Friday, June 7, 2013

science of sex-3

श्री अरविन्द साधना से अथवा आध्यात्मिकता से दूर करने वाली स्थितियों के दो भागों में बाँटते है।
1. प्राणगत चंचलता अर्थात वासना
2. मनोगत इच्छाएँ अर्थात तृष्णा
वासनाग्रस्त मनुष्य उद्देश्यहीन भटकता रहता है। यह चंचलता मनुष्य के इधर-उधर ठेलती रहती है ओर कर्इ बार बड़ा संकट को खड़ा कर देती है। उदाहरण के लिए युधिष्ठिर धर्मराज थे परन्तु उन्हें छुटक्रीडा की वासना थी। अपनी उस वासना पर वो नियन्त्रण न कर पाए। वासनाग्रस्त मनुष्य अपनी सामथ्र्य, शक्ति बल लुटावा रहता है किसी आनन्द की आस में, कुछ मिलने की आसमें परन्तु हाथ कुछ नहीं आता। उसका विवेक नष्ट हो जाता है वह जो कुछ पास में होता है दाँव पर लगा देता है। युधिष्ठिर से भी वही गलती हो गर्इ। राज्य, धन, वैभव, भार्इ, पत्नी सब कुछ हारते चले गए। विपरीत लिंग का आर्कषण भी कुछ ऐसा ही है जहाँ व्यक्ति यह सोचता रहता है कि वो मिलेगा तो न जाने कितना मजा आएगा। परन्तु धीरे-2 करके यह क्षणिक आनन्द भंवर में परिवर्तित होता चला जाता है ओर व्यक्ति बड़े संकट में फंस जाता है। विवेकशील व्यक्ति सावधानी पूर्वक हर स्थिति हर घटनाक्रम को देखता है ओर कुछ निष्कर्ष निकालता है सुकरात से किसी ने पूछा जीवन में सम्भोग कितनी बार करें? सुकरात ने बड़ा सुन्दर उत्तर दिया मात्र एक बार करके देख लेना चाहिए कि इसमें क्या रखा है
वासना कुछ भी हो सकती है। कुछ खाने की वासना, टी.वी. सीरियल देखने की वासना, मँुह पर क्रीम पाउडर नाली लिपिस्टिक लगाने की वासना। वासना व्यक्ति को कोर्इ उद्देश्य नही बनाने देती। ढुल मुल नाति बन जाती है व व्यक्ति निस्तेन होता जाता है। अत: जितना सम्भव हो व्यक्ति के वासना की प्रकृति को समझना चाहिए व उससे आनन्द न ढूंढकर उसके ऊपर उठने का प्रयास करना चाहिए। या नहीं कहा जा रहा कि वासनापूर्ति में आनन्द नहीं है। आनन्द तो है पर तब तक जब तक आपके पास जमा पूँजी है। जिस दिन पूँजी खत्म व्यक्ति सकंटग्रस्त हो जाता है व जीना भी दुलर्भ हो जाता है अत: वासना पूर्ति के लिए भारतीय सस्ंकृति में एक मर्यादा रखी गयी है। मर्यादापूर्ण व त्यागपूर्ण भोग की अनुमति भारतीय संस्कृति व्यक्ति को देती है। जिससे व्यक्ति उस दलदल में इतना आगे न निकल जाए कि अनमोल मानव जीवन ही गँवा बैठे।
कर्इ बार वासना का प्रवाह इतना तीव्र होता है कि व्यक्ति सब कुछ जानते बुझते भी उसमें बहने के लिए मजबूर हो जाता है। इस प्रवाह साधनो का बाँध लगाना होता है। भगवान ने पशु पक्षियों को मर्यादित भोग करने की प्ररेणा दी है। उनमें वासनाएँ अनियमित होती हुअी नहीं देखी जाती। परन्तु मानव ने जरा सा विवेक की आँख हटायी कि अनियन्त्रित वासनाओं के आक्रमण उससे ऊपर होने प्रारम्भ हो जाते है। मक्खी बेचारी स्वाद के चक्कर में गुड़ की चानी में फंसकर प्राण गंवा देती हैं मानव यदि वासनाओं के चस्के में फंसा तो इतना दुबर्ल हो जाता है कि न जीने लायक रहता है न मरने लायक। जब तक पुण्यों की जमा पँूजी मानव के पास है, वद की पँूजी उसके पास है, वीर्य की पँूजी