इ ब्रह्मज्ञानी गुरु नहीं उपलब्ध् हो जाता तो हनुमान जी को ही अपना गुरु बना लें। गुरु तीन प्रकार की दीक्षा देते हैं-
कद्ध मन्त्रा दीक्षा खद्ध प्राण दीक्षा गद्ध ब्रह्म दीक्षा
गुरु एक से अध्कि भी हो सकते है जैसे भगवान राम के दो गुरु थे- विश्वामित्रा व वशिष्ठ। दत्तात्रोय ने 24 गुरु बनाए थे। यदि किसी गुरु पर संदेह बन रहा हो, मन न जम रहा हो परन्तु गुरु दीक्षा ले चुके हो, तब भी उसे
छोडा जा सकता है। जबरदस्ती किसी से चिपकने का कोर्इ लाभ नहीं जब तक अन्तरात्मा पूर्णत: सहमत न हो। यह मान्यता मूर्खतापूर्ण है कि गुरु छोड़ने से व्यक्ति नरक में जाता है। इस प्रकार के भ्रम ;गुरु एक ही हो, गुरु न बदलें आदिद्ध वही पफैलाते हैं जिन्हें अपने शिष्यों की संख्या बढ़ाने में रूचि होती है तथा स्वयं अयोग्य होते है। प्राचीन काल में गुरु मात्रा ब्रह्मज्ञानी ही बनते थे इसलिए गुरु बदलने की परम्परा नहीं थी आज तो गुरु बनने का पफैशन चल पडा है। जिसने चार ध्र्म की पुस्तकें पढ़ ली वह गुरु बन गया, जिसने मीठा गाना, संगीत सीख लिया वह गुरु बन गया, जिसने कुछ हाथ पैर मोड़ना या दो चार तरीके से सांस भरना सीख लिया वह गुरु बन गया। इस विषम समय में पहले तो गुरु धरण करने की शीघ्रता न करें। गुरु बनाने के पश्चात् यदि उस पर अविश्वास उत्पन्न हो रहा हो तो त्यागने में भी कोर्इ पाप नहीं है।
गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व पर गुरु की महत्ता को याद किया जाता हैं। शास्त्राोक्त गुरु के महत्व व गुरु की वंदना के कुछ अंश नीचे वर्णित किए जा रहे हैं।
बंदउँ गुरुपद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।।
अमिय मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भवरुज परिवारू।।
सुकृति सम्भु तन विमल विभूती।
मंजुल मंगल मोद प्रसूती।।
जन मन मंजु मुकर मलहरनी।
किए तिलक गुन गन बस करनी।।
सद्गुरु के चरण कमलों की ध्ूलि की मैं वंदना करता हूँ। गोस्वामी जी का कहना है कि यह चरणरज साधरण नहीं है। इसको श्र(ाभाव से धरण किया जाए, तो इससे जीवन में कर्इ तत्व प्रकट होते हैं। इनमें से पहला तत्व सुरुचि है। वर्तमान में हममें से प्राय: सभी कुरुचि से घिरे हैं। हमारी रुचियाँ मोह और इंद्रिय विषयों की ओर हैं। सुरुचि के जाग्रत् होते ही उच्चस्तरीय जीवन के प्रति जाग्रति होती है। दूसरा तत्व है सुवास। गुरु चरणों की ध्ूलि का महत्व समझ में आते ही जीवन सुगंध्ति हो जाता है। वासनाओं
व कामनाओं की मलिन, दूषित दुर्गंध् हटने-मिटने लगती है। इसके साथ ही तीसरा तत्व प्रकट होता है - सरसता का, संवेदना का। निष्ठुरता विलीन होती है, संवेदना जाग्रत् होती है। इन सारे तत्वों के साथ विकसित होता है अनुराग, अपने गुरुदेव के प्रति। जीवन में गुरुभक्ति तरंगित होती है।
