भगवत गीता सनातन धर्म की अनमोल निधि
हैं। निराश, हताश, थके, भयभीत, दुखी मानव के हृदय में यह आशा, प्रेम, शक्ति व सकारात्मक ऊर्जा का संचार करती
हैं। अर्जुन मोह में उलझकर विषाद ग्रस्त हो जाते हैं अपने कर्मक्षेत्र को छोड़कर
सन्यास लेना धर्म समझते हैं। फिर भी अर्जुन
श्री कृष्ण के प्रति समर्पण भाव रखकर उनसे मार्गदर्शन लेने की इच्छा प्रकट करते
हैं। अपने शरणागत पर कृपाकर भगवान अर्जुन को योगनिद्रा की स्थिति मे ले जाकर दिव्य
दृष्टि प्रदान करते हैं। योगनिद्रा की स्थिति में भगवान का संदेश परावाणी में
अर्जुन के अन्त:करण में गूँज उठता हैं। यह पवित्र संदेश पाकर अर्जुन वीरता, तेजस्विता, मनस्विता से परिपूरित होकर मोहनिशा से
जाग उठते हैं। इस स्थिति में उन्हें धर्म
के सही स्वरूप व कर्त्तव्य पथ का बोध् हो पाता हैं। वो हूँकार मारकर ‘‘करिष्य वचनं तव’’ कहते हुए धर्मक्षेत्रा. कुरुक्षेत्रा की पवित्र धरती पर
कर्मक्षेत्र युद्धक्षेत्र में कूद पड़ते है। एक व्यक्ति थका, बुझा जीवन से निराश भाइयों से प्रताडित
समाज से उपेक्षित निर्वासित हो चुका था वह महाभारत जैसा भीषण युद्ध जीतने में
अग्रणी रोल अदा करता हैं।
एक ऐसा ही समय भारत के इतिहास में अब
से 100 वर्ष पूर्व आता है। भारतीय समाज
पूर्णत: अग्रेंजो की गुलामी व मुगलों के अत्याचारों से टूट चुका था। 1857 की क्रान्ति फेल हो चुकी थी। आशा की
कोर्इ किरण नजर नहीं आ रही थी। सम्पूर्ण भारत छोटे-छोटे वर्गो, टुकड़ों में बिखर गया था।
एक महान भारत, नवीन भारत, संगठित भारत की कोर्इ कल्पना भी नहीं
कर सकता था। हर भारतवासी हताश, निराश, असहाय, अत्याचारो से प्रताड़ित होकर भारत भूमि को टूटता बिखरता देख रहा था।
उन्हीं दिनों भगवान कृष्ण की देववाणी
गीता का संदेश लोकमान्य तिलक, महर्षि
अरविन्द, महात्मा गाँधी के अन्त:करण में गूँजना प्रारम्भ हुआ। गीता के
पवित्र अमृत का पान कर महर्षि अरविन्द भारत की स्वतन्त्रता के लिए कठोर साधनात्मक
पुरुषार्थ में जुट गए। गीता माता का समबल पाकर मोहनदास कर्मचन्द गाँधी जैसा दुर्बल, कायर, वकील महात्मा गाँधी के रूप में विकसित हो उठा। वो इस प्रकार के तेज
पुँज, शक्ति पुँज, प्ररेणापुँज के रूप में उठ खड़े हुए कि
पूरा विश्व उन्हें महात्मा के रूप में देखने जानने लगा। अपने को दुनिया का सिरमौर
बताने वाले अंग्रेज उनका सामना करने से कतराते थे। अंग्रेज लोगों में इस प्रकार की
धरणा उपजने लगी थी कि महात्मा गाँधी से आँख से आँख मिलाकर बात मत करना। उनकी आँखो
में इस प्रकार का जादू है कि वो अपनी बात मनवाने की विलक्षण क्षमता रखते हैं।
महात्मा गाँधी गीता को माता कहा करते थे। जैसे माँ की गोद में बालक निर्भय रहता है, अपनी सब समस्याओं उलझनों से परित्राण पाता