उसके पास है यौवन की पँूजी उसके पास है वासनाएँ स्वर्ग का आनन्द देती है। कर्इ बार व्यक्ति उस मौज मस्ती में इतना संलग्न हो जाता है कि पता ही नही लगता कि वह पँूजी कब समाप्त हो गर्इ। इस अवस्था में मानव की समस्या है कि वासनाओं के आर्कषण उसको अपनी ओर खींच रहे है परन्तु भोग की सामथ्र्य समाप्त हो चुकी है। डाक्टर ने घंटी बजा दी है कि जीना है कि पीना हैंएक को चुन लो। परन्तु नशे की वासना ने मानव के परेशान कर दिया। जीवन दांव पर लगा गया पर वह न छूटी।
अत: समय रहते चेत मानव, वासनाओं के दलदल में मत कूद, मात्र किनारे पर रहकर ही थोड़ा स्वाद लेकर उससे ऊपर उठने का प्रयास कर इसी में तेरी भलार्इ है।
इतिहास में वासना की विजय के ऊपर अनेक दृष्टान्त आते है। वासवदत्ता मथुरा में अपने सौन्दर्य के लेकर बहुत प्रसिद्ध थी। उसका घर धन वैभव व गणमान्य व्यक्तियों से भरा रहता था। वहीं पास में उपमन्यु नायक एक बौद्ध भिक्षु रहते थे। अपने त्याग, तप, ज्ञान वैराग्य व तेज से वो भी नगर विख्यात थे। वासवदत्ता भी उन पर मोहित थी। वासवदत्ता ने उनको प्रस्ताव भेजा कि वो उनसे बहुत प्रेम करती हे अत: उनके साथ जीवन बिताना चाहती है। उसने निवेदन किया कि उसके पास सब कुछ है ओर वो बड़ा सुखी जीवन जिएगें। उपमन्यु ने उनका निवेदन विनम्रता पूर्वक अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कहा कि प्रेम वो उससे करते है परन्तु उनकी प्रेम की परिभाषा के अनुसार मानव जीवन को वासना के घृणित दलदल में नहीं घसीटा जा सकता। जब कभी उसको जरूरत हेागी वो सहायता  करेंगे। उपमन्यु जानते थे कि वासवदत्ता जिस भाग की आँधी में बह रही है वह कुछ ही वर्षों में उसको दृर्दशा के गर्त में ढकेल देगी। वासवदत्ता ने बहुत समझाने का प्रयास किया कि बड़े-2 लोग उसके सौन्दर्य व वैभव को सलाम करते है वो उसको ठुकराने की मूर्खता न करें। परन्तु उपमन्यु का विवेक बहुत ही ढृढ़ था वो अपने निर्णय से हट से मस्त न हुए।
समय बीता, कुछ ही वर्षों में वासवदत्ता अपना सौन्दर्य, स्वास्थय, वैभव सब कुछ गँवा बैठी। अब उपमन्यु उसके पास पुहँचे व उसकी सेवा सुश्रुषा करने लगे। वासवदत्ता उनसे बोली कि जब उसके पास कोर्इ नही आता सब कुछ समाप्त हो गया। शरीर से रोगों के कारण दुर्गन्ध आती है तब वह क्यों आए? उपमन्यु ने कहा कि वह उससे प्रेम करते है व प्रेम में एक आत्मा दूसरी आत्मा की सहायता करती है। क्योंकि अब वो चारों ओर से निराश हो मृत्यु के निकट है अत: सेवा के द्वारा उसके जीवन को बचाना जुरूरी है। वासवदत्ता प्रेम की सही परिभाषा समझी व अपनी गलतियों पर बहुत पश्चाताप करने लगी। अब वो भी बौद्ध भिक्षुणी बनकर अपने जीवन को संवारने में लग गयी।
अनेक ऐसे प्रंसगों का जिक्र किया जा सकता है। वनवास काल में अर्जुन अपने तप के बल पर सभी देवताओं की शक्तियाँ पाने में सफल हुए। उन्हें स्वर्गलोक बुलाया गया। स्वर्गलोक का वैभव व सौन्दर्य देखकर वो दंग रह गए। उनकी नजर उर्वशी पर पड़ी जो वहाँ की सुन्दर अप्सरा को, तो उसको देखते ही रह गए। उर्वशी भी उनके रूप लावण्य पर मोहित हो गयी। परन्तु अर्जुन ने स्वंय को सम्भाला व अपने जीवन के लक्ष्य को याद किया। उनके विवेक ने उन्हें बताया कि यदि वो स्र्वग के इस भोग विलास में डूबे तो उनको लक्ष्य नही मिलने वाला। जिन शक्तियों को उन्होंने कठोर तप से पाया वो धीरे-2 करके लुप्त हो जाँएगी।
