बचपन
स्वामी विवेकानन्द (नरेन्द्रनाथ दत्त या केवल नरेन, जिस नाम से वे अपने संन्यासी जीवन से पहले जाने जाते थे) का जन्म कोलकाता में विश्वनाथ दत्त और भुवनेश्वरी देवी के घर सोमवार 12 जनवरी, 1863 (पौष कृष्ण सप्तमी, विक्रम सम्वत् 1919, मकर संक्रान्ति के दिन जिसे काल संक्रमण के लिए शुभ माना जाता है, के दिन हुआ था । दत्त परिवार धनी, कुलीन और उदारता व विद्वता के लिए परिचित था । विश्वनाथ दत्त कोलकाता उच्च न्यायालय में अटॅार्नी-एट-लॉ थे । वे एक विचारक, अति उदार, गरीबों के प्रति सहानुभूति रखने वाले, धार्मिक व सामाजिक विषयों में व्यवहारिक और रचनात्मक दृष्टिकोण रखने वाले व्यक्ति थे । भुवनेश्वरी देवी सरल व अत्यंत धार्मिक महिला थीं ।नरेन्द्रनाथ उत्साही, तेजस्वी बालक था, जिसे बचपन से ही संगीत, खेल-कूद और मैदानी गतिविधियों में रुचि थी । साथ ही आध्यात्मिक बातों में भी उसकी रुचि थी और खेल-खेल में वे राम, सीता, शिव आदि मूर्तियों की पूजा करने में या ध्यान में रम जाते थे । उनकी माता उन्हें रामायण, महाभारत की कहानियाँ सुनाती, जो उनके मानस पर अमिट छाप छोड़ जाती थी । उत्साह, गरीबों के प्रति दया, परिव्राजक संन्यासी का आकर्षण-आदि उनके जन्मजात लक्षण थे ।
जब वह केवल चौदह वर्ष का था, दत्त परिवार को कुछ वर्षो के लिए रायपुर में रहना पड़ा जहाँ आस-पास विद्यालय नहीं था, किशोर नरेन्द्रनाथ को अपने माता-पिता और प्रकृति के साथ पर्याप्त समय बिताने के लिए मिला । एक बार किसी एक सम्बन्धी के उकसाने पर उसने अपने पिता से पूछा, ‘‘मेरे लिए आपने क्या सम्पत्ति रखी है?’’ पिता उसे दर्पण के सामने ले गए और कहा, ‘‘तुम स्वयं को देखो, सुगठित शरीर, तेजस्वी आँखें, निडर मन और पैनी बुद्धि-क्या ये सब मेरी दी हुर्इ सम्पत्ति नहीं है?’’ बचपन से ही इस तरह के संस्कारों ने नरेन्द्रनाथ को उसकी युवावस्था तक पहुँचाया ।
श्रीरामकृष्ण के चरणों में
युवक नरेन्द्रनाथ ने दर्शन, संगीत और व्यायाम में अपनी पहचान बनी ली, जिससे वे अपने साथियों में निर्विवाद नेता हो गए थे । महाविद्यालय में उन्होंने पाश्चात्य विचारधारा का अध्ययन करके उसे आत्मसात कर लिया था, इससे उनके मन में गहन विवेचक का भाव बैठ गया । एक ओर तो उनमें जन्मजात अध्यात्म की प्रवृत्ति और प्राचीन धार्मिक परम्पराओं एवं विश्वासों के प्रति सम्मान, तो दूसरी ओर तर्क करने के स्वभाव के साथ-साथ कुशाग्र प्रतिभा, इन दोनों का संघर्ष उनके मन में होने लगा था । ऐसी विकट स्थिति में उन्होंने तत्कालीन सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन ब्रह्मसमाज में सुख पाने का प्रयास किया । ब्रह्मसमाज निराकार ब्रह्म को मानता और मूर्ति पूजा को नकारता था, तथा अन्यान्य क्षेत्रों में स्वयं को समाज-सुधारक के रूप में प्रस्तुत करता था ।