इन्द्रिय सुखो की प्रकृति
ये हि सस्ंपर्शा भोगा, दुखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्ते कौन्तये, न तेषु रमते बुध्:।।
ये जो भी इन्द्रियों के स्पर्श से
उत्पन्न भोग है ये सभी दुखो की योनि है योनि का अर्थ है उत्पत्ति का स्थान। कहने
का तात्पर्य है कि इन्द्रिय जन्य भोगो से संसार में विभिन्न प्रकार के दुखो का
जन्म होता है।
ये सभी भोग आदि और अन्त वाले है जैसे
यदि समोसा, मिठार्इ आदि खार्इ तो जितने समय खार्इ
उतने समय तक ही सुख का आभास होगा अर्थात अल्प मात्रा में अस्थार्इ सुख देते है
परन्तु दुखो में उलझने का खतरा हमेशा रहता हैं।
इसलिए बुद्ध अर्थात बुद्धिमान, प्रज्ञावान, ज्ञानवान पुरुष इनमें रमण नहीं करते।
संसारिक सामान्य प्राणी दिन रात भोगो
से सुखो की कल्पना करते रहते है उनकी प्राप्ति के संरजाम जुटाते रहते है उसके लिए
ताने बाने बुनते रहते है अर्थात इन्द्रिय भोगो में रमते है। परन्तु बुद्धिमान
पुरुष इनकी वास्ताविकता को जानते है, समझते
है इसलिए इनकी प्राप्ति के लिए अपना समय नष्ट नहीं करते।
उपर्युक्त श्लोक में कृष्ण चेतावनी
देते है कि इन्द्रिय भोग मानव के जीवन को दुखो, कष्टो
से भर सकते है इसलिए इनकी प्रवृति के प्रति सदा सावधन रहा जाए।
इनकी प्रकृति के बारे में एक श्लोक ओर
आता है।
इन्द्रिय सुखो को विषय सुख भी कहा जाता
है क्योंकि ये विष के समान घातक सिद्ध हो सकते हैं।
विषयो का ध्यान अर्थात विषय सुखो के
बारे में मनन चिन्तन, कल्पनाँए करने वाले पुरुष की विषयों
में आसक्ति अर्थात लगाव उत्पन्न हो जाता हैं आसक्ति का अर्थ है प्रिय लगना। जब
व्यक्ति विषयों के बारे में सोचता है तो उसे वो स्वाभाविक रूप से प्रिय लगने लगते
है। आसक्ति से विषयों को भोगने की कामना उत्पन्न होने लगती है। जैसे यदि कोर्इ
व्यक्ति अश्लील फिल्म देखता है तो कामुक चिन्तन (विषय चिन्तन) प्रारम्भ हो जाता है
यह कामुक चिन्तन उसे प्रिय लगने लगता है फिर उसकी पूर्ति की कामना उत्पन्न होने
लगती हैं। कामना पूर्ति में विघ्न आते है जिससे क्रोध होता है।
कामना पूर्ति में विघ्न बहुत से कारणो
से आ सकते है। जैसे
-- कामना पूर्ति के लिए भोग्य पदार्थ
उपलब्ध् नहीं है।
-- कामना पूर्ति के लिए वातावरण उपलब्ध्
नहीं है।
-- कामना पूर्ति के लिए सामाजिक अथवा
नैतिक अनुमति नहीं है।
-- कामना पूर्ति के लिए शारीरिक अथवा
मानसिक रूप से व्यक्ति समर्थ नहीं है।
ऐसी स्थिति में क्रोध का आना स्वाभाविक
है भले ही वह क्रोध स्वयं पर आए।
इस प्रकार का क्रोध मूढभाव अर्थात एक
प्रकार की खिसियाहट (चिडचिडापन) पैदा करता हैं। इससे स्मृति भ्रम पैदा हो जाता है
अर्थात इस कामना के पूरा करने के क्या नुकसान है इस प्रकार की तथ्य अथवा बाते उसको याद नहीं रहती। एक प्रकार का कामना पूर्ति
का आवेश इतना जबरदस्त रूप से उत्पन्न हो जाता है कि वह सभी प्रकार की नैतिक अनैतिक
मर्यादाओं का उल्लंघन कर कामना पूर्ति के लिए बाèय हो जाता है। इस स्थिति को बुद्धि नाश अथवा ज्ञान शक्ति (विवेक)