है उसी प्रकार वो जब भी किसी गहन उलझन में फँसते, गीता माता की शरण में चले जाते। इससे उनको अपनी समस्यओं को सुलझाने
की अद्भुत शक्ति, प्रेरणा प्राप्त होती थी।
भगवद्गीता का निष्काम कर्म योग
पंच सूत्रा
1. कर्म करने का अधिकार
जिस प्रकार विवाह के समय पति सात फेरे
लेने से पूर्व यह घोषणा करता है कि वह अपनी धर्म पत्नी को प्रसन्नतापूर्वक
गृहलक्ष्मी का महान अधिकार सौंपता है उसी प्रकार भगवान भी भगवद्गीता में घोषणा
करते है कि वो कर्म करने का महान अधिकार मानव को सौंपते हैं। कर्म करने का यह
विशेष अधिकार 84 लाख योनियों में केवल मानव को ही दिया
गया हैं। अन्य सभी प्राणी मात्र अपनी प्रकृति के आधार पर विचरण करते हैं। मनुष्य
को हर प्रकार के कर्म करने की स्वतन्त्रता भगवान दे रहे हैं। कर्म के अधिकार को
पाकर प्रत्येक मानव का यह कर्तव्य बनता है कि वह स्वयं के जीवन को खुशहाल बनाए, साथ-साथ सृष्टि के समुचित विकास में भी
अपना योगदान अवश्य प्रस्तुत करें।
भगवान ने मानव पर परम कृपा करके जो यह
अधिकार सौंपा हैं, मानव को इसके दायित्व को समझना चाहिए, गम्भीरतापूर्वक इसका सदुपयोग करना
चाहिए। परन्तु मानव ऐसा नहीं करता, अपितु
वह हर समय अपने कष्टो, दुखों, कठिनाइयों का रोना रोता है दैव, भाग्य, परिस्थितियों को दोषी ठहराता हैं। यदि
किसी संस्था का बडा अधिकारी अपने अधिकारों का समुचित सदुपयोग न करें व
संस्था डूबती जाए तो इसमें किसका क्या दोष?
कर्म के अधिकार के समबन्ध् में दो बात
ध्यान देने योग्य हैं।
अ :- कर्म के अधिकार के महत्व (importance) को समझें उसकी उपयोगिता (utility) को जानें एंव कर्म में प्रवृत्त हो
जाए। यदि कोर्इ मानव आलस तथा तमस में पडा रहें व कर्म ही न करें तो उसका जीवन अभाव
व दुखो से त्रस्त हो जाएगा। इसको हम दूसरे शब्दों में कह सकते है समय संयम अर्थात
समय का सदुपयोग। जितने भी महापुरुष इस धरती पर हुए है सभी ने समय की महत्ता को
पहचाना व समय की बिल्कुल बरबादी नहीं की। एक बार महर्षि श्री राम जी से कुछ
विद्वानों ने प्रश्न किया- ‘‘आचार्य
जी आप के पास कौन सी सिद्धि है जो आपने 3200
पुस्तकें लिखी?’’ श्री राम जी ने उत्तर दिया- ‘‘यह समय संयम की सिद्धि होती है जिसके
बल पर कोर्इ भी बड़े-बड़े काम कर सकता है’’
जो समय संयम करता है वही वास्तव में
भगवान द्वारा दिए कर्म के अधिकार का उपयोग
करता है अर्थात उसका आदर करता है। अत: हमें समय की कीमत को समझकर भगवान के अधिकार
का सदुपयोग करना चाहिए।
ब:- अपने अधिकार का दुरूपयोग न करें।
जो अधिकारी स्वार्थ वश, अंह वश अपने अधिकारों का दुरूपयोग करते
है वो सरकार द्वारा दण्ड के भागी होते है। ठीक यहाँ भी यही बात है यदि मानव अपने
कर्म के अधिकार का दुरूपयोग करता है तो भगवान उसको दण्डित अवश्य करता है, यह बात मानव को अच्छे से जान लेनी
चाहिए।
(२) फल पर अधिकार नहीं