गुरुचरणों की यह ध्ूलि अमरमूल या संजीवनी बूटी का चूर्ण है। इससे समस्त भवरोग अपने पूरे परिवार के साथ नष्ट हो जाते हैं। यह चरण रज महापुण्यरूपी शिव के शरीर पर शोभित होने वाली पवित्रा विभूति है। इससे जीवन में सुंदर कल्याण और आनंद प्रकट होते हैं। यह गुरु चरणों की रज गुरु भक्तों के मनरूपी दर्पण के मैल को दूर करने वाली है। इसे धरण करने से सभी सद्गुण अपने आप ही वश में हो जाते हैं। गोस्वामी जी के इस कथन में काव्योक्ति तो है, पर अतिशयोक्ति जरा भी नहीं। सद्गुरू के चरणों से तप-तेज झरता है। उनकी चरण-ध्ूलि धरण करने का अर्थ है कि हम गुरुदेव भगवान द्वारा बतार्इ गर्इ जीवन नीति के अनुगमन-अनुसरण के लिए प्रतिब( हो गए हैं। इससे कुछ भी असंभव नहीं है। महाकवि आगे कहते हैं-
श्री गुरु पद नख मनि गन जोती।
सुमिरत दिव्य दृष्टि हियँ होती।।
दलन मोहतम सो सप्रकासू।
बड़े भाग उर आवइ जासू।।
उघरहिं विमल विलोचन ही के।
मिटहिं दोष दुख भव रजनी के।।
सूझहिं रामचरित मनि मानिक।
गुपुत प्रगट जहं जो जेहि खानिक।।
सद्गुरु के चरण नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान हैं। इनके स्मरण से हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। गुरुदेव चरणों के स्मरण-èयान से साध्ना जगत् के महासत्य का बड़े ही सहज ढंग से साक्षात्कार हो जाता है। उससे साध्क के जीवन में एक अपूर्व रूपांतरण होता है। जीवन का सारा अंध्कार प्रकाश में परिवर्तित-रूपांतरित हो जाता है। बड़े भाग्यशाली होते हैं वे, जो इस रूपांतरण की अनुभूति प्राप्त करते हैं। सद्गुरु के चरणों का èयान कर जब हृदय के निर्मल नेत्रा खुल जाते हैं। संसार की
महाराित्रा-कालराित्रा विलीन विसर्जित हो जाती है। उसके दु:ख-दोष भी मिट जाते हैं। हृदय के निर्मल नेत्राों के खुलने से र्इश्वर तत्व का, रामचरित या परमात्मतत्व का बोध् हो जाता है। इसमें जहां -जिस जगह मणि-माणिक के रत्न भंडार गुप्त पड़े हैं, सबके सब नजर आने लगते हैं। सद्गुरू चरणों की कृपा से उलझी जीवन की पहेली सुलझ जाती है। मानव जीवन का रहस्य उद्घटित-उजागर हो जाता है।
ब्रह्मनन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूिर्तं
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वध्ीसाक्षिभूतम्
भावातीतं ित्रागुणरहितं सदगुरुं तं नमामि।।
-श्री गुरु गीता;54द्ध
जो ब्रह्मानन्द स्वरूप है, परम सुख देने वाले हैं, जो केवल ज्ञान स्वरूप हैं, ;सुख-दुख, शीत-उष्ण आदिद्ध द्वन्द्वों से रहित हैं, आकाश के समान सूक्ष्म और सर्वव्यापक हैं, तत्वमसि आदि महावाक्यों के लक्ष्यार्थ है, एक है, नित्य है, मलरहित है, अचल है, सर्व बु(ियों के साक्षी है, भावना से परे हैं, सत रज और तम तीनों गुणों से रहित है, ऐसे श्री सदगुरुदेव को मैं प्रणाम करता हूँ।
‘हम न हंसकर सीखे है, न रोकर सीखें हैं।
जो कुछ भी सीखे हैं, सदगुरु के होकर सीखे हैं।।’