हृास होने की संज्ञा दी जाती है।
भोगो से बचाव
भोगो की ज्वाला से स्वयं को बचाने का पहला
मार्ग तो यह है कि विषयो का चिन्तन न करें। अपने मन को श्रेष्ठ संकल्पों में
समायोजित किये रखें जिससे भोगो के चिन्तन का अवसर न मिलें। इसके उपरान्त भी यदि
इन्द्रिय भोगो की इच्छा उभरे तो इसको सहन करने का प्रयास करना चाहिए ठीक वैसे जैसे
जीवन में सर्दी-गर्मी व सुख-दुख को व्यक्ति सहन करता है। ये विषय सुख व्यक्ति को
उसके उद्देश्य से भटकाते है। जैसे धीर पुरूष सर्दी गर्मी, सुख दुख से विचलित हुए अपने उद्देश्य
की प्राप्ति में तल्लीन रहता है वैसे ही मोक्ष को अपना उद्देश्य बनाने वाला साध्क
भी इन इन्द्रिय सुखो के बिना विचलित हुए धैर्य पूर्वक सहन करता हैं।
परम शान्ति का मार्ग
जो व्यक्ति भोगो के चंगुल (बन्धक) से
मुक्त होने लगता है वही आनन्द व शान्ति को प्राप्त करता है।
अपने अधीन किए हुए अन्त:करण वाला साधक
अपने वश में की हुयी, राग-द्वेष से रहित इन्द्रियो द्वारा
विषयों में विचरण करता हुआ अन्त:करण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है।
जिस प्रकार यदि नौकर स्वामी पर हावी
होने लगे तो सारी व्यवस्था बिगड जाएगी इसी प्रकार यदि इन्द्रियाँ वश में न हो व
व्यक्ति पर हावी हो जाए तो जीवन अव्यवस्थित हो जाएगा। यदि इन्द्रियाँ वश में हो, राग-द्वेष से मुक्त हो अर्थात
इन्द्रियों का न किसी से राग है न द्वेष है जैसे जीभ का न तो छोले भटूरे खाने में
राग है न ही लौकी की सब्जी खाने में द्वेष है जो मिल जाए वही प्रसन्नतापूर्वक
स्वाद के साथ ग्रहण कर ली जाती है ऐसे पुरूष के आगे यदि बहुत सी विषय भोग की
सामग्री प्रस्तुत कर दी जाए तो भी वह उनमें न उलझकर उनका उचित सदुपयोग करता हुआ
अन्त:करण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है।
जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से
परिपूर्ण, अंचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में उसको
विचलित न करते हुए ही समा जाते है वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरूष में किसी
प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते है वही पुरूष परमशक्ति के प्राप्त
होता है, भोगो को चाहने वाला नहीं।
मध्यम मार्ग
भोगो में सुख या बन्धन
यदि हम सामान्य स्तर पर समाज में भोगों
के प्रारूप पर विचार करें तो अधिकाँश जनता भोगो को सुख का साधन समझकर उनमें सलग्ंन
है। क्योंकि इनका स्वरूप कुछ इस प्रकार का है कि प्रारम्भ में भोग भोगने में बडा
मजा आता है परन्तु जैसे ही भोगों में थोड़ी भी अति होती है। तुरन्त दुख का अम्बार
लगना प्रारम्भ हो जाता हैं। अधिकाँश जनता भोगों में ज्यादती के कारण दुख पा रही
हैं। भोगों में भी जीभ और जननोन्द्रिय सर्वाध्कि बलवान हैं। मूलत: इन्हीं दोनों
में असंयम के कारण व्यक्ति आज गंभीर रोगों से ग्रस्त बना हुआ है।