मनुष्य का फल पर अधिकार नहीं है मात्र
कर्म पर ही अधिकार है।फल के निर्धारण में कर्म के साथ-साथ अन्य बहुत सी बातें जैसे
समय, परिस्थिति, भाग्य आदि भी अपनी जोड तोड करते हैं
अत: जो भी फल मिलें उसे स्वीकार करना सीखना चाहिए। उसे लेकर अधिक चिंतित विचलित, निराश, उद्विग्न नहीं होना चाहिए।
इसका यह भी अर्थ नहीं है कि हम अपने
संकल्प, अपने उद्देश्य targets बनाए ही नहीं। अपने उद्देश्य में हम
कितने सफल हो रहे हैं कितने नहीं इसका विश्लेषण करना भी बहुत आवश्यक हैं। हमें
सपफलता क्यों नही मिली इसके विषय में सोचना जरूरी हैं। यदि हमें लगता हो कि हमें
उचित परिणाम नहीं मिल पा रहा है तो कर्म की गति को बढ़ाँए, उसमें परिवर्तन लाँए। इन सबके उपरान्त
भी हमें जो फल मिलता है उसे शिरोधार्य करना सीखें क्योंकि फल पर हमारा अधिकार नहीं
हैं। बहुत से लोग फल को लेकर चिन्तित होते रहते है ‘पता नहीं क्या फल मिलेगा, पता
नहीं सफल होगें या नहीं इस प्रकार के विचार उन्हें हर समय उद्विग्न बनाए रहते है’ भगवान ऐसे लोगो को सावधन करते है कि जब
फल पर तुम्हारा अधिकार नहीं है तो फल को लेकर क्यों उद्विग्न होते हों। यदि करना
ही है, सोचना ही हे तो कर्म के अधिकार को ठीक
से सदुपयोग करना सीखो। कर्म करना तो तुम्हारे वश की बात है फल तुम्हारे वश से बाहर
की वस्तु हैं।
श्री कृष्ण का कहना यह है कि लोग ‘कर्म’ पर इतना ध्यान केन्द्रित नहीं करते जितना ‘कर्म फल’ पर करते है। परिणाम यह होता है कि फल मिलेगा या नहीं मिलेगा यह
दुविधा, चिन्ता और डर उन्हें घेरे रहते हैं।
सफलता के लिए फल की चिन्ता करना हानिकारक है क्योंकि इससे कर्म में शक्ति लगने के
स्थान पर वह ‘फल की चिन्ता’ में नष्ट हो जाती हैं।
इस प्रकार पहला सूत्र कहता है कि भगवान
ने कर्म करने का महान अधिकार तूझे दिया है तू कर्म अवश्य कर। स्वामी विवेकानन्द ने
एक स्थान पर कहा था कि कुछ न करने से तो चोरी करना अच्छा है। यह व्यक्ति को तमस से
बाहर निकाल देता है। पूज्य गुरुदेव महर्षि श्रीराम जी कहते है कि यदि उनसे पूछा
जाये कि वे चोर या भिखारी दोनों में से किसे अधिक पंसद करेंगे तो वे चोर को अधिक
पंसद करेंगे क्योंकि वह कुछ कार्य तो करता है।
दूसरा व तीसरा सूत्र व्यक्ति को रजस से
बाहर निकालकर सात्विक कर्म करने की प्रेरणा देता हैं, निष्काम कर्म करने की प्ररेणा देता हैं
चौथा सूत्र पुन: तमस से सावधन करता है। माया बहुत प्रबल है कहीं ऐसा न हो सात्विक
कर्म करते -करते पुन: तमस व्यक्ति पर हावी होने लगें।
पांचवा सूत्र व्यक्ति को सत रज तम तीनों
से बाहर निकालकर त्रिगुणातीत होने की प्ररेणा देता हैं।
3. कर्म फल का हेतु मत बन
कर्म फल की चिन्ता अधिकांश मानव को
बेचैन, परेशान करती हैं। इससे मुक्ति के लिए
एक ओर भगवान समझाते है कि कर्मफल पर तेरा अधिकार नहीं हैं तो दूसरी ओर मानव को
