Sunday, October 6, 2013

Jeevan Sanghrash Book-New Matter part-5

आस्तिकता अर्थात् चरित्रनिष्ठा
     इन्हीं मान्यताओं का फल आज हम यह देख रहे हैं कि पूजा-अर्चना में बहुत धन और समय खर्च करने वाले व्यक्ति भी चारित्रिक दृष्टि से बहुत गये-गुजरे देखे जाते हैं। मन्दिर झाँकी, भजन-कीर्तन में बहुत उत्साह दिखाने वाले भी गुप्त-प्रकट रूप से बुरी तरह पाप पंक के डूबे रहते हैं। जो कुछ होता है र्इश्वर की इच्छा से ही होता है’-ऐसा मानने वाले आलसी और अकर्मण्य बनकर अपनी हीन स्थिति का दोष र्इश्वर को लगाते रहते हैं और प्रगति के लिए प्रतीक्षा करते रहते हैं कि जब कभी र्इश्वर की इच्छा को जाएगी तभी अनायस सब कुछ हो जाएगा। ऐसे लोग अनीति और अत्याचारों को भी र्इश्वरेच्छा मानकर चुपचाप सहते रहते हैं। वे किसी दीन-दु:खी और निराश्रित की सेवा-सहायता करने से भी इसीलिए विमुख रहते हैं कि इससे र्इश्वर की इच्छा को विरोध होगा। इन्हीं मान्यताओं के आधार पर एक हजार वर्ष तक हम विदेशी आक्रमणकारियों के बर्बर अत्याचार सिर झुकाये सहते रहे। सोमनाथ मंदिर की अपार सम्पति लूटते देखकर हमें भगवान की प्रार्थना करने के सिवाय कर्त्तव्यपालन का कोर्इ अन्य मार्ग सूझा। आस्तिकता का असली स्वरूप भुला कर जो अविवेकपूर्ण धारणा हमने अपनार्इ, उस के कारण हम वस्तुत: र्इश्वर से अधिकाधिक दूर होते गये। आस्तिकता के नाम पर हमने दिखावटी पूजा-पाठ को जो भाव अपनाया उससे हमने पाया कुछ नहीं, केवल खोया ही खोया।
     ऐसे विषम समय में तत्वदश्र्ाी लोग भारी पीड़ा अनुभव कर रहे थे कि क्या इन काली घटाओं को चीरकर फिर कभी सच्ची आस्तिकता का सूर्य उदय होगा? यह प्रार्थना र्इश्वर ने सुनी और वह दिन फिर सामने आया जिसमें जन साधारण को आस्तिकता का सच्चा स्वरूप समझने का अवसर मिल सके। युग-निर्माण योजना को आस्तिकता के पुनरुद्धार का आन्दोलन ही कहना चाहिए। कहते हैं कि किसी समय नारद जी ने भक्ति का घर-घर प्रचार करने का व्रत लिया था और वे अथक परिश्रम करके सारी पृथ्वी पर अनवरत भ्रमण करते हुए समस्त नर-नारियों को र्इश्वर उपासक बनाने में जुट गये। युग-निर्माण-योजनाा के जन्मदाता ने भी आस्तिकता की प्रेरणा करोड़ों आत्माओं तक पहँुचार्इ है ओर 28 लाख से अधिक व्यक्ति गायत्री के नैष्ठिक उपासक बनाये है। अब प्रयत्न यही है कि घर-घर में आस्तिकता की आस्था फलती-फूलती नजर आवे। युग निर्माण योजना का प्रथम लक्ष्य आस्तिकता का प्रसार करना ही है। समस्त हिन्दू जाति को उसकी संस्कृति के उद्गम केन्द्र से परिचित करने और गायत्री के माध्यम से भावनात्मक एकता उत्पन्न करने के लिए जो प्रयत्न किया जा रहा है, उससे जातीय एकता का एक नवीन अरुणोदय होगा और हम चारों वेदों की जननी महाशक्ति गायत्री के साथ-साथ उसके 28 अक्षरों में सन्निहित अपनी महान् संस्कृति को भी समझ सकेंगे जातीय उत्कर्ष की दृष्टि से निश्चय ही यह एक बहुत बड़ा काम होगा।
