किसी को आगे बढ़ाने के लिये प्रोत्साहन में जादू का सा असर होता है। वे मुनष्य समाज के शुत्र हैं, जो दूसरों के काम में नुकताचीनी ही किया करते हैं। औरों का दोष निकालना, बुरा-भला कहना, निराश करना, साहस को तोड़ना जिनका स्वभाव है। जिसमें यह दुर्गुण हो, भयंकर विषधर से उसे किसी प्रकार कम न समझना चाहिए। भविष्य में जब मनोविज्ञान शास्त्र को शासन व्यवस्था में स्थान मिलेगा, तो ऐसे मनुष्यों को एकांत स्थानों में सदैव के लिए बंद कर देने की सजा दी जाया करेगी। किसी को हतोत्साहित कर देने में जितनी घातकता छिपी हुर्इ है, ठीक उसके विपरीत शक्ति का भंडार प्रोत्साहन में भरा हुआ है। अंधे संन्यासी द्वारा प्रोत्साहित किया हुआ बालक दयानंद युगांतकारी ऋषि सिद्ध हुआ। गुरु रामदास का शिष्य एक दुबला-पतला मराठा बालक सिंह शिवाजी के रूप में प्रकट हुआ। तलाश किया जाय तो संसार के महान् व्यक्तियों और महान् कार्यों के पीछे प्रोत्साहन की सबसे बड़ी शक्ति पिछी पड़ी है। मुर्दा मनुष्य में प्रोत्साहन के प्राण फँूककर उसे सजीव बनाया जा सकता है। हतोत्साह किये जाने पर ही अधिकांश आत्महत्याएँ होती हैं और प्रोत्साहित होकर पशु से मनुष्य एवं मनुष्य से देवता बन जाते हैं। जिन्हे सैदव मुर्ख, बेवकूफ, बुद्धिहीन, आदि शब्दों की घातक चोटें सहनी पड़ी है, वे विकसित मस्तिष्क होने पर भी मूर्ख बन जायेंगे, जिन्हें अपने कार्यों की प्रशंसा सुनने का अवसर मिलता है, वे कमजोर मस्तिष्क वाले भी बुद्धिमान् बन जाते हैं। यदि आपको अपपने अधीनस्थ व्यक्तियों को बुद्धिमान् बनाना है, तो उन्हें उत्साहित करते रहिए। दोनों के लिए थोड़ा समझाने का अधिकार उसे है और वही सुधार भी सकता है, जो गुणों के लिए भरपूर प्रशंसा करता है। सफलता पर बधार्इ एक बहुत ही आवश्यक धार्मिक कृत्य समझना चाहिए।
परंतु जिन लोगों के हाथ में यह पुस्तक होगी, वे स्वयं बुद्धिमान् बनने का प्रयत्न कर रहे होंगे, उन्हें प्रोत्साहन कौन देगा? माँग-माँग कर प्रोत्साहन लेना निरर्थक है। ऐसी दशा में पाठकों को अपने आप अपने को प्रोत्साहन देने की व्यवस्था करनी पडे़गी। चिंता मत कीजिए कि आपको अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनने के लिए कहा जा रहा है। यदि ऐसी ही बात है तो भी इसमें कुछ बुरा नहीं है, क्योंकि यह बात आपको अकेले में अपने-आप करनी पडे़गी। आपकी एकांत बातों को दूसरे क्या जानेंगे? पूर्वोक्त नियम के अनुसार अपने सुंदर भविष्य की कल्पना करने से प्रोत्साहन मिलता है। जैसे-जैसे किसी विषय का ज्ञान संपादन करने में सफलता प्राप्त करते चलें, वैसे-वैसे अपनी पूर्व स्थिति से तुलना करके प्रसé होते जाइए। जितना आप सीख चुके हैं, उसका मुकाबला उनसे कीजिए, जिनके पास वह वस्तु नहीं है, तब आपको अपनी महानता प्रतीत होगी। बड़ी योग्यता वालों से अपना मुकाबला न कीजिये, वरन् उनसे स्पर्द्धा कीजिए कि आप में भी वैसी योग्यताएँ हो जावें। मन में निराशा के विचार मत आने दीजिए, अपने ऊपर अविश्वास मत कीजिए। प्रभु का अमर पुत्र मनुष्य किसी प्रकार की योग्यता से रहित नहीं है। साधन मिलने पर उसके सब बीज उगकर महान् वृक्ष बन सकते है। आपको बुद्धिमान् बनना है, इसलिये अपनी पीठ ठोकते रहिए। माता जिस प्रकार बालक को उत्साहित कर देती है, उसी प्रकार आपकी आत्मा के द्वारा आप मन को उत्साहित करना चाहिए, उसकी पीठ ठोकते हुए प्रशंसा करनी चाहिए और बढ़ावा देना चाहिए।
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