Wednesday, October 23, 2013

आचार्य रामानुज एवं दस्यु दुर्दम


आचार्य रामानुज अलौकिक संत थे। उनकी आध्यात्मिक विभूतियाँ उनके समय में हर एक के द्वारा कही-सुनी जाती थीं। उनके अनेकों अनुयायियों में एक अनुयायी ऐसा भी था, जो उनका अनुगमन अनुसरण करने से पहले दस्यु था। इस दस्यु की दहशत चारों ओर थी। आस-पास के और दूर-दूर के लोग उसके नाम से ही घबराते थे। बड़ा कठोर स्वभाव था उसका। दुर्दम नाम था उसका। उस क्षेत्र के नरेश और उनकी सेना कर्इ बार उसे पकड़ने का असफल प्रयास कर चुकी थी, फिर भी वह बिना किसी रोक-टोक घूमता था।
ऐसा भयानक दस्यु जिसे पकड़ने में राज्य की संपूर्ण सेना असफल हो चुकी थी, वह कालवश एक अति सुंदर नर्तकी के प्रेम में पड़ गया। यह नर्तकी जिसका नाम स्वर्णरोमा था। दुर्दम उसके आगे-पीछे सदा घूमता रहता। एक अजीब सी स्थिति थी यह, जो देखता उसे यह सब अटपटा लगता, पर कोर्इ करता भी क्या! दुर्दम का आतंक उन्हें भयभीत बनाए रखता था। उन्हीं दिनों श्रीरंगम में एक विशाल मेला आयोजित हुआ। इस मेले में आचार्य रामानुज आए हुए थे। दुर्दम भी स्वर्णरोमा के साथ वहाँ पहँुच गया। आचार्य अपने शिष्यों के साथ एक वृक्ष की छाँह में बैठे थे। इधर दुर्दम स्वर्णरोमा के पीछे-पीछे छतरी लिए चल रहा था। उसके मुख पर अजीब सी बैचेनी, पीड़ा विकलता के भाव थे। स्वर्णरोमा यदा-कदा उसे डाँट देती। इतना भयानक दस्यु और एक सुंदर नर्तकी के सम्मुख इतना विवश। इस विचित्र स्थिति को देख तो सभी रहे थे, पर कह कोर्इ कुछ नहीं रहा था।
आचार्य रामानुज ने भी यह दृश्य देखा। उन्होंने अपने शिष्यों से पूछा-’’कौन है यह विचित्र मनुष्य?’’ शिष्यों ने एकदूसरे की ओर देखा, फिर बोले-’’भगवन्! यह खतरनाक दस्यु दुर्दम है।’’ यह उत्तर सुनकर आचार्य ने थोड़ी देर के लिए सोचा, फिर बोले-’’अच्छा! तुम लोग उसे मेरे पास बुलाकर ले आओ।’’ इस आदेश को सुनकर शिष्यों ने थोड़ी देर के लिए तो सोचा, फिर उन्होंने आचार्य की आध्यात्मिक शक्तियों पर विश्वास करके अपने पाँव आगे बढ़ाए। वे दुर्दम के पास पहुँचकर बोले-’’हमारे आचार्य ने तुम्हें बुलाया है।’’ ‘‘आचार्य रामानुज ने बुलाया है।’’ यह सोचकर दुर्दम थोड़ा सकपकाया, डरा; क्योंकि उसने भी आचार्य के अलौकिक, आध्यात्मिक व्यक्तित्व के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था।
पर करता भी क्या? वह चुपचाप स्वर्णरोमा के साथ आचार्य की ओर चल पड़ा। पास पहुँचकर उसने आचार्य को प्रणाम किया। आचार्य रामानुज ने उससे पूछा-’’वत्स! तुम बलिष्ठ होकर इतने भयभीत क्यों हो? इस सुंदरी के पीछे इस तरह क्यों घूम रहे हो?’’ उत्तर में उसने कहा-’’भगवन्! इसकी सुंदरता ने मुझे सम्मोहित कर रखा है। इसके कारण मैं इसके पीछे घूमता रहता हँू, परंतु इसकी नाराजगी से मुझे सदा डर लगा रहता है।’’ इससे आचार्य हँसकर बोले-’’यदि कोर्इ तुम्हें इससे भी सुंदर मुख दिखा दे तो?’’ ऐसा कहकर आचार्य ने अपने तपबल से उसे भगवान श्रीकृष्ण की भुवनमोहिनी झलक दिखा दी। इसे देखकर दुर्दम विà हो गया। उसने आचार्य से कहा-’’भगवन्! अब तो मुझे इन्हीं का साथ चाहिए।’’ आचार्य बोले-’’इसके लिए तो साधना करनी होगी वत्स!’’
उत्तर में उसने कहा-’’मैं सब कुछ कुरूँगा।’’ भगवान श्रीकृष्ण की एक झलक एवं आचार्य रामानुज के मार्गदर्शन ने दस्यु दुर्दम को संत बना दिया। इस कथा को सुनाते हुए परमपूज्य गुरुदेव ने बताया था कि समाधि की एक झलक, निरोध परिणाम का एक क्षण जीवन में ऐसा ही सुपरिणाम, सत्परिणाम ला देता है। उसे और अधिक पाने की खोज और अधिक अपनाने की इच्छा, जीवन को आमूलचूल रूपांतरित कर देती है। फिर विचारों की उधेड़बुन शांत हो जाती है और निर्विचार की अवस्था सहज और स्वाभाविक हो जाती है।

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