यह वर्णन स्वतत्रंता आन्दोलन के समय का है
साण्डर्स वध के पश्चात लाहौर की पुलिस पर जैसे वज्रपात हो गया। वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो दौड़ती फिरी, परन्तु घटना का कोई सूत्र उसके हाथ न आ सका, वह बौखली उठी, उसने लाहौर को घेर लिया था। लाहौर इस समय नजर बंद हो गया था। पुलिस सर-धड़ की बाजी लगा क्रान्तिकारियों की टोह में जुटी थी। जिस व्यक्ति पर भी संदेह की सुई टिक गई, वही अन्दर हो गया।
साण्डर्स वध के पश्चात क्रान्तिकारी चैन से नहीं बैठे। उनकी सक्रियता अगले दिन की सुबह दीवारों पर साफ दिखाई दे रही थी। गुलाबी कागजों पर लाल स्याही से अंग्रेजी में छपे पोस्टर स्थान-स्थान पर चिपके अंग्रेजी सरकार का मुँह चिढ़ा रहे थे। जनता यातना झेलने के बावजूद देश के लाड़ले सपूतों की बहादुरी से प्रसन्न थी। क्रान्तिकारीयों ने अंग्रेजी सरकार के मुँह पर ऐसा झापड़ टिकाया कि उसकी झन्नाहट से सरकार का पोर-पोर हिल गया। पोस्टर का हिन्दी रूपान्तरण इस प्रकार है-
हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातन्त्र सेना नोटिस
“नौकरशाही सावधान”
जे पी साण्डर्स की मृत्यु से लाला लाजपत राय की हत्या का बदला ले लिया गया था।
यह सोचकर कितन दु:ख होता है कि जे पी साण्डर्स जैसे एक मामूली अफसर के कमीने हाथों देश की तीस करोड़ जनता द्वारा सम्मानित नेता पर हमला कर उसके प्राण ले लिए गए। राष्ट्र का यह अपमान हिन्दुस्तान के नवयुवकों की चुनौती थी।
आज संसार ने देख लिया कि हिन्दुस्तान की जनता निष्प्राण नहीं हो गई है। उसका खुन जम नहीं गया है। यह अपने राष्ट्र के सम्मान के लिए प्राणों की बाजी लगा सकती है और यह प्रमाण देश के उन नवयुवकों ने दिया है, जिनकी स्वयं इस देश के नेता निन्दा और अपमान करते हैं।
अत्याचारी सरकार सावधान!
इस देश की दलित और पीड़ित जनता की भावनाओं को ठेस मत लगाओ।
अपनी शैतानी हरकतें बंद करो। हथियार न रखने के लिए बनाए गए तुम्हारे सब कानूनों और चौकसियों के बावजूद पिस्तौल और रिवाल्वर इस देश की जनता के हाथ में आते ही रहेंगे। यदि ये हथियार सशस्त्र क्रान्ति के लिए पर्याप्त न हुए तो भी राष्ट्रीय अपमान का बदला लेते रहने के लिए तो काफी रहेंगे ही। हमारे अपने लोग हमारी निन्दा और अपमान करें। विदेशी सरकार चाहे कितना ही दमन कर ले, परन्तु हम राष्ट्रीय सम्मान की रक्षा करने और विदेशी अत्याचारियों को सबक सिखाने क लिए सदा तत्पर रहेंगे। हम सब विरोध और दमन के बावजूद क्रांन्ति की पुकार बुलन्द करेंगे और फाँसी के तख्तों से भी पुकारते रहेंगे-
इन्कलाब जिन्दाबाद
हमें एक आदमी की हत्या करने का खेद है। परन्तु यह आदमी निर्दयी, नीच और अन्यायपूर्ण व्यवस्था का अंग था, जिसे समाप्त कर देना आवश्यक था। इस आदमी का वध हिन्दुस्तान के ब्रिटिश शासन के कारिन्दे के रूप में किया गया है। यह सरकार संसार की सबसे अत्याचारी सरकार है।
