Friday, June 14, 2013

भव्यता अथवा दिव्यता का वरण


सूरदास जी के जीवन का प्रसंग है एक बार वो कहीं कुएँ में जा फंसे। श्री कृष्ण को पुकारते रहे। उनकी पुकार सुन श्री कृष्ण आए उन्हें कुएँ से बाहर ​निकाला दृष्टि प्रदान की। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर वर माँगने को कहा। सूरदास जी ने भगवान से प्राथर्ना की ​जिन नेत्रों से उन्होंने भगवान के दशर्न ​किए उससे ​फिर ​किसी अन्य को देख पाएँ। भगवान ने उनके नेत्र वापिस ले लिए। लौ​किक दृष्टि से यह बहुत ही मुखर्तापूर्ण लगता है कि सूरदास जी ने आए हुए नेत्रों के लौटा दिया। परन्तु पारलौ​किक दृष्टि से यह बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। ​जिनके नेत्रों से भगवान के दशर्न कर सूरदास जी ने दिव्यता ग्रहण की, उनके पुन: दु​निया में उलझ जाएँ इस भय से उन्होंने नेत्र लौटा ​दिए। साधके के ​लिए यह बहुत ही आवश्यक हो जाता है कि वह संसार की भव्यता से आकर्षित  हो पाए। साधना के थोड़ा सा उन्नत होते ही भव्यता उसके इर्द गिर्द चक्कर लगाने लगती है। चेहरे पर थोड़ा तेज आते ही विपरीत लिंग के लोग आगे पीछे मंडराने लगते हैं। संकल्प में थोड़ी सी शक्ति आते ही गाड़ी वाले अमीर लोगों से लेकर राजनेता आगे पीछे घूमने लगते है। साधक को बड़ी गम्भीरतापूवर्क यह विश्लेषण करना होता है कि कैसे भगवान का काम भी करें? भव्यता में फँसकर एक मासूम बच्चे की तरह गुरुदेव की गोदी में भी खेलता रहें। एक बार भव्यता हावी हुइ तो अंहकार अथवा कुर्सी का लोभ जाग उठता है साधना खोने लगती है।
अर्जुन के जीवन में भी यही चयन का समय आया एक जगह श्री कृष्ण निहत्थे अपने दिव्य रूप में ​विराजमान है तो दूसरी ओर उनकी भव्य ​विशाल सेना। दुर्योधन भव्यता को चुनता है तो अर्जुन दिव्यता का वरण करता है। गायत्री मन्त्र साधक में देव पथ पर चलने की प्रेरणा जागाता है। देव संस्कृति दिग्विजय तभी संभ्भव होगा जब बड़ी सख्याँ में लोग दिव्यता का महत्व समझकर उसके लिए सम​पिर्त होगें।

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