‘गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट।
अन्तर हाथ सहार दे, बाहर बाहे चोट।।
‘सब ध्रती कागद करुँ, लेखनि सब वनराय।
सात समुद्र को मसि करूँ, गुरु गुन लिखा न जाय।।’
साधरणतया, भगवान के प्रतिनिध् िस्वरूप, बाहर से प्राप्त र्इश्वरीय शब्द की जरूरत पड़ती है, क्योंकि यह आत्म प्रस्पफुटन के कार्य में सहायक होता है। यह या तो किसी प्राचीन गुरु का शब्द हो सकता है या किसी जीवित गुरु का अध्कि प्रभावपूर्ण शब्द।
-महर्षि अरविन्द
‘‘सोर्इ सेवक प्रियतम मम सोर्इ, मम अनुशासन मानै जोर्इ।।’’
‘‘करनधर सदगुरु दृढ़ नावा, दुर्लभ साज सुलभि करि पावा।।’’
मानस भज रे गुरु चरणम्। दुस्तर भव सागर तरनम्।।’’
-श्री सत्य सार्इ बाबा
‘तीरथ नहाए एक पफल, संत मिले पफल चार।
सतगुरु मिले अनंत पफल, कहे कबीर विचार।।’
सदगुरु का महत्व एवं महिमा
‘‘किसान चाहें कितनी भी खेती करें, खाद डाले, बीज बोए, पानी देवें, परन्तु जब तक सूर्य का प्रकाश नहीं मिलता तब तक सब व्यर्थ है, ऐसे ही मनुष्य चाहे कितना भी जप तप करे, यम नियमों का पालन करें परन्तु जब तक सदगुरु रूपी सूर्य का आत्म-प्रकाश नहीं मिलता तब तक व्यर्थ हैं।’’ -स्वामी रामतीर्थ
‘यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
शीश दिए गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।
-सन्त कबीर
‘गुरु के वचन प्रीति न जेहिं। सपनेहुँ सुख सुलभ न तेहिं।।’
-रामचरित मानस
इस प्रकार हम देखते हैं कि शास्त्राों में सदगुरु का महत्व अत्यध्कि है गोस्वामी तुलसी दास जी मानस में यहाँ तक कहते हैं-
जो विरंचि संकर सम होर्इ।
गुरु बिन भवनिध् ितरै न कोर्इ।।
यानि कि ब्रह्मा एवं शिव की भाँति समर्थ होने पर भी श्री गुरुदेव का आश्रय पाए बिना इस भवसागर को कोर्इ पार नहीं कर सकता है। शिष्यों को, साध्कों को यह सत्य भली-भँाति आत्मसात कर लेना चाहिए कि अèयात्म तत्व गुरुगम्य है। श्रीगुरु के बिना तप तो किया जा सकता है, सि(ियाँ तो पार्इ जा सकती हैं, चमत्कार तो दिखाए जा सकते हैं, पर अèयात्म के सत्य को गुरु के आशीष के बिना नहीं पाया जा सकता। गुरुकृपा के बिना आत्मतत्व का ज्ञान हो पाना नितांत असंभव है।
इस सच्चार्इ को उजागर करने वाला एक बहुत ही प्रेरक प्रसंग है। टीñ वीñ कापालि शास्त्राी दक्षिण भारत के बहुत ही उद्भट विद्वान थे। वेदों के महापंडित के रूप में उनकी ख्याति थी। वेदविद्या के साथ तंत्रा के महासाध्क के रूप में सभी उनको जानते थे। सि(ियां उनकी चेरी थी और चमत्कार उनके अनुचर। अनेक भक्तों का जमघट उन्हें घेरे रहता था। जिनमें से कुछ सच्चे जिज्ञासु भी थे। इन सच्चे जिज्ञासु शिष्यों में एक एमñ पीñ पंडित थे, जिनके बाद के दिनों में प्रख्यात मनीषी के रूप में महती ख्याति अर्जित की।