कहते है ‘‘कर्म फल का हेतु मत बन’’। मानव को कर्म फल की चिन्ता इसलिए
सताती है क्योंकि वह कर्म फल का हेतु स्वयं को बनाता है। फिर कर्म फल का हेतु
किसको बनाए? पहले ‘कर्म फल का हेतु’ इसका
अर्थ समझना आवश्यक हैं ‘कर्म फल का हेतु’ से तात्पर्य है ‘किस हेतु’ कर्म करें। कर्म फल के दो हेतु है। यदि
वह स्वार्थ वश (selfish
motive) कर्म
करता है तो कर्म फल का हेतु स्वयं बनेगा और यदि वह परमार्थ वश (selfless motive) कर्म करता है तो कर्म फल का हेतु स्वयं नहीं बनेगा। समाज, राष्ट्र, मानवता किसी को भी कर्म फल का हेतु बना सकता है अर्थात उस हेतु कर्म
कर सकता हैं।
अब समाज, राष्ट्र, मानवता के लिए कर्म करने का मन बनाते
हैं समाज, राष्ट्र, मानवता का हित कैसे होगा? किस
बात की सर्वोपरि आवश्यकता है समाज को, राष्ट्र
को आज? मनुष्य का चारित्रिक पतन हो गया हैं, चरित्र कैसे सही होगा? धर्म के सूत्रों को सही रूप में
अपनाकर! धर्म भारतीय समाज की वह रीढ़ है जिसकी मजबूती पर पूरे शरीर का ढ़ाँचा
निर्भर करता हैं। आज यह रीढ़ टूटी पडी हैं। धर्म के प्रति आस्था मृतप्राय हैं लोग
मात्र अपने कष्टो को दूर करने अथवा मनोकामना पूर्ति हेतु अथवा अपना धंधे चलाने के
लिए, प्रसिद्धि पाने के लिए धर्म की आड लेते
हैं। यह तो श्रद्धा नहीं हुयी। सुख हुआ तो माँ बाप को भूल गए दुख हुआ तो माँ बाप
को याद किया। कैसी विडम्बना है? कौन
सनातन धर्म के पवित्र सूत्रों को ठीक से समझ कर अपने जीवन में उतारने का प्रयास
करता है? भारत एक भ्रष्ट राष्ट्र बन गया है यहाँ
चहुँओर धृतराष्ट्र का शासन है, जबकि
धर्म मनुष्य की आत्मा को जगाकर उसको सत्य, प्रेम, न्याय के पथ पर चलाता हैं। अपनी इसी
विशेषता के बल पर भारत एक चरित्रवान, महान
राष्ट्र के रूप में विश्वनन्दनीय था। सनातन ध्र्म की पुर्नस्थापना, मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना यह इस
समय की महती आवश्यकता हैं यदि हम ऐसा न कर किसी और प्रयोजन से कार्य कर रहे है तो
हम स्वयं की किसी इच्छा वश कर्म करके स्वयं को कर्मफल का हेतु बना रहे है जो कि
निष्काम कर्मयोग के विरुद्ध हैं।
यहाँ पर एक प्रश्न उठना स्वाभाविक है
कि यदि व्यक्ति स्वयं को कर्मफल का हेतु न बनाए तो उसका अपना शरीर घर परिवार कैसे
चलेगा? यह बात ठीक है कि प्राचीन काल में भारत
दूध् दही, फल फूलों से परिपूरित था तब जो लोग
समाज, राष्ट्र का काम करते थे उन्हें अपने
भरण पोषण की समस्या नहीं था। परन्तु आज जनसँख्या बहुत बढ़ गयी है, रोटी, कपडा, मकान बहुत मँहगे हो गए हैं अत: इस हेतु
भी कर्म करना होगा। इस सूत्र को आज के सन्दर्भ में अधिक व्यवहारिक रूप से स्वीकार
करने के लिए दो हेतु प्रत्येक को बनाने चाहिए-मुख्य हेतु व गौण हेतु (main objectives) and (sub objectives)
