हमारे दो कार्यक्रम
हम आत्म-कल्याण और युग-निर्माण इन दो कार्यक्रमों को लेकर आगे बढ़ रहे हैं। गाड़ी के दो पहियों की तरह हमारे जीवन के दो पहलू हैं-एक भीतरी दूसरा बाहरी। दोनों के सन्तुलन से ही हमारी सुख-शान्ति स्थिर रह सकती है और इसी स्थिति में प्रगति सम्भव है। मनुष्य आत्मिक दृष्टि से पतित हो, दुर्मति-दुर्गणी और दुष्कर्मी हो तो बाहरी जीवन में कितनी ही सुविधाएँ क्यों न उपलब्ध हों वह दु:खी ही रहेगा। इस प्रगति की यदि बाह्य परिस्थितियाँ दूषित हैं तो आन्तरिक श्रेष्ठता भी देर तक टिक न सकेगी। असुरों के प्रभुता काल में बेचारे सन्त महात्मा जो किसी का कुछ नहीं बिगाड़ते थे अनीति के शिकार होते रहते थे। भगवान राम जब वनवास में थे तब उन्होंने असुरों द्वारा मारे गये सन्त महात्माओं की अस्थिओं के ढेर लगे देखकर बहुत दु:ख मनाया। जिस समाज में दुष्टता और दुर्बुद्धि बढ़ जाती है उसमें सत्पुरुष भी न तो अपनी सज्जनता की और न अपनी ही रक्षा कर पाते हैं। इसलिए जीवन के दोनों पहलू ही रथ से जुते हुए दो घोड़ों की तरह संभालने पड़ते हैं। दोनों में ताल-मेल बिठाना पड़ता है। रथ का एक घोड़ा आगे की ओर चले और दूसरा पीछे की तरफ लौटे तो प्रगति अवरूद्ध हो जाती है। इसी प्रकार हमारा बाह्य जीवन और आन्तरिक स्थिति दोनों का समान रूप से प्रगतिशील होना आवश्यक माना गया है।
-वाड्मय 66-2-43, 48
आस्तिकता की अभिवृद्धि से विश्व कल्याण की सम्भावना
यह संसार भगवान द्वारा विनिर्मित और उसी से ओत-प्रोत है। यहाँ जो कुछ श्रेष्ठता दिखार्इ पड़ती है वह सब भगवान की ही विभूति है। जीवन र्इश्वर का ही पुत्र-अंश है। उसमें जो कुछ तेज और ऐश्वर्य दिखार्इ पड़ता है वह र्इश्वरीय अंशों की अधिकता के कारण ही उपलब्ध होता है। आत्मा की प्रगति उन्नति और विभूति की संभावना भगवान के सान्निध्य में ही संभव होती है।
समस्त सद्गुणों का केन्द्र परमात्मा है। जिस प्रकार पृथ्वी पर ताप और प्रकाश सूर्य से ही आता है उसी प्रकार मनुष्य की आध्यात्मिक श्रेष्ठताएँ और विभूतियाँ परमात्मा से ही प्राप्त होती है। इस संसार में समस्त दु:ख पापों के ही परिणाम है। अथवा मनुष्य अपने किये पापों का दण्ड भुगता है या फिर दूसरों के पापों के लपेट में आ जाता है दोनों प्रकार के दु:खों के कारण पाप ही होते हैं। यदि पापों को मिटाया जा सके तो समस्त दु:ख दूर हो सकते हैं। यदि पापों को घटाया जा सके तो मानव जाति के दु:खों में निश्चय ही कमी हो सकती है। कुविचारों और कुकर्मों पर नियंत्रण धर्म-बुद्धि के विकसित होने से ही संभव होता है और यह धर्म-बुद्धि परमात्मा पर सच्चे मन से विश्वास रखने से उत्पन्न होती है। जो निष्पक्ष, न्यायकारी, परमात्मा को घट-घटवासी और सर्वव्यापी समझेगा उसे सर्वत्र र्इश्वर ही उपस्थित दिखार्इ पडे़गा, ऐसी दशा में पाप करने का साहस ही उसे कैसे होगा? पुलिस को सामने खडा देखकर तो दुस्साहसी भी अपनी हरकतें बन्द कर देता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति परमात्मा को निष्ठापूर्वक कर्म फल देने वाला और सर्वव्यापी समझ लेगा वह आस्तिक व्यक्ति पाप करने की बात सोच भी कैसे सकेगा?
मेरा
आहृान युवा भारत के प्रति है। युवाओं को ही नूतन विश्व का निर्माता बनना है,
न
कि उन्हें जो पश्चिम के प्रतियोगीतापूर्ण व्यक्तिवाद,
पूँजीवाद
अथावा भौतिकवाद साम्यवाद को भारत का आर्दश मानते है, और
न उन्हें जो प्राचीन धार्मिक आड़म्बरों में उलझे पडें है। मैं उन सभी को
आमान्त्रित करता हुँ जो एक महानतम आर्दश के लिए अपना जीवन न्यौछावर करने के लिए
तैयार है। इस धरा पर उज्जवन भविष्य लाने के लिए अपनी आत्मा को रूपातरण करने के लिए
स्ंवय को प्रस्तुत कर सकते है। मात्र इसी लक्ष्य में जीवन का कल्याण निहित है,
इस
सत्य को स्वीकारते हुए, श्रम करते हुए,
मस्तिष्क
और हृदय को स्वतन्त्र ( अप्रभावित ) रखते हुए निरन्तर संघर्ष कर सकते है। वे ही
नवयुग लाएँगें।
Maharishi
Arvind
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