मनुष्य का रक्त बहाने का हमें खेद है, परन्तु क्रान्ति की बलिदेवी पर खून बहाना अनिवार्य हो जाता हैं हमारा उद्देश्य ऐसी क्रान्ति से है, जो मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का अन्त कर देगी।
इन्कलाब जिन्दाबाद
इन पोस्टरों को देखकर लाहौर की पुलिस का जैसे लकवा मार गया, वह हताश नजर आ रही थी। एड़ी-चोटी का जोर लगाने के पश्चात् भी साण्डर्स वध के सूत्र तलाशने में उसे असफलता ही हाथ लगी।
क्रान्तिकारी दल अपना काम पूरा करने के बाद एक जटिल समस्या का निदान खोजने में लगा था। लाहौर की नाकेबन्दी कर दी गई थी। साण्डर्स की हत्या से जुड़े प्रमुख सदस्यों का सकुशल लाहौर से निकाल देने का प्रश्न था, जिसका समाधान कतई सरल नहीं था।
सुखदेव का इस समस्या के समाधान का कार्य सौंपा दिया गया। वे जी-जान से इस काम मे जुट गए।
इस समय चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह और राजगुरू को लाहौर से सुरक्षित निकालना क्रान्तिकारीयों की प्राथमिक सुची में था। सुखदेव ने योजना तैयार कर ली और उसे क्रियान्वित करने में लग गए। क्रान्तिकारीयों का स्वछन्दतापूर्वक घूम पाना सम्भव नहीं था। पूरा लाहौर छावनी में बदल गया था कोई ऐसा स्थान नहीं था जहाँ पुलिस दल के लोग गुप्तचर के रूप में उपस्थित न हों, परन्तु सुखदेव ऐसे महत्त्वपूर्ण कार्य में जुटे थे, जिसके कारण स्वयं को सुरक्षित रखने के लिए किसी कोने में छिपकर बैठे रहना सम्भव नहीं था। वे भूमिगत हुए सतर्कता के साथ अपने काम में जुटे थे।
रात का प्रथम पहर अपने मध्यम चरण में था। सुखदेव अपने गन्तव्य की ओर निकल पड़े, पुलिस की खोजी आँखों से बचते हुए सुखदेव ने धीरे से दुर्गा भाभी के द्वार पर दस्तक दी। द्वार खुला तो वे अन्दर चले गए। दुर्गा भाभी उस समय अध्यापक से संस्कृत पढ़ रही थी। पुलिस की दृष्टि से बचे रहने क लिए उन्होंने यह कार्य आवश्यक समझा। सुखदेव का इस समय आ धमकना उन्हें आश्चर्य नहीं लगा। उस घर में क्रान्तिकारीयों का आना-जाना हर समय बना रहता था, परन्तु सुखदेव के चेहरे की अतिरिक्त गम्भीरता उनके मन में प्रश्न उपजाने क लिए पर्याप्त थी। दुर्गा ने प्रश्न -भरी दृष्टि से सुखदेव की ओर देखा। सुखदेव ने उत्तर देने की बजाय बिना किसी भूमिका के दुर्गा भाभी से सीधा प्रश्न किया,‘‘किसी व्यक्ति को अपने साथ लेकर आप बाहर जा सकेंगी ?’’
कारण जान लेने की आज्ञा दल के किसी सदस्य को नहीं थी। दुर्गा भाभी ने उत्तर में कहा,‘‘छुट्टियाँ बाकी हैं नहीं।’’
‘‘छुट्टियाँ लेना क्या सम्भव नहीं है?’’ सुखदेव ने गम्भीरता से पूछा।
परिस्थितियाँ सामान्य नहीं हैं, दुर्गा भाभी समझ गई थी। उन्होंने हामी भर दी। भगवतीचरण पहले ही ‘‘मेरठ षड्यन्त्र’’ केस के कारण अज्ञातवास में थे। घर में केवल दुर्गा थी और उनका तीन वर्ष का बेटा शची। शची को किसके सहारे छोड़ना होगा? यह प्रश्न दुर्गा भाभी के मन में आना स्वाभाविक था, तभी सुखदेव ने कहा, बेटे को भी साथ ले जाना होगा, यह आवश्यक है।’’
‘‘अच्छा।’’ दुर्गा ने कहा।
सुखदेव उसी समय उठ खड़े हुए। चलते समय बोले,‘‘भाभी, क्या कुछ रूपयों का प्रबन्ध सम्भव है?’’
