यह बड़े ही गर्व का विषय है, हमारे लिए सौभाग्य की बात है कि गायत्री परिवार विश्व की एक बड़ी जन शक्ति धर्म शक्ति एवं अर्थ शक्ति के रूप में उभर रहा है। लगभग पूरे विश्व में एक करोड़ लोग गायत्री परिवार से किसी न किसी रूप में जुड़े है जो पूज्य गुरुदेव के विचारों से प्रभावित हैं, उनके त्याग तपोमय जीवन का सम्मान करते हैं एवं उनकी प्रेरणाओं को सुनने जानने व अपनाने का प्रयास करते है। यदि हम बड़ी भीड़ की बात न भी करें तो यह कह सकते है कि हमारे पास लगभग 24
लाख नैष्ठिक परिजनों की एक ऐसी जन शक्ति है जो पूज्यवर प्राण चेतना, भाव चेतना से जुड़ी है। एक मिशन को अपना सक्रिय योगदान देने के लिए जिनका हृदय मचलता रहता है और जो कुछ न कुछ उछल कूद करते रहते है। अर्थात् जन जागरण, नवनिर्माण के लिए अपनी ओर से प्रयास अवश्य करते है।
यदि हम अर्थ शक्ति की ओर अपनी निगाह डालें तो यह पाँएगे कि हम विश्व की बड़ी अर्थ शक्तियों में से एक बन सकते है। 24
लाख नैष्ठिक परिजनों में से आधे निकाल दीजिए जो अपना पेट भरने व गुजारे तक सीमित है। शेष 12
लाख ऐसे होंगे जो मिशन का कुछ न कुछ आर्थिक सहयोग करने की स्थिति में अवश्य है। नीचे कुछ अनुमानित आँकड़े दिए जा रहे है। यदि हम अपने परिजनों से यह अपील करें कि जिसकी मासिक आय 24,000 से अधिक है वो अपनी आय का लगभग 2.5 प्रतिशत (24,000x2.5/100 = 600~ 500) अर्थात् 500 रू मासिक सहयोग करे। जिनकी आय 40,000 रू से अधिक है वो अपनी आय का 2.5 प्रतिशत (40,000x2.5/100 = 1000) अर्थात् 1000 रू मासिक का सहयोग करें।
यदि हमें एक लाख लोग हजार रू मासिक के मिलें, डेढ़ लाख लोग 500 रू मासिक के मिलें व पाँच, पाँच लाख लोग 100 रू व 50
रू मासिक के मिलें तो लगभग 2400 से
रू
मासिक अंशदान हमें प्राप्त हो सकता है।
मासिक
अंशदान का विवरण
1 लाख x
1 हजार = 10
करोड़
1.5 लाख x
500
= 7.5 करोड़
4 लाख
x
100
= 4
करोड़
5 लाख x
50
= 2.5 करोड़
कुल
= 24
करोड़
इस 24 करोड़ रू की यदि हम ठीक से नियोजित कर पाँए तो देश की कायापलट कर सकते है।
उच्च श्रेणी के अंशदानियों को प्रोत्साहित करने के लिए हम कुछ सुविधाएँ उन्हें दे सकते है। जैसे वर्ष में एक बार वो हफ्ते दस दिन आकर अपनी कल्प चिकित्सा करा सकते है। उसके लिए उन्हें प्राथमिकता दी जा सकती है अथवा रहने की ठीक सी सुविधा दी जा सकती है वो जब भी हरिद्वार आँए वर्ष में 1
माह शँतिकुंज रह सकते हैं उन्हें हम कोर्इ ग्रेड़ जैसे A अथवा कोर्इ उपाधि जैसे भाभाशाह वर्ग प्रदान कर सकते है व अपने database में चढ़ा सकते है। यदि व्यक्ति थोड़ा वृद्ध है तो नीचे की एक floor आरक्षित की जा सकती है व floor पर एक attendant उनके लिए छोड़ा जा सकता है।
जिन लोगो की मासिक आय 75,000 से ऊपर है वो एक समयदानी की जीविका वहन करें अर्थात् 5,000 रू मासिक निकालें। इसी प्रकार जिनकी आय एक लाख से ऊपर है वो एक परिवार को गोद ले अर्थात् 10,000 रू माह का अंशदान दें। इस प्रकार हमारे परम चार वर्ग के अंशदानी बन जाएँगे।
25,000 से 5000 - 500 रू मासिक
50,000 से 75,000 - 1,000 रू मासिक
7,500 से 1,000 - 5,000 रू मासिक
1,000 से ऊपर - 10,000 रू मासिक
समय के हिसाब से हमें कुछ परिवर्तन करने चाहिए। हम क्या करते है? सब खिचड़ी पक देते है। गरीब, अमीर सभी को हाल में ठहराने का प्रयास करते है। क्या यह अपने सम्पन्न रहने की ठीक व्यवस्था बनाने के लिए लोग तरह-2 की approaches लगाते है।
बहुत से लोग संकोची व स्वाभिमानी स्वभाव के होते है व जान पहचान का प्रयोग करना पसन्द नहीं करते। कार्यकर्ताओं के साथ नाइसन्साफी नहीं है?