तप, विद्या एवं सि(ियों के ध्नी कापालि शास्त्राी के पास सब कुछ था सिवा अèयात्म तत्व के गूढ़ रहस्यों के। यह अभाव उन्हें हमेशा सालता। एक दिन उन्होंने बड़े कातर भाव से तंत्रा महाविद्या की अिध्ष्ठात्राी माता जगदंबा से प्रार्थना की, माँ मुझे राह दिखा। वरदायिनी माता अपनी इस तपस्वी संतान पर कृपालु हुर्इ और उन्होंने कहा, ‘‘सद्गुरू की शरण में जा। वही तेरा कल्याण करेंगे।’’ ‘‘माँ! कौन है मेरे सद्गुरु?’’ इस प्रश्न के उत्तर में माँ की परावाणी गूँजी, ‘‘पांड़िचेरी में तप कर रहे महायोगी श्री अरविंद तेरे सद्गुरु हैं।’’
माँ जगदंबा का आदेश पाकर टीñ वीñ शास्त्राी, पंडित के साथ श्री अरविंद आश्रम पहुँच गए। महान विद्वान, परम तपस्वी, अगणित अलौकिक सि(ियों से संपन्न इस महासाध्क को देखकर आश्रमवासी चकित थे। वह स्वयं जब महर्षि के सम्मुख पहुँचे, तो महर्षि मुस्कराए और बोले, ‘‘शास्त्राी मेरे पास क्यों आए हो?’’ कापालि शास्त्राी ने विनम्रतापूर्वक कहा, ‘‘हे प्रभु तप, विद्या आदि की जो क्षुद्रताएँ मेरे पास हैं, वही अज्ञान संपदा आपके चरणों में अर्पित करने आया हूँ।’’ यह कहते हुए उन्होंने अपना हृदय श्री अरविंद के चरणों में उड़ेल दिया। शास्त्राी जी के साथ एमñ पीñ पंडित ने भी उनका अनुकरण किया। वेद और तंत्रामार्ग की सारी साध्नाओं को कर चुके कापालि शास्त्राी अब एक ही साध्ना में जुट गए और वह साध्ना थी ‘श्री सद्गुरु शरणं।’ इसी साध्ना ने उन्हें आèयात्मिक जीवन की परम पूर्णता दी।
इस घटना से पता चलता है कि जब तक सदगुरू न मिले भगवान से प्रार्थना करते रहें। समय आने पर र्इश्वर स्वयं ऐसी व्यवस्था बना देगा जिससे किसी सदगुरू का अवतरण जीवन में हो जायेगा।
3. शिवराित्रा
शिवराित्रा पर भांग ध्तूरा का प्रसाद मन्दिरों में बंटता हैं जो कि एक विकृति है। शास्त्राों के अनुसार शिवराित्रा का पर्व नशा निवारण पर्व के रूप में मनाया जाना चाहिए था। आज उल्टा हो रहा है। शिवराित्रा पर लोग अध्कि नशा करते हैं। नशे की वस्तुएं ;भांग, ध्तूरा आदिद्ध शिव को अर्पित करते हैं। शिव का अर्थ है कल्याण। शिव को अर्पित करने का अर्थ है कल्याण को अर्पित करना। भांग, ध्तूरा आदि वस्तुओं का कल्याणकारी उपयोग होना चाहिए। उदाहरण के लिए इनका उपयोग आयुवर्ैदिक दवाएं बनाने में होता है जैसे आसव, अरिष्ट में एल्कोहल चाहिए। उच्च रक्तचाप व अनिद्रा में सर्पगन्ध के साथ भांग का प्रयोग होता है। अस्थमा में ध्तूरे की ध्ूम्र लाभकारी होती है। दस्त में अहिपफेन ;अपफीमद्ध का प्रयोग किया जाता हैं। शिवराित्रा के पर्व पर यही प्रेरणा लेते हैं कि नशीली वस्तुओं का सदुपयोग होना चाहिए। जो लोग किसी भी प्रकार के नशे के आदि हैं भगवान शिव की प्रसन्नता के लिए नशा छोड़ने का प्रयास करना चाहिए। जो शिवराित्रा पर नशा छोड़ते है वो पुण्य के भागी होते हैं जो नशा नहीं करते वो भी भविष्य