‘‘हाँ, भगवतीचरण एक दिन आए थे और वे एक हजार रूपये रख गए थे।’’
सुखदेव ने पाँच सौ रूपये दुर्गा भाभी से लिए और चले गए। दो सौ रूपये उन्होंने गोपीचन्द भार्गव से माँग लिए थे।
दुर्गा भाभी ने अवकाश के लिए प्रार्थना-पत्र लिखा और विद्यालय के प्रबन्धक श्री हंसराज तक पहुँचाने क लिए धन्वन्वरी को सौंप दिया। उन्होंने अनिश्चित यात्रा की तैयारी आरम्भ कर दी थी। उस समय उन्हें यह जानकारी नहीं थी कि उसे किसके साथ कहाँ जाना है। ऐसा जान लेने का नियम दल में नहीं था। इसलिए दुर्गा ने भी कुछ पुछने का प्रंयास नहीं कियां सुखदेव ने दुर्गा को यह संकेत अवश्य कर दिया था कि आपकी यह यात्रा जोखिम से भरी है। कहीं भी निर्णायक स्थिति उत्पन्न हो सकती है। सोच समझकर ‘‘हाँ’’ भरना।
दुर्गा ने लापरवाही से कहा था, ‘‘सोच लिया है।’’ वे आत्मविश्वास से भरी थीं।
अगले दिन दोपहर के चढ़ते सुखदेव दुर्गा के घर पहुँचे, उनके साथ दो जवान और थे, जिन्हें दुर्गा भाभी पहचान नहीं रही थीं। एक युवा फैल्ट हैट ओढ़े, पतलून और ऊपर बढ़िया ओवरकोट, पैर में चमकते हुए काले बूट जूते पहने छ: फुटा गोरा-चिट्टा पंजाबी जवान, जो उच्च अधिकारी लग रहा था। उनके साथ एक नौकर था, जो एक पुरानी-फटी दरी को लपेटकर साथ लिए था। उसका सिर मुँडा हुआ था और शरीर पर पुराने कपड़े। वह गुसलखाने के पास तखत पर अपना बिस्तर रखकर बैठ गया था।
सुखदेव ने ओवरकोट पहने युवक की ओर संकेत करके दुर्गा भाभी से पूछा,‘‘भाभी, इन्हें पहचाना?’’
दुर्गा ने उस युवक की ओर ध्यान से देखा और बोली,‘‘नहीं, कहीं देखा भी हो तो ध्यान नहीं है।’’ अब भी दुर्गा भाभी की दुष्टि उस युवक के चेहरे पर टिकी थी। युवक की हँसी छूट पड़ी तो दुर्गा भाभी ने आश्चर्य से कहा, ‘‘अरे भगत! सचमुच मैं तो जरा भी नहीं पहचान पाई। ’’
भगतसिंह मुस्कराते हुए बोले,‘‘ मैं अपने इम्तहान में पास हुआ। अब लाहौर की पुलिस मुझे नहीं रोक सकेगी।’’
राजगुरू को पहचानने का तो प्रश्न ही नहीं था। कहने के बावजूद भी उस तख्त पर ही बैठा रहा शान्त और गम्भीर। उसने खाना भी वहीं बैठकर खाया। प्रयास के बाद भी उसने आपसी बातचीत के कोई भागीदारी नहीं की।
कलकत्ता मेल की प्रथम श्रेणी में एक छोटा डिब्बा (कूपा) छद्म नामों से लाहौर से कलकत्ता तक के लिए सुरक्षित करा लिया गया था। तीसरी श्रेणी का एक टिकट भी राजगुरू के लिए ले लिया गया था।
वह रात भगतसिंह और राजगुरू ने भगवती चरण के मकान पर ही बिताई। करने के लिए ढ़ेरों बातें थीं। रात कब बीत गई, पता ही न चला। भगतसिंह की दुष्टि जब भी दुर्गा के बेटे शची की ओर जाती तो उनके चहरे पर उदासी उतर आती, वे जानते थे कि भाई भगवती चरण पहले ही क्रान्ति की कठिन डगर पर उतर गए हैं, अब उनका बेटा और पत्नी भी देश की आजादी के लिए क्रान्ति की शूलभरी कठिन राह पर बढ़ जाने के लिए तत्पर हैं। इस यात्रा का परिणाम क्या होगा, कोई नहीं जानता।