इसमें यह बात नहीं है कि गरीब अमीर के साथ पक्षपात करते है। उदाहरण के लिए गरीब लोगो के पास दो कमरो का मकान होता है उसमें पाँच छ: लोग रहते है उन्हें वैसी आदत होती है। अमीरो के पास चार पाँच कमरो का मकान होता है व रहने वाले तीन चार ही होते है यदि एक कमरे में दो से अधिक उन्हें रखा जाय तो वो बहुत बैचेनी महसूस करते है। गुरुदेव के समय स्थिति अलग थी उस समय मात्र मध्यम वर्गीय लोग ही आते थे, अमीर वर्ग का कर्इ इक्का दुक्का आता था। परन्तु अब प्रतिभाशाली व अमीर वर्ग का बड़ा भाग मिशन से जुड़ता चला रहा है यदि उन्हें उचित सम्मान व व्यवस्था न मिली तो उन्हें बड़ी निराशा होती है वो थोड़ा कटने लगते है। उदाहरण के लिए मैं स्वयं अनेक बार समय दान हेतु टोलियों में चला हँू परन्तु मेरी कुछ कमजोरियाँ रहती है। पहली यदि मेरे पास एक भी मच्छर भिनभिनाएँ तो मैं सो नही सकता अर्थात् नींद कच्ची है दूसरों में मिर्च मसाले नहीं झेल सकता। यदि अनुकूल परिस्थितियाँ न मिलें तो मेरा स्वास्थ्य बिगड़ने लगता है व चाह कर भी समयदान नहीं कर पाता।
एक बात और लिखना जरूरी है सन् 2000 के पूर्व डयूटी पर तैनात हर कार्यकर्त्ता का लोग सम्मान करते थे चाहे व शाँतिकुँज हो या शक्तिपीठ या अन्य स्थल। परन्तु 2000 के बाद हमारे मिशन के लोग ही जगह-2 रोष में रहते है। उदाहरण के लिए पितृ विसर्जन अमावस्या 2013 में कुछ लोगों के साथ शाँतिकुँज आया। पहले दिन कूपन व समय दिए गए। परन्तु अमावस्या वाले दिन लाइने लगा दी गयी कूपन के समय को कोर्इ महत्व नहीं दिया जा रहा था जिनका समय काफी बाद में था वो भी पहले ही घुसे हुए थे इससे स्थल पर कहा सुनी चल रही थी। कुछ लोग बीच बचाव का प्रयास भी कर रहे थे। तभी हमारे मिशन से जुड़ा एक पुराना व्यक्ति बोला इन छत्तीसगढ़ वालों को मजे से खाने पीने के मिलता है इस कारण ये कोर्इ डयूटी ठीक से नहीं करते मात्र औपचारिकता निभते है। बहुत से लोग उसकी हाँ में हाँ मिलाने लगे व झगड़ा बढ़ने लगा।
मुझे बड़ा दु:ख हुआ मैंने लोगों से विनती की कि जिनका समय अभी नहीं हुआ है वो कृप्या हर जाएँ ताकि विवाद न बढ़े। मैंने डयूटी पर तैनात भार्इ से भी कहा कि वह निर्धारित समय वाले व्यक्तियों की अलग