   युग-निर्माण योजना के अन्तर्गत जिस आस्तिकता का प्रसार किया जा रहा है उसमें जप, तप, हवन, पूजन, भजन, ध्यान, कथा, कीर्तन, तीर्थ, पाठ, व्रत, अनुष्ठान आदि के लिए परिपूर्ण स्थान है पर साथ ही समस्त शक्ति लगा कर हर आस्तिक के मन में यह संस्कार जमाये जा रहे हैं कि र्इश्वर को निश्पक्ष, न्यायकारी और घट-घट वासी समझते हुए कुविचारों और दुष्कर्मों से डरें और उनसे बचने का प्रयत्न करें। प्रत्येक प्राणी में र्इश्वर को समाया हुआ समझकर उसके साथ सज्जनता-पूर्ण सद्व्यवहार किया जाए। कर्त्तव्यपालन को ही र्इश्वर की प्रसन्नता का सबसे बड़ा उपहार मानें और प्रभु की इस सुरम्य वाटिका-पृथ्वी में अधिकाधिक सुख-शान्ति विकसित करने के लिए एक र्इमानदार माली की तरह सचेष्ट बने रहें। अपना अन्त:करण इतना निर्मल और पवित्र बनाया जाए कि उसमें र्इश्वर का प्रकाश स्वयमेव झिलमिलाने लगे। प्रार्थना केवल सद्बुद्धि, सद्गुण, सद्भावना, सहनशीलता, पुरुषार्थ, धैर्य, साहस और सहिष्णुता के लिए आवश्यक क्षमता प्राप्त करने की ही की जाए। परिस्थितियों को सुलझााने और अभावों की पूर्ति के लिए जो साधन हमें मिले हुए हैं उन्हें ही प्रयोग में लाया जाए और संघर्ष का जीवन हँसते-खेलते बिताते हुए मन को संतुलित रखा जाए। ये ही सब आस्तिकता के सच्चे लक्षण हैं। युग निर्माण योजना का प्रयत्न यह हैं कि इन लक्षणों से युक्त भक्ति और पूजा की भावना को जन-मानस में स्थान मिले और सच्ची आस्तिकता के अपनाने के लिए मानव मात्र का अन्त:करण उत्साहित होने लगें।
     मनुष्य का कल्याण परमपिता परमात्मा की शरण में जाने से ही हो सकता हैं। असुरता के चगुंल से छुड़ाकर देवत्व की ओर अग्रसर होने की प्रवृत्ति ही साधना कहलाती हैं। साधना से हमारा जीवन सुव्यवस्थित और सुसंस्कृत भी बनता जाता हैं, पर यह तभी सम्भव होता हैं, जब हम जड़-विज्ञान तथा स्वार्थपूर्ण दिखावटी आस्तिकता से बचकर सच्चे स्वरूप में र्इश्वर की उपासना करेंगे। युग-निर्माण योजना मानव मात्र के हृदय में सच्ची आस्तिकता उत्पन्न करके उनका हित साधन करने के लिए ही चलार्इ गर्इ है।
                                                 वाड्मय 66-2-57,58,59
     भारतवर्ष यदि अपनी समस्त कठिनार्इयों को हल करके संसार का मार्गदर्शन करना चाहे तो उसका एक मात्र आधार अध्यात्म ही है। इसी के द्वारा हमारा भूतकाल महान बन सकता था और इसी से भविष्य के उज्जवल बनने की आशा भी की जा सकती है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि हम व्यावहारिक अध्यात्म का स्वरूप सर्व-साधारण को समझा सकें और उसके प्रत्यक्ष लाभों से लोगों को अवगत करा दें।
     अभी भारत में-हिन्दू धर्म में-धर्ममन्च से, युग निर्माण परिवार में यह मानव जाति का भाग्य निर्माण करने वाला अभियान केन्द्रित दिखार्इ पड़ता हैं। पर अगले दिनों उसकी वर्तमान सीमाएँ अत्यन्त विस्तृत होकर असीम हो जायेंगी। तब किसी संस्था-संगठन का नियन्त्रण निर्देश नहीं चलेगा वरन् कोटि-कोटि घटकों से विभिन्न स्तर के ऐसे ज्योति-पुंज फूटते दिखार्इ पडें़गे, जिनकी अकूत शक्ति द्वारा सम्पन्न होने वाले कार्य अनुपम और अद्भुत ही कहे जायेंगे। महाकाल ही इस महान परिवर्तन का सूत्रधार हैं और वही समय अनुसार अपनी आज की मंगलाचरण थिरकन को क्रमश: तीव्र से तीव्रतर, तीव्रतम करता चला जायगा। ताण्डव नृत्य से उत्पन्न गगनचुम्बी ज्वाज्वल्यमान आग्नेय लपटों द्वारा पुरातन को नूतन में परिवर्तित करने की भूमिका किस प्रकार, किस रूप में अगले दिनों सम्पन्न होने जा रही हैं, आज उन सबको सोच सकना, कल्पना परिधि में ला सकना सामान्य बुद्धि के लिए प्राय: असंभव ही हैं। फिर भी जो भवतव्यता हैं वह होकर रहेगी। युग को बदलना ही हैं, आज की निविड़ निशा के कल का प्रभात कालीन अरूणोदय में परिवर्तन हो कर रहेगा।