20 दिसम्बर सन् 1928 की भोर आई। तारों की रोशनी अभी मद्धिम नहीं होने पाई थी कि आजादी के दीवाने अपने सर को हथेली पर रखकर लम्बे सफर के लिए निकल पड़े। अब वे लाहौर के रेलवे स्टेशन पर थे। युवा अधिकारी की बाई गोद में उसका तीन वर्षीय बेटा। बेटे का मुँह उसके मुँह के सामने। ओवरकोट के कालर कानों तक ऊपर उठे हुए। दायाँ हाथ ओवरकोअ की जेब में भरे पिस्तौल पर जमा हुआ, उसकी उंगलियाँ पिस्तौल के घोड़े (ट्रिगर) पर सधी हुई। आधुनिक सुन्दर पत्नी उसके साथ एकदम सतर्क और सावधान। उसके पास भी भरी पिस्तौल और उस पर जमा हुआ दायाँ हाथ। वे हर परिस्थिति से निबट लेने की तैयारी में थे। लाहौर का पूरा रेलवे स्टेशन पुलिस और उसके गुप्तचरों से भरा हुआ। किसी क्षण कुछ भी घट जाने की पूरी सम्भावना।
पुलिस के पास भगतंसिंह का चित्र था, एक अविवाहित सिक्ख युवा का चित्र। उसे ही तलाशने में भरी सर्दियों में भी लाहौर की पुलिस को पसीना आ गया इस समय भी स्टेशन पर पुलिस की आँखे उसी युवक को सतर्कता से खोज रही थीं। विवाहित युवा अधिकारी पर उनकी दृष्टि नहीं टिकी। वैसे भगतसिंह पूरे सतर्क थे। उन्होंने अपना चेहरा बेटे शची के चेहरे से ढक लिया था।
कलकत्ता मेल पटरी पर आई। भगतसिंह और दुर्गा भाभी सुरक्षित कराए डिब्बे में चले गए। उन्हें लग रहा था कि जैसे स्टेशन पर उपस्थित हरेक आँख उन्हें ही देख रही है, परन्तु आत्मविश्वास और संयम का उन्होंने अपने हाथ से नहीं जाने दिया। गाड़ी अब लाहौर के स्टेशन को छोड़ रही थी। कई दिन से जागते रहने के बावजूद भी उनकी आँखों में नींद नहीं थी। बेटा शची कुछ देर बाद फिर सो गया था।
राजगुरू अपनी पुरानी दरी लपेटे तीसरे दर्जे के डिब्बे मे सवार हो गया था।
राजगुरू कहाँ उतरे गए, पता नहीं, पर भगतसिंह और दुर्गा भाभी कलकत्ता की ओर बढ़े जा रहे थे। उन दिनों सुशीला दीदी कलकत्ता में थी। भगतवी चरण वोहरा भी कलकत्ता में ही भूमिगत हो अपनी गतिविधियों को गति दे रहे थे। कलकत्ता मेल लखनऊ पहुँची तो कुछ देर रूकी। भगतसिंह ने दुर्गावती के नाम से कलकत्ता पहुँचने की सूचना का तार दे दिया था। भाभी न लिखे जाने पर दुर्गावती को कोई नहीं पहचानता था। सुशीला दीदी भी नहीं समझ सकी। यद्यपि दुर्गा को भाभी उन्होंने ही कहना आरम्भ किया था, वे इसी नाम से जानी जाने लगी।
कलकत्ता मेल कलकत्ता पहुँची। दुर्गा भाभी को भगतसिंह के साथ उतरते देख सुशीला दीदी और भगवती चरण के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वे प्रसन्न थे। किस चतुराई से भगतसिंह और राजगुरू को दुर्गा लाहौर से पुलिस की आँखों में धूल झोंकर लिकाल लाई थी, यह आजादी की लड़ाई के इतिहास का अनछुआ पृष्ठ है।
भगवतीचरण ने अपनी क्रान्तिकारी पत्नी दुर्गा की प्रशंसा की और उनके साथ विवाह-बन्धन में बँध जाने के लिए स्वयं को सराहा, वे दुर्गा की निर्भयता और देश के प्रति समर्पण-भाव पर मुग्ध हो गए थे।
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