समय की आवश्यकता, राष्ट्र-समाज की आवश्यकता की पूर्ति
में जीवन समर्पित हो पाँए इस हेतु अधिकांश समय व मनोभूमि का निर्माण करना चाहिए।
घर परिवार, शरीर की आवश्यकता पूर्ति हेतु भी
प्रयास करना है यह भी हमारा दूसरा उद्देश्य हैं।
कर्मयोग को उचित रूप से अपनाने वाला
व्यक्ति बहुत शक्तिशाली हो जाता हैं घर-परिवार व शरीर की आवश्यकताँए भी वह कम रखता
हैं तथा थोडे प्रयासो से ही इसको हासिल कर लेता है इसलिए इस हेतु को गौण माना जाना
चाहिए।
आज समाज की विपरीत स्थिति है सभी अपने
को कर्मयोग का सिद्ध साधक भी समझते हैं परन्तु अधिकांश समय व प्रयास निज की महत्वाकाँक्षाओं की पूर्ति
हेतु निवेदित करते हैं जो कि इस सूत्र की गरिमा के विरूद्ध हैं। इस सूत्रा के
अनुसरण का सबसे अच्छा उपाय है- लोक कल्याण के लिए समयदान अंशदान देना। जिसके पास
रोटी, कपडा और मकान की आवश्यकता जितने अर्थो
में पूरी हो रही हो वह उतना अधिक समय संसाधन युग की माँग के पूरा करने में लगाए
तभी वह यह सन्तोष कर सकता है कि इस सूत्र का अनुसरण कर रहा है। यदि कोर्इ व्यक्ति
युग की माँग को पूरा करने के लिए समयदान, अंशदान
नहीं करता तो उसे स्पष्ट स्वीकार कर लेना चाहिए कि वह निष्काम कर्मयोग के मार्ग पर
नहीं चल रहा है।
4. कर्म न करने में भी तेरी आसक्ति न हों
कर्इ बार व्यक्ति लोक कल्याण के लिए
अपना मन बनाता है, इस हेतु समयदान करता है, परन्तु समयदान को लेकर गम्भीर नहीं
रहता। मान लीजिए आप किसी संस्था में समयदान करने दो घण्टा रोज जाते है या वर्ष में
एक माह जाते हैं। वहाँ जाकर आपको कोर्इ कडी जिम्मेदारी नहीं दी जाती जिससे आप अपना
अधिकांश समय इध्रर उध्रर की गप्पबाजी में व्यतीत कर देते हों या काम करने से जी
चुराते हों। भगवान कृष्ण कहते है कि कर्म योग का चौथा सूत्र है कठिन परिश्रम कर।
आलस्य या प्रमाद में तेरी आसक्ति न हों।
कुछ व्यक्तियों का यह सहज स्वभाव होता
है कि वो उदार प्रवृत्ति के तो होते है परन्तु आलसी प्रकृत्ति के होते हैं। ऐसा
नहीं होना चाहिए। कर्इ बार व्यक्ति जब स्वार्थ वश काम करता है तो बडे ढ़ंग से बडे
मन से करता है परन्तु परमार्थ का कार्य बेमन से करता है। कार्य तो लोकमंगल के लिए
करें, साथ-साथ मन लगाकर परिश्रम पूर्वक करें
यही इस सूत्रा का सन्देश हैं।
5. योग में स्थित होकर कर्म कर
उपरोक्त चार सूत्र व्यक्ति को निष्काम
कर्म करने की राह पर चलाते हैं। इस राह पर चलने में भी अनेक प्रश्न उठने स्वाभाविक
है जैसे यदि लोककल्याण का कार्य ही करना हैं तो क्या किया जाए? लोककल्याण के अनगिनत कार्य हैं। किस
संस्था के साथ जुडकर कार्य किया जाए? कौन
सा मंच पकडा जाए? लेखन का, भाषण का, अस्पताल में रोगियों की सेवा का, गरीब बच्चो को पढाने का आदि-आदि।
निष्काम कर्म करने में अनेक कठिनार्इयाँ भी आती है उनका हल कैसे हों?
