सोचिए जरा, बंदर को चंगुल में कैसे फँसाया जाता है? लम्बे और पतले मुँह वाली सुराही में
एक-दो मुठ्ठी भुने हुए चने रख दिए जाते है। फिर उस सुराही को गर्दन तक मिट्टी में
अच्छी तरह दबा दिया जाता है। चने की खुशबू बंदर को सुराही तक आसानी से खींच लाती
है। बंदर सुराही में अपना हाथ डालता है और मुट्ठी में ज्यादा से ज्यादा चने भर
लेता है। लेकिन जब मुट्ठी बाहर निकालने की कोशिश करता है, तो उसकी मुट्ठी अटक जाती है! कारण
सुराही का मूँह बहुत पतला है। उसके अंदर बंदर का खुला हाथ तो जा सकता है, पर बंद मुट्ठी बाहर नहीं आ सकती। अब
बंदर चाहे तो अपनी मुट्ठी खोलकर खुद को शिकारी के चंगुल से मुक्त कर सकता है।
लेकिन मुट्ठी खोलता नहीं,
इसलिए शिकंजे
में ही फँसा रह जाता है। हम भी तो यही करते है! अगर किसी ने कुछ कह दिया या हमारे
साथ कुछ बुरा हो गया, तो हम उस बात को कस कर पकड़े रखते हैं
छोड़ते ही नहीं। और फिर कहते हैं कि हमें परेशानियों ने जकड़ा हुआ है।
मदन मोहन मालवीय जी के जीवन की एक
प्रेरणाप्रद घटना आती है। वे बनारस के हिंदु विश्वविद्यालय के संस्थापक थे। जब वे
इस विश्वविद्यालय के निर्माण में जुटे थे, तब उन्हें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। पर्याप्त धन जुटाने के
लिए उन्होंने एड़ी से चोटी का जोर लगाया। कर्इ व्यापारियों से मदद माँगी। लेकिन
कोर्इ ठोस काम नहीं बना। इसी के चलते, वे हैदराबाद के निजाम के पास पहुँचे और उनसे धन-सेवा की अपील की।
निजाम ने जैसे ही ‘‘हिंदु विश्वविद्यालय’’ नाम सुना तो आगबबुला हो गया। इस कदर
भड़क गया कि उसने अपना जूता निकाला और मालवीय जी के ऊपर फेंकते हुए गरजा- ‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हूर्इ! हिंदु विश्वविद्यालय के लिए निजाम से
पैसे माँगने आ पहुँचे!’’
पर तब मालवीय जी की प्रतिक्रिया देखिए!
खुद पर जूता फेंके जाने के गम में वे उदास मन लेकर वापिस नहीं लौटे गए। उन्होंने
जिजाम का जूता उठाया और सीधे बाजार में पहूँचे। वहाँ पहुँचकर जिजाम के जूते की
बोली लगानी शुरू कर दी। क्योंकि जूता निजाम का था, इसलिए ग्राहकों का भी तांता लग गया। बोली ऊँची लगने लगी। खबर निजाम
तक पहूँची। ‘‘निजाम का जूता किसी और के पैर में!’’ - ऐसा सोचकर निजाम को अपनी तौहीन सी लगी।
उसने अपने एक मुलाजिम को निर्देश देकर भेजा कि वह किसी भी दाम पर उसका जूता वापिस
लेकर आए।
और जानते है, मालवीय जी को उस जूते से अच्छी खासी
रकम मिली जो हिंदु विश्वविद्यालय को बनाने में बेहद मददगार सिद्ध हूर्इ। यानी
जिन्दगी ने उन्हें तिरस्कार का धक्का तो मारा, लेकिन मालवीय जी ने उस धक्के को भी इंधन बनाकर अपनी मंजिल तक की
रफतार बढ़ा दी। अत: हर समस्या का समाधान है। बस आवश्यकता है तो धैर्य, विवेक और साहस से उस समाधान को खोजने व
उस पर अमल करने की।
वैसे भी, तीर आगे तभी जाता है जब कमान उसे पहले पीछे की ओर खींचती है। पिस्तौल
से गोली बिजली की गति से निकल कर अपना लक्ष्य तभी भेद पाती है, जब ट्रिगर को पहले पीछे की तरफ खींचा
जाता है। ठीक ऐसे ही, मुश्किलें या अनचाही परिस्थितियाँ भले
ही हमें पीछे खींचती हुर्इ दिखार्इ देती हैं। लेकिन ये हमारे लिए कमान या ट्रिगर
की भूमिका निभाती हैं। जिनकी मदद से हम अपने लक्ष्य तक बिजली की गति से पहुँच सकते
हैं। इसलिए जीवन में जब भी कुछ अनपेक्षित घटे, तो मन उदास न करें, बल्कि
उसमें छिपी मूल्यवान सीख को जानें और मुस्कुराते हुए आगे बढ़ते चलें।
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