बाबा कीनाराम के बारे में आचार्यश्री ने अच्छी तरह पढ़ा हुआ था। इस संत ने औघड़ संप्रदाय का प्रवर्तन भले ही न किया हो, लेकिन अपनी परंपरा में उनकी ख्याति सबसे ज्यादा है। जन्म उनका लगभग चार सौ साल पहले हुआ था। तंत्र और योग मार्ग के सिद्ध साधकों में लगभग प्रत्येक ने उनसे कभी न कभी मार्गदर्शन पाया था। चार सौ वर्ष पूर्व उनका जन्म और जीवन भी असाधारण ही था। औघड़पन उनमें बचपन से ही था और मर्यादा पुरुषोत्तम राम के प्रति भक्ति भी।
उनके संबंध में कर्इ चमत्कारी घटनाएँ प्रसिद्ध हैं। इनमें कर्इ अतिरंजित भी होगी, लेकिन लोग उन्हें बहुत श्रद्धा से स्मरण करते हैं। बचपन की एक घटना तो यही विख्यात है कि उन्हें अपनी पत्नी के निधन का तत्क्षण पता चल गया था। उन दिनों छोटी उम्र में विवाह हो जाना आम बात थी। बारह वर्ष की उम्र में ही उनका विवाह हो गया और तीन साल बाद गौने की तिथि तय हो गर्इ।
सिद्ध
शिष्य
यात्रा
के एक दिन पहले कीनाराम ने अपनी माँ से दूध और भात माँगा। माँ ने मना किया कि दूध-भात नहीं, दही-भात खा लो। कीनाराम नहीं माने। माँ को लाचारी से दूध-भात ही देना पड़ा। अगले दिन जब गौने के लिए रवाना होने लगे तो खबर आर्इ कि पत्नी का निधन हो गया है। माँ रोने लगी और कीनाराम को कोसते हुए कहा-’’मैं समझ गर्इ थी कि कोर्इ न कोर्इ अशुभ होना ही है। यात्रा के समय कोर्इ दूध-भात खाता है क्या?’’
कीनाराम
ने कहा-’’नहीं माँ मैंने तुम्हारी बहू के मरने के बाद ही दूध-भात खाया। विश्वास नहीं हो तो किसी से पूछ लो। वह कल शाम को ही मर गर्इ थी। मैंने तो राम को दूध-भात खाया है।’’ माँ के माध्यम से यह बात पूरे गाँव में फैल गर्इ थी। लोगों को भी आश्चर्य हुआ कि कीनाराम को आखिर इस बात की जानकारी कैसे हुर्इ।
इस घटना के कुछ दिन बाद ही पुनर्विवाह की बात चलने लगी, लेकिन कीनाराम ने इनकार कर दिया। घर के लोगों का दबाव फिर बढ़ता ही गया। इन दबावों से पिंड छुड़ाने के लिए कीनाराम घर से निकाल गए। घूमते-घामते गाजीपुर आए। उन दिनों गाजीपुर में रामानुजी संप्रदाय के अनुयायी संत शिवराम रहते थे। कीनाराम ने उनसे कहा कि आपके पास रहने और साधना करने की इच्छा थी। शिवराम जी ने उन्हें अपने यहाँ रख लिया। गुरु की सेवा के बाद जितना समय मिलता था वे उतनी देर भजन करते और मस्त रहते। एक दिन उन्होंने दीक्षा देने के लिए कहा, पर शिवराम जी ने उसे टाल दिया। कुछ दिन बाद फिर अनुरोध किया। शिवराम जी ने फिर टाल दिया। कीनाराम बराबर याद दिलाते रहे। अंतत: कर्इ महीनों बाद परीक्षा लेने पर शिवराम ने कहा-’’कीनाराम चलो गंगा तट पर तुम्हें दीक्षा देते हैं।’’
गुरु का आदेश पाते ही कीनाराम प्रसन्न मन उनके साथ चल दिए। रास्ते में अपना आसन, कमंडल कीनाराम को देते हुए उन्होंने कहा-’’तुम यह सब लेकर घाट पर चलो, मैं आता हँू।’’
गुरुदेव
की सामग्री लेकर कीनाराम घाट पर आकर बैठ गया। थोड़ी देर बाद उन्होंने महसूस किया कि गंगा की लहरें उनके पैरों पर आकर टकरा रही हैं। कीनाराम ने आचमन किया और कुछ ऊपर जाकर बैठ गए। थोड़ी देर बाद फिर वैसा ही हुआ। कीनाराम फिर उठे और काफी ऊपर जाकर बैठे। वहाँ भी गंगा आकर उनके पैरों से टकराने लगी। इस घटना को देखकर वह हक्के-बक्के रह गए।
उनके पीछे बाबा शिवराम मौन खड़े यह दृश्य देख रहे थे। उन्हें लगा कि कीनाराम अवश्य ही असाधारण व्यक्ति है। यह विलक्षण घटना थी। स्नान करने के बाद बाबा शिवराम कीनाराम को लेकर मंदिर में गए और वहीं दीक्षा दी। दीक्षा ग्रहण करने के बाद कीनाराम प्रचंड रूप से जप-साधना में लग गए। गुरु प्रेरणा से वे फिर स्वतंत्र घूमने लगे। समय आने पर हिमालय आ गए।
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