इस प्रकार यदि विवेकदृष्टि से सोचा जाए
तो यह निष्कर्ष निकलता है कि भोगो में आसक्ति (मर्यादा से अधिक भोग भोगने की
इच्छा) मानव के लिए एक बन्धन हैं। इस आसक्ति से छुटकारा पाना भी सरल कार्य
नहीं हैं। यदि भोगो से पूर्ण विरत रहा जाए
तो भी जीवन नीरस बन जाता है। यदि भोगो में आसक्त हो जाए तो जीवन रोगमय हो जाता है।
यह कुछ इस प्रकार है कि एक ओर खार्इ है दूसरी ओर नदी बह रही है। बीच में चलना हैं, बहुत सन्तुलन की आवश्यकता है। जो
धैर्यवान, विवेकवान, सहनशील, आत्मबल सम्पन्न व्यक्ति इस प्रकार का सन्तुलन बैठा पाने में सक्ष्म
है वही प्रसन्नचित्त रह सकता है। भोगो को मर्यादानुसार भोगते हुए उनकी नि:सारता को
समझ सकता है।
समाज में लगभग 10 प्रतिशत व्यक्ति ऐसे होगें जिनके पास
प्रचुर भोग्य सामग्री विद्यमान है। लगभग 90
प्रतिशत व्यक्ति ऐसे है जो भोग्य सामग्री के लिए तरसते है। उपरोक्त 10 प्रतिशत व्यक्ति इसलिए दुखी है कि वो
भोगो में अति कर बैठते है जिसके भयंकर दुष्परिणाम उन्हें भोगने पड रहे हैं। 90 प्रतिशत व्यक्ति इसलिए दुखी है कि वो
भोगो के लिए तरसते हैं।
पहले 10 प्रतिशत लोगो को विवेक से यह समझ जाना चाहिए कि इन्द्रिय सुखो की एक
सीमा है, यह एक प्रकार का माया जाल है जो जितना
विवेकवान है इस माया के जाल को समझने में उतना सक्षम होगा। सुकरात से पूछा गया कि
जीवन में सम्भोग कितनी बार करना चाहिए। उसने उत्तर दिया ‘‘ सिर्फ एक बार’’ ‘‘सिर्फ एक बार करके यह समझ जाना चाहिए
कि इसमें सुख जैसी कोर्इ भी बात नहीं है।’’
दूसरी बात यह है कि इन्द्रियों के भोग
भोगने की एक क्षमता है। यदि हम सुख के चक्कर भोग की सीमा बढ़ाते चले गए तो भोग
भोगने की इन्द्रियों की शक्ति खत्म हो जाएगी। जैसे यदि कोर्इ अधिक मिर्च खाने लगे
तो उसकी जिहवा मिर्च का स्वाद लेना बन्द कर देगी और उसे किसी भी चीज में मिर्च
लगना समाप्त हो जाएगा। इस प्रकार एक अमीर व्यक्ति यदि भोग में अति करता है तो उसके
दो नुकसान है पहला उसका शरीर रोगो का घर बन जाएगा दूसरा उसमें उस इन्द्रिय की भोग
भोगने की क्षमता ही बहुत अल्प हो जाएगी। जिससे भविष्य में उसे भोगों के सुख से
मजबूरी वश वंचित होना पड़ेगा।
यदि हम भोगो के पूर्ण त्याग की बात
करें तो हमें गुरुकुल, ऋषियों के आश्रम जैसे पवित्र वातावरण
चाहिए। वो भी मिलना आज संभव नहीं हैं इस कारण भोगो को पूर्ण त्याग की सम्भव नहीं
है। यदि लम्बे समय तक भोग भोगने की इच्छा बनी रहे व व्यक्ति बाहर से हठ पूर्वक
अपने को उस भोग भोगने से वंचित रखे तो भी स्वास्थ्य के लिए उचित नहीं होगा।
इसलिए भोगो के विषय में मध्यम मार्ग
में कुछ बातें अपनायी जाए।
1) त्याग वृत्ति अपनाए इससे भोगो में रूचि
कम होगी।
2) विषय भोगो का चिन्तन कम से कम करें मन
को शुभ संकल्पो में लगाए रखें।
3) शास्त्रोक्त मर्यादानुसार भोग करें व
भोगों की नि:सारता के समझने का प्रयास करें। इससे अधिक यदि भोगो की इच्छा हो तो
उसे सहन करना सीखें।
No comments:
Post a Comment