बहुत तरह के अध्ययन के उनके हृदय में र्इश्वर समबन्धी जिज्ञासाओं ने हलचल मचा दी । नरेन्द्रनाथ अनेक प्रख्यात धार्मिक नेताओं से इस प्रश्नों को लेकर मिले, किन्तु उन्हें उनसे अपने प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर नहीं मिला । परन्तु, इस प्रकार की भेंट से उनकी आध्यात्मिक बेचैनी और भी बढ़ गर्इ थी । इस दुर्गम मोड़ पर, उनके चचेरे भार्इ रामचन्द्र दत्त ने उन्हें दक्षिणेश्वर में रहने वाली महान् आत्मा श्रीरामकृष्ण परमहंस से भेंट करने के लिए प्रोत्साहित किया । इस प्रकार सन् 1881 में इन दो महान् आत्माओं की महान् ऐतिहासिक भेंट हुर्इ - आधुनिक भारत का संत और उनके संदेशों का वाहक । नरेन्द्रनाथ ने उनसे पूछा, ‘‘महाराज क्या आपने र्इश्वर को देखा है?’’श्रीरामकृष्ण ने उत्तर दिया, ‘‘हाँ, मैंने उसे वैसे ही देखा है जैसे मैं यहाँ तुम्हें देख रहा हँू, बल्कि और भी अधिक तीव्रता से।’’ अन्तत: यह एक व्यक्ति था जिसने नरेन्द्रनाथ को अपने अनुभव के आधार पर आश्वस्त किया कि, र्इश्वर का अस्तित्व है।
सन् 1884 में नरेन्द्रनाथ के पिता का निधन हो गया । नरेन्द्रनाथ के परिवार को अनेक कठिनाइयाँ और अड़चनें झेलनी पड़ीं । नरेन्द्रनाथ जिसने अभी तक अपने जीवन में प्रचुर सम्पन्नता का अनुभव किया था । अब उसे अत्यंत निर्धनता का अनुभव हुआ । इस अत्यंत निर्धनता और परिवार के कष्ट ने उन्हें श्रीरामकृष्ण की सहायता माँगने के लिए उन्मुख किया । ठाकुर ने सुझाया कि पारिवारिक कष्टों के निवारण के लिए दक्षिणेश्वर में माँ काली से स्वयं ही प्रार्थना करे । नरेन्द्रनाथ ने अभी तक र्इश्वर के साकार अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया था । फिर भी उनके घर के कष्टों के कारण उन्हें मन्दिर में जाना पड़ा । जब वे मन्दिर में गए, तो उन्होंने देखा कि चिन्मयी माँ उन्हें वरदान देने के लिए स्मित मुद्रा में खड़ी हुर्इ है, नरेन्द्रनाथ ने किसी भी तरह भूख मिटाने की भीख न माँगकर, ज्ञान, वैराग्य और भक्ति की ही प्रार्थना की । श्रीरामकृष्ण ने उन्हें तीन बार माँ की शरण में भेजा और तीनों बार न उन्होंने अन्न के बारे में माँगा और न कोर्इ भौतिक सहायता की प्रार्थना की । अन्तत: श्रीरामकृष्ण ने आश्र्ाीर्वाद दिया कि उनके परिवार को साधारण वस्त्र और भोजन की कमी नहीं होगी ।
परिव्राजक संन्यासी
अगस्त 1886 में श्रीरामकृष्ण का देहावसान हो जाने के बाद, वराहनगर में एक पुराने खण्डहर में बहुत से युवा शिष्य नरेन्द्रनाथ के नेतृत्व में एकत्र हुयें । यहीं कठोर आत्मसंयम और आध्यात्मिक साधना के जीवन के बीच ‘‘रामकृष्ण मठ’’ की नींव रखी गर्इ । इन्हीं दिनों नरेन्द्रनाथ अपने बहुत से गुरु भाइयों के साथ अन्तपुर गए और वहाँ खुले में प्रचण्ड अग्नि को घेरा लगाकर बैठे तथा उन्होंने संन्यास-व्रत का संकल्प लिया । वराहनगर के ये दिन आनन्द, अध्ययन और आध्यात्मिक साधना के थे । परन्तु अब अधिकांश सन्तों को परिव्राजक संन्यासी जीवन की चाह अनुभव होने लगी और नरेन्द्रनाथ ने भी सन् 1888 के बीतते-बीतते मठ से दूर, अपने जीवन के ध्येय की तीव्र पिपासा में परिभ्रमण प्रारम्भ कर दिया ।नरेन्द्रनाथ ने स्वामी सच्चिदानन्द, स्वामी विविदिशानन्द, स्वामी विवेकानन्द जैसे अनेक नाम धारण करके परिव्राजक संन्यासी के रूप में उत्तर प्रेदश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, मैसूर, केरल, मद्रास और हैदराबाद में विभिन्न तीर्थ स्थानों व ऐतिहासिक आकर्षण वाले स्थानों की यात्रा की ।