में कभी नशा न करने का संकल्प लेते हैं। परन्तु जो शिवराित्रा पर भांग-ध्तूरा स्वयं ग्रहण करते है वो महापाप के भागीदार होते हैं अत: इस दिन भांग-ध्तूरा के प्रसाद वितरण पर तुरन्त रोक लगनी चाहिए।
4. दीपावली
दीपावली लक्ष्मी के सदुपयोग, आèयात्मिक प्रकाश व पर्यावरण परिशोध्न से जुडा पर्व है। शरीर अयोèया नगरी है इसको शु( करके इसमें परमात्मा रूपी राम का आगमन, अवतरण निस्संदेह सब दुखों को, कष्टों को दूर करने वाला हैं। इसके लिए हम लक्ष्मी पूजन करते हैं अर्थात ध्न का दुुव्र्यसनों में अथवा बाहरी दिखावों में दुरूपयोग नहीं करेगें। यह संकल्प लेते हैं। परन्तु आज उल्टा हो रहा है। दीपावली के पर्व पर लोग जुआ व अनेक दुव्र्यसनों में ध्न का दुरूपयोग करते हैं। इस प्रकार आèयात्मिक प्रकाश के स्थान पर सांसारिक पाप, अज्ञान में डूबते हैं। सरसों के तेल के दीपक न जलाकर रसायनों से बनी मोमबत्तियों द्वारा वातावरण प्रदूषित करते हैं। आतिशबाजी से घोर पर्यावरण प्रदूषण दीपावली के पर्व पर करते है जिसको तुरन्त रोका जाना चाहिए। यदि तेल मंहगा पड़ता है तो मात्रा पाँच दीपक जलाइए। लक्ष्मी को माँ मानिए व उसका सम्मान करना सीखिए वो आपके घर को खुशहाल, निहाल कर देंगी। लक्ष्मी का अपव्यय मत करिए। इन्हीं सब शिक्षाओं के साथ दीपावली का पर्व मनाया जाना चाहिए।
5. होली
होली का त्यौहार खुशियाँ, उत्साह, उल्लास बिखेरता है। सभी जगह वैरभाव समाप्त हो, आपसी प्रेम भार्इचारा बढे, जाति पाति, ऊँच नीच, अमीर गरीब सभी प्रकार के अहम टूटें व प्रेम व सदभावना से सभी एक दूसरे को गले लगाँए यह शिक्षा होली के पर्व पर मिलती हैं। स्वस्थ मनोरंजन एवं प्रेम का विकास होता है इस दिन। भगवान के भक्तों की सदा रक्षा होती है तथा यज्ञ भगवान को अनाज समर्पित कर हविष्यान्न ग्रहण करने की परम्परा को याद दिलाता है यह पर्व। परन्तु आज उल्टा हो रहा हैं। होली पर लडार्इ झगड़े बढ़ रहे हैं, समाज में तनाव पफैलता है स्वस्थ मनोरंजन के स्थान पर अश्लीलता पफैलती है जो कि एक विकृति है। इसको रोका जाना चाहिए।
6. सूर्यषष्ठी-महोत्सव ;बिहार का महापर्व: सूर्यपूजाद्ध
व्रत एवं पर्वो की दृष्टि से कार्तिक माह अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। इसी पावन मास कार्तिक में एक अत्यंत पवित्रा पर्व का अनुष्ठान किया जाता है, जिसे ‘छठपर्व’ कहा जाता है। ‘छठपर्व’ बिहार का सर्वाध्कि लोकप्रिय पर्व है। लोकचेतना तथा लोकसंस्कृति से ओतप्रोति यह पर्व बिहार की आत्मा है। इस अवसर पर भगवान सूर्यनारायण की पूजा-उपासना बड़ी श्र(ा, भक्ति एवं उल्लास के साथ की जाती है। सूर्य पूजा का अनुष्ठान वर्ष में दो बार किया जाता है: प्रथम- चैत्राशुक्ल “ाष्ठी तथा द्वितीय-कार्तिकशुक्ल “ाष्ठी।