मान लीजिए मेरे बच्चे छोटे हैं मैं किस
स्तर का कार्य चलाँऊ। कहीं ऐसा न हों, बच्चे
उपेक्षित होने लगें, बूढे़ माँ बाप उपेक्षित होने लगें।
श्री अरविन्द ने I.C.S. को लात मारकर राष्ट्र को स्वतन्त्रता
दिलानेके लिए आत्मदान किया। दस वर्ष वो एक क्रान्तिकारी के रूप में राष्ट्र को
स्वतन्त्रता दिलाने का कार्य करते रहें परन्तु अपनी अन्तरात्मा की प्रेरणा के आधर
पर उन्हें अपना वह रूप छोडकर साधना का पथ पकडना पडा। यह भी आवश्यक नहीं है कि
प्रत्येक को साधना का पथ ही फलदायी हो।
हमें कौन सा पथ लेना है? किस प्रकार कार्य करना है? इसके लिए भगवान कहते है कि अर्जुन तू
योग में स्थित हो जा अर्थात आत्मा परमात्मा की प्रेरणा के आधर पर कर्म कर।
जैसे-जैसे व्यक्ति निष्काम कर्म योग के चारो सूत्रों पर चलता हे उसकी पवित्रता
बढ़ती जाती है, आत्मा सशक्त, जागरूक होकर परमात्मा/गुरु के साथ
संयुक्त होकर व्यक्ति का मार्गदर्शन करने लग जाती हैं। इसे कहते है योग में स्थित
होकर कर्म करना। व्यक्ति कर्म ही दो प्रकार से करता है या तो प्रकृति की प्रेरणा
से या परमात्मा की प्रेरणा से। प्रकृति की प्रेरणा अर्थात किसी आसक्ति ;संग के वशीभूत होकर। परमात्मा की
पे्ररणा से अर्थात योग में स्थित होकर।
श्री अरविन्द ने गीता पर 'Essays on the Gita' लिखे हैं। श्री अरविन्द का कहना है कि
गीता मानव को ‘मानव कर्म’ के लिए नहीं, ‘दिव्य-कर्म’ के लिए प्रेरित करती है। ‘दिव्य-कर्म’ क्या है? इस विश्व का नियन्त्रण मनुष्य नहीं कर रहा, भगवान कर रहा है, कोर्इ दैवी शक्ति कर रही है। उस दिव्य
शक्ति का विश्व के संचालन में जो उद्देश्य है उस उद्देश्य के साथ एकत उत्पन्न कर
लेना, उस उद्देश्य को पूर्ण करने में अपनी
शक्ति लगा देना ही दिव्य-कर्म हैं। ‘दिव्य-उद्देश्य’ (Divine purpose) को पूर्ण करने वाला कर्म ‘दिव्य-कर्म’ (Divine action) है, और
जब मनुष्य दिव्य कर्म करने लगता है तब वह स्वयं कर्म नहीं कर रहा होता, मनुष्य को माध्यम बनाकर भगवान ही कर्म
कर रहा होता है, मनुष्य तो निमित्तमात्र होता है ‘निमित्तमात्रा भव सव्यसाचिन!’ ‘दिव्य-कर्म’ का यह अर्थ नहीं है कि उसमें ‘मानव-कर्म’ आ नहीं जाता या इन दोनो का सदा विरोध्
है। समाज-सेवा, अपने अपने चातुर्वण्र्य का पालन, समाज के निश्चित किए हुए कर्तव्य कर्म
ये सब दिव्य कर्म के अंग हो सकते है, ये
दिव्य कर्म के अंग है भी,
इसलिए चल भी रहे हैं, परन्तु ऐसा अवसर आ सकता है जब ‘दिव्य-कर्म’ और ‘मानव-कर्म’ में विरोध् उठ खडा हो। बुद्ध के जीवन
में ऐसा अवसर आया, दयानन्द, रामकृष्ण परमहंस ओर विवेकानन्द के जीवन में भी ऐसा अवसर आया। उस समय
उन्होंने ‘मानव-कर्म’ को, उस
कर्म को जिसे हम ‘कर्तव्य कर्म’ कहते हैं, परे फेंककर ‘दिव्य-कर्म’ को पकडा, अन्तरात्मा की पुकार सुनी, अपने
भीतर बैठे परमात्मा के आदेश का पालन किया, सांसारिक
कर्तव्य-अकर्तव्य के मोह में नहीं पडे। गीता का प्रतिपाद्य विषय यही दिव्य कर्म है, यही निष्काम कर्म हैं।
भगवान कृष्ण कहते है कि आसक्ति को
त्यागकर योग में स्थित होकर कर्म कर इससे तू परमात्मा को समर्पित होकर उसकी खुशी
के लिए कर्म करेगा ऐसी स्थिति में ही तू सिद्धि -असिद्धि अर्थात सफलता-असफलता में समान बना रह सकता है
और जब तूझे किसी प्रकार की सफलता-असफलता में कोर्इ आशा-निराशा न हो, समता की स्थिति बन जाए तो यही योग की
वास्तविक स्थिति हैं।
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