उर्वशी रात के एकान्त में अर्जुन के पास पहुँची व प्रणय निवेदन करने लगी। उर्वशी ने उन्हें कहा कि उनका मिलना दोनों के लिए बहुत ही आनन्ददायी रहेगा। परन्तु अर्जुन तब तक निश्चय कर चुके थे उन्होंने स्थिति के माप कर उर्वशी को माँ से सम्बोधित किया। उर्वशी क्रोध में आ गयी उसकी आशाओं पर पानी फिर गया। उसने उर्वशी के नुपंसक होने का श्राप दे डाला। यह श्राप भी अर्जुन के लिए वरदान बन गया व एक वर्ष वो अज्ञातवास में छिप कर रह सकें। अन्यथा अपनी शक्ति, तेज, सामथ्र्य को वो छिपा नहीं सकते थे।
अर्जुन महाभारत के युद्ध में सर्वश्रेष्ठ योद्धा के रूप में जाने गए यदि वो थोड़ा फिसल जाते तो यह लक्ष्य, यह र्इश्वर प्रेम यह गौरव नही पा सकते व जीवन पर अपमान की घँूट पीकर तड़पते रहते। 

अत: मावन सचेत हो जा विवेक की तीसरी आँख से देख कि तेरा भला किसमें है तेरा लक्ष्य क्या है व अपनी वासनाओं से ऊपर उठकर जीवन जीना सीख। अपने पूर्वजो से शिक्षा ले प्ररेणा ले व एक शानदार एंव जानदार जीवन जीकर अमृत्व की प्राप्ति कर। कुछ समय के मोज मस्ती के चक्कर में बहुमूल्य मानव जीवन के नष्ट मत कर देना अन्यथा पश्चाताप के अलावा ओर कुछ हाथ लगने वाला नहीं है।
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यद्यपि भारतीय धर्मग्रन्थों में ब्रह्मचर्य पालन की बड़ी (सुंदर जीवन, माधव पीड़ा  अरविन्द पाण्डिचरी) महिमा बरवान की गयी है। परंतु आध्यात्म द्वारा नियन्त्रित जीवन में कामेच्छा की उचित भूमिका को अस्वीकार नहीं किया गया है। उसकी उचित मांग स्वीकार की गयी है किंतु उसे आवश्यकता से अधिक महत्व देने से इंकार किया गया है। जब व्यक्ति आध्यात्मिक उसका निग्रह करने के लिए मनुष्य को प्रयत्न नहीं करना पड़ता, वह पके फल की भाँति झड जाता है। इन विषयों में मनुष्य को अब और रूचि नहीं रह जाती। समस्या केवल तभी होती है जब मनुष्य चाहे सकारात्मक चाहे नकारात्मक रूप में कामेच्छा में तल्लीन या उससे गुस्त होता है।) दोनों ही परिस्थितियों में मनुष्य यौन चिंतन करता है  ऊर्जा का उपव्यय करता रहता है।
     इस संदर्भ में श्री अरविन्द कहते हैं कि जब हम यौन ऊर्जा के सरंक्षण की या ब्रह्मचर्य की बात करते हैं तब प्रश्न यह नहीं होता कि कामवृत्ति बुरी है या अच्छी, पाप है या पुण्य। यह तो प्रकृति की एक देन है। प्रत्येक मानव शरीर में कुछ द्रव्य होते हैं, ज्यों-ज्यों शरीर का विकास होता है वे संचित होते जाते हैं शारीरिक विकास की एक विशेष अवस्था आने पर प्रकृति जोर लगाने  दबाव डालने का तरीका काम में लेती है ताकि वे यौन द्रव्य बाहर निक्षिप्त कर दिए जांए और मानव जाति की अगली कडी (पीढ़ी) का निर्माण हो सकें।