                                            -वाड्मय 66-3-39,40


एक समस्या के दो पहलू
     भौतिकता और आध्यात्मिकता परस्पर दोनों एक दूसरे से जुड़ी हुर्इ हैं, एक के बिना दूसरी अधूरी है। जंगल में गुफा में भी रहने वाले विरक्त महात्मा को भोजन, प्रकाश वस्त्र, माला, कमण्डल, आसन, खड़ाऊँ, पुस्तक, कम्बल, आग आदि वस्तुओं की आवश्यकता रहेगी ही और इन सब को जुटाने को प्रयत्न करना ही पड़ेगा, इसके बिना उसका जीवित रहना भी सम्भव रहेगा। इतनी भौतिकता तो गुफा निवासी महात्मा को भी बरतनी पडे़गी और अपने परिवार के प्रति प्रेम और त्याग बरतने की आध्यात्मिकता चोर-उठार्इगीर और निरंतर भौतिकवादी को भी रखनी पडे़गी। भौतिकता को तमतत्व और आध्यात्मिकता को सततत्व, माना गया है। दोनों के मिलने से रजतत्व बना है। इसी में मानव की स्थिति है। एक के भी समाप्त हो जाने पर मनुष्य का रूप ही नहीं रहता। तम नष्ट होकर सत ही रह जाए तो व्यक्ति देवता या परमहंस होगा, यदि सत नष्ट होकर तम ही रह जाए तो असुरता या पैशाचिकता ही बची रहेगी। दोनों स्थितियों में मनुष्यत्व का व्यतिरेक हो जाएगा। इसलिए मानव जीवन की स्थिति जब तक है तब तक भौतिकता और आध्यात्मिकता दोनों ही साथ-साथ रहती हैं। अन्तर केवल प्राथमिकता का है। सज्जनों के लिए आध्यात्मिकता की प्रमुखता रहती है, वे उसकी रक्षा के लिए भौतिक आधार की बहुत अंशों तक उपेक्षा भी कर सकते हैं। इसी प्रकार दुर्जनों के लिए भौतिकता का स्थान पहला है। वे उस प्रकार के लाभों के लिए आध्यात्मिक मर्यादाओं का उल्लंघन भी कर देते हैं। इतने पर भी दोनों ही प्रकृति के लोग किसी किसी रूप में भौतिक और आत्मिक तथ्यों को अपनाते ही हैं, उन्हें अपनाये ही रहना पड़ता है।

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