माता-पिता दोनों की ही लाड़ली थी-सिरिमा। जन्म से ही सुन्दर सुशील और शान्त स्वभाव की थी भगवान् बुद्ध पर उसकी अगाध श्रद्धा थी- किशोरवस्था से ही उसका बुद्ध धर्म के प्रति असीम अनुराग था तथापि उसने कर्त्तव्य पालन के प्रति कभी भी उपेक्षा प्रदर्शित नहीं की, अपितु वह आदर्शों के आसमान तक पहँुचने के स्वप्न देख करती थी। इसी से प्रभावित अभिभावकों ने उसे साहित्य और संगीत की भी शिक्षा दिलार्इ। ज्ञान के क्षेत्र में वह सिंहल द्वीप की अद्वितीय स्नातिका मानी जाती थी।
उचित समय देखकर पिता ने एक धानाड्य व्यापारी पुत्र सुमंगल के साथ उसका पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न कर दिया। ससुराल के भी सभी सदस्य सिरिमा से अगाध स्नेह रखते और उसके सद्गुणों की सराहना करते रहते थे। पिपता की ढलती आयु देखकर सुमंगल स्वयं व्यापार में हाथ बटाने लगा और कुछ ही दिनों में उसमें प्रवीण पारंगत हो गया। एक दिन वह विदेश व्यापार के लिए निकल पड़ा। ओर अकूत सम्पत्ति अर्जित कर वापस घर लौटा।
परिवार
ही नहीं उसके स्वागत के लिए समुद्र तट पर अनेक भद्र श्रीमंत जन भी पहुँचे, उनमें उसकी सहधर्मिणी सिरिमा भी थी और सिंहल की अद्वितीय सुन्दरी नगरवधू मंदारमाला भी। सुमंगल की व्यापार नौका तट पर लगी और उसकी पहली ही दृष्टि मंदारमाला पर गर्इ तो वह अपनी सुलक्षणा सहधर्मिणी सिरिमा को भी भूल गया। उतर कर उसने शिष्टाचार तो सभी के साथ किया पर गणिका ने जो काम-बाण चलाया वह सुमंगल को बींध कर चला गया।
घर आकर भी सुमंगल का चित्त मंदारमाला में ही अटका रहा, यह बात सिरिमा से छुपी न रही अन्तत: उसने पूछ ही लिया-देव! प्रतीत होता है आप का चित्त गणिका में अनुरक्त हो गया है? सुमंगल ने उत्तर दिया- आप वस्तुस्थिति समझ रही हैं तो फिर प्रश्न क्यों कर रही है? इसी बीच मंदारमाला की दासी पत्र लेकर उपस्थित हुर्इ। सिरिमा के पूछने पर उसने अपनी स्वामिनी गणिका की भी स्थिति ज्यों की त्यों बता दी। सिरिमा ने गर्वोन्नत स्वर में उत्तर दिया-अपनी मालकिन से कह देना- सुमंगल चाहिए तो कोठा छोड़कर एक साध्वी धर्मपत्नी की तरह रहना और गृहस्थ में बसना होगा।
अंधे को क्या चाहिए? दो आँखे। वह मिल जाये ंतो कौन अभागा होगा जो शर्त न स्वीकार करे? सजी धजी गणिका सुमंगल के घर पहँुच गर्इ। एक महान् संत की तरह सिरिमा के हृदय में न राग था न विराग, न मोह न ही द्वेष। सुमंगल की मनोदशा वह पहले ही पहचान चुकी थी। अपने पपति सुमंगल और गणिका मंदारमाला दोनों को मंदिर ले जाकर विधिवत विवाह सम्पन्न करा दिया और स्वयं श्वेत देश धारण कर भगवान बुद्ध की भिक्षुणी बन कर समर्पित हो गर्इ। भगवान् बुद्ध ने उसे पहले ही दिन बौद्ध विहार का अध्यक्ष घोषित कर दिया।
अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा के साथ सिरिमा ने बुद्ध धर्म को ऊँचाइयों तक पहँुचाया। एक दिन वह अपनी सम्पूर्ण श्रद्धा के साथ भगवान बुद्ध के ध्यान में डूबी हुर्इ थी तभी एक भिक्षु रुदन करता हुआ सिरिमा के चरणों में आ गिरा। सिरिमा ने सम्पूर्ण वात्सल्य के साथ उसे उठाया धाव धोये पटृी लगार्इ। सुश्रूषा करते सिरिमा ने पूछा-तात! इस तरह क्रूर का आघात तुम पर किसने किया?
प्रहरी
उन्हीं क्षणों में अपराधिनी महिला मंदारमाला को लेकर उपस्थित हुए। देवी! यही है वह जिन्होंने भिक्षु के सिर पर चाँदी का पात्र प्रहार कर इन्हें लहूलुहान किया है प्रहरी ने बताया। दृश्य देखकर सिरिमा अवाक् थी। उसके सम्मुख वही मंदारमाला खड़ी थी जिसका पाणिग्रहण सिरिमा ने ही स्वयं अपने पति सुमंगल से कराया था।
बिना सिर उठाये क्षीण स्वर में सिरिमा ने प्रश्न किया-भद्रे! आखिर इस बालक पर आघात करने की क्या आवश्यकता पड़ गर्इ? सिसकियों के बीच अपराधिनी का कंठ फूटा-देवी! आपने स्वयं जिनका विवाह मेरे साथ कराया था वही मेरे पति सुमंगल कल एक अन्य युवती के साथ विवाह कर रहे हैं। जबसे मैंने यह संवाद सुना अपना आपा खो बैठी। उसी समय यह भिक्षु आकर भिक्षा माँगने लगा आवेश में मुझ से यह अपराध हो गया।
उस दिन सिरिमा ने विहार के सभी भिक्षुओं को यह घटना सुनाते हुए उपदेश दिया-यह संसार बुरा नहीं धन और काम भी बुरा नहीं पर यदि वह सब धर्म की परिधि में हो। तभी व्यक्ति सुखी रह सकता है। कितना ही सुख भोग लो एक दिन संसार तो छोड़ना ही पडे़गा। जब मनुष्य यह भूल जाता है तभी वह मार्ग से भटकता है। इसीलिए प्रारंभ में धर्म और अंत में मोक्ष के बीच में अर्थ और काम को रखा गया है। ध्यान रहे जीवन यापन के लिए आने वाली पीढ़ी को शिक्षित सुखी तथा समुन्नत बनाने के लिए धन अनिवार्य है और संसार चलाने के लिए काम वासना भी पर यह दोनों उच्छृंखल न होने पायें इसलिए उन पर पहले चरण में धर्म और अन्तिम चरण में मोक्ष की अभिलाषा अनिवार्य है यह मर्यादा न रही तो दोनों का इसी तरह सर्वनाश कर डालते हैं।
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