कन्याकुमारी में अद्वितीय ध्यान
भारत-भर में भ्रमण करके नरेन्द्रनाथ को पता चला कि धर्म ही भारत की शक्ति व सम्पदा है । अपने देश के प्रति प्रेम होने पर भी विवेकानन्द ने उसकी गलतियों को अनदेखा नहीं किया । लोगों की गरीबी, शिक्षा का अभाव और स्त्रियों की दुर्गति पर उनका ध्यान गया । उससे बाहर निकलने का मार्ग क्या है? कैसे भारत का पुनरुत्थान हो सकता है? वे इसके लिए क्या करें? वे इन प्रश्नों के उत्तर की खोज में थे ।कन्याकुमारी में, वे अपनी यात्रा के अन्तिम चरण में पहँुचे। उन्होंने कन्याकुमारी मन्दिर में माँ कन्याकुमारी को अश्रुपूर्ण आँखों से भावविभोर होकर साष्टांग दण्डवत् किया । अपने करोड़ों देश-वासियों के दु:ख से व्यथित हृदय लेकर, वे उस विराट समुद्र की लहरों को चीरकर दक्षिण सागर तट से कुछ दूर स्थित शिला पर बैठकर पूरी रात गहरे ध्यान में मग्न हो गए । तीन दिन व तीन रात 25, 26 और 27 दिसम्बर 1892 को उस गहन ध्यान के पश्चात् उन्होंने अपने जीवन का उद्देश्य खोज लिया । नरेन्द्रनाथ भविष्य में स्वामी विवेकानन्द के रूप में परिवर्तित हुए । हिन्द महासागर की इस अन्तिम छोर की शिला पर बैठकर उन्होंने पश्चिम में जाने का महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया, जिससे वे विश्वभर में भारत की धार्मिक परम्परा और संस्कृति को फैला सकें तथा भारत के गरीबों के लिए सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न कर सकें ।
इसी समय, उन्होंने सपने में श्रीरामकृष्ण को सागर में चलते देखा, जिन्होंने उन्हें अपने पीछे-पीछे आने का संकेत किया । इसके साथ ही पत्र द्वारा, श्रीरामकृष्ण की आध्यात्मिक पत्नी माँ सारदा देवी की अनुमति और आशीर्वाद से उनकी समस्या का समाधान हो गया । उनके युवा मित्र आवश्यक धन एकत्रित करने में लग गए ।
जब उनकी अमेरिका यात्रा की तैयारियाँ चल रहीं थीं, तभी अचानक खेतड़ी के महाराजा का निमन्त्रण आया जिसे स्वामीजी अस्वीकार नहीं कर सके । महाराजा ने उनका हृदय से स्वागत किया और उनको हर सम्भव सहयोग देने का वचन दिया । महाराजा के सुझाव पर यहाँ से ही स्वामीजी ने ‘विवेकानन्द’ नाम अपना लिया । अपने वचन के पक्के महाराजा ने अपने निजी सचिव को स्वामीजी की यात्रा की तैयारी करने और उनको मुम्बर्इ से विदा करने के लिए भेजा । उनकी अमेरिका यात्रा 31 मर्इ 1893 (ज्येष्ठ शुक्ल दशमी, विक्रम सम्वत् 1949, युगाब्द 4995) को प्रारम्भ हुर्इ ।
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