     अब जो व्यक्ति प्रकृति का अतिक्रमण करना चाहता है, प्रकृति के नियम का अनुसरण करने, और प्रकृति की सुविधाजनक मंथर गति आगे बढ़ने से संतुष्ट नहीं होता वह अपनी शक्ति के संचय संरक्षण के लिए दलशील होता है, जिसे वह बाहर निक्षिप्त नहीं होने देता। यदि इस शक्ति की तुलना पानी से की जाए तो जब यह संचित हो जाती है तब शरीर में गरमी की, उष्णता की एक विशेष मात्रा उत्पन्न होती हैं यह उष्णता तपस् प्रदीप्त ऊष्मा कहलाती है। वह संकल्प शक्ति को, कार्य निष्पादन की सक्रिय शक्तियों को अधिक प्रभावशाली बनाती है। शरीर में अधिक उष्णता, अधिक ऊष्मा होने से मनुष्य अधिक सक्षम बनता है, अधिक सक्रियतापूर्वक कार्य संपादन कर सकता है और संकल्प शक्ति की अभिवृद्धि होती है। यदि वह दृढ़तापूर्वक इस प्रयत्न में लगा रहे, अपनी शक्ति को और भी अधिक संचित करता रहे तो धीरे-धीरे यह ऊष्मा प्रकाश में, तेजस् में रूपांतरित हो जाती है। जब यह शक्ति प्रकाश में परिवार्तित होती है तब मस्तिष् स्वयं प्रकाश से भर जाता है, स्मरणशक्ति बलवान हो जाती है। और मानसिक शक्तियों की वृद्धि और विस्तार होता है। यदि रूपातंर की अधिक प्रारंभिक अवस्था में सक्रिय शक्ति को अधिक बल मिलता है तो प्रकाश में परिवर्तन रूपांतर की इस अवस्था में मन की, मस्तिष् की शक्ति में वृद्धि होती है। इससे भी आगे शक्ति-संरक्षण की साधना से ऊष्मा और प्रकाश दोनों ही विद्युत् में, एक आंतरिक वैद्युत् शक्ति में परिवर्तित हो जाते हैं जिसमें संकल्प शक्ति और मस्तिष्क दोनों की ही प्रवृद्ध क्षमताएं संयुक्त हो जाती है। दोनों ही स्तरों पर व्यक्ति को असाधारण सामथ्र्य प्राप्त हो जाती है। स्वाभाविक है कि व्यक्ति और आगे बढ़ता रहेगा और तब यह विद्युत् उस तत्व में बदल जाती है जिसे -ओजस् कहते हैं। ओजस् अस आद्या सूक्ष्म ऊर्जा सजर्क ऊर्जा के लिये प्रयुक्त संस्कृत शब्द है जो भौतिक सृष्टि की रचना से पूर्व वायुमडंल में विद्यमान होती है। व्यक्ति इस सूक्ष्म शक्ति को जो एक सृजनात्मक शक्ति है, प्राप्त कर लेता है और वह शक्ति उसे सृजन की  निर्माण की यह असाधारण क्षमता प्रदान करती है।

ब्रह्मचार्य
आचार्य श्री राम जी काम वासना के सन्दर्भ में लिखते हैं-
धन की तरह ही इस संसार में एक अनर्गल आकर्षण है- काम वासना का। यह एक ऐसा नशा है जो विचार शक्ति की दिशा को अपने भीतर केन्द्रित करता ओर उसे असन्तोष की आग में जलाता रहता है। यह प्रवृत्ति एक मानसिक उद्विग्नता के रूप में विचार शक्ति का महत्वपूर्ण भाग ऐसे उलझाए रहती है जिसमें लाभ कुछ नहीं, हानि अपार है। मानसिक कामुकता के जंजात में असंख्य व्यक्ति पड़े हुए अपनी चिन्तन क्षमता को बरबाद करते रहते है। इसलिए महामना मनुष्य अपनी प्रवत्ति को इस दिशा में बढ़ने नहीं देते साथ ही दृष्टिशोधन का ध्यान रखते है। भिन्न लिंग के प्राणी का सौन्दर्य उन्हें प्रिय तो लगता है पर अवांछनीयता की ओर आकर्षित नहीं करता।
अश्लील साहित्य, गन्दी फिल्म, उपन्यास, अर्द्ध नग्न चित्र, फूहह प्रसंगो की चर्चा आदि के द्वारा यह कामुक प्रवत्ति भड़कती है। 

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