भगवान सूर्य ही प्रत्यक्ष देव माने गए हैं। सूर्य देव ही एकमात्रा ऐसे देवता हैं जो नित्य प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं। शास्त्राों के अनुसार भगवान सूर्य ही ब्रह्म, विष्णु, शिव, स्कंद, प्रजापति, इंद्र कुबेर काल, यम, चंद्रमा, वरूण तथा पितर माने गए हैं जो पुरुष विपत्ति, कष्ट, दुर्गम मार्ग तथा समस्त भयों में इन सूर्यनारायण का èयान करता है, उसकी संपूर्ण बाधएं स्वत: ही शांत को जाती है।
बिहार प्रांत में यह पर्व चार दिनों कार्तिकशुक्ल चतुथ्र्ाी से सप्तमी तिथि तक मनाया जाता है। इस पर्व के संदर्भ में शास्त्राों में एक कहानी का वर्णन आता है जो निम्न प्रकार है-
पूर्वकाल में शर्याति नामक एक राजा थे। राजा की अनेक िस्त्रायां थीं जिनसे राजा को एकमात्रा संतान एक कन्या के रूप में प्राप्त हुर्इ थी। अत: वह उन्हें अत्यंत प्रिय थी। उस चंचल एवं सुंदर कन्या का नाम सुकन्या रखा गया। एक बार सुकन्या पुष्प लेने जंगल में गर्इ तथा संयोगवश उस स्थान पर पहुंच गर्इ जहां च्यवनमुनि èयानमग्न हो तपस्यालीन थे। मुनि तपस्या में इस प्रकार मग्न थे कि उनके शरीर पर मिट्टी जम गर्इ थी जिसमें दीमक ने अपना घर बना लिया था। दीमक की बांबी से मुनि की दोनों आंखें जुगनू की तरह चमक रही थी। सुकन्या ने उत्सुकतावश उन दोनों बांबी में जहां से प्रकाश आ रहा था, लकड़ी डालकर कुरेद दिया, जिससे मुनि की दोनों आंखें पफूट गर्इ तथा उनका èयानभंग हो गया। दर्द एंव पीड़ा से छटपटाते हुए मुनि
ने क्रोध्ति हो सुकन्या को श्राप दे दिया।
घर आकर सुकन्या ने पिता से अपना अपराध् निवेदन किया। राजा पुत्राी को ले मुनि के पास पहुंचे तथा अज्ञानतावश हुए अपराध् के लिए क्षमाप्रार्थना की। साथ ही अपनी कन्या को च्यवनमुनि की सेवा में समर्पित किया। मुनि ने पिता-पुत्राी को क्षमा प्रदान कर सुकन्या को अपनी सेवा के लिए रख लिया। एक दिन कार्तिकमास में “ाष्ठीतिथि को सुकन्या जल लेने नदी तट पर गर्इ, जहां एक नागकन्या को “ाष्ठीपूजा एंव सूर्य उपासना करते देख उससे उक्त पूजन एवं व्रत का माहात्म्य पूछा। नागकन्या ने बतलाया कि उक्त व्रत एवं सूर्य पूजन से संपूर्ण मनोकामनाएं तत्काल ही पूर्ण हो जाती हैं। अत: सुकन्या ने भी पूरी निष्ठा एंव भक्ति के साथ छठव्रत एवं सूर्यपूजन किया, जिसके तत्काल प्रभाव से च्यवनमुनि को नेत्राों की ज्योति पुन: प्राप्त हो गर्इ।
सूर्यउपासना से असाèय रोगों का भी नाश होता है। पूर्वकाल में मगध् नरेश राजा जरासंघ के किसी पूर्वज को कुष्ठरोग हो गया था तथा सूर्योपासना के द्वारा ही उनके रोग का पूर्ण निवारण हो सका था। महाभारतकाल में जब पांडव जुए में अपना संपूर्ण राजपाट हारकर, वन-वन भटक रहे थे, तो उनके समस्त दुखों के निवारण एवं सुख-समृ(ि और शांति की कामना से द्रौपदी ने भी “ाष्ठीतिथि को सूर्य आराध्ना एवं उपासना की थी तथा भगवान भास्कर ने प्रकट को द्रौपदी को मनोवांछित वरदान प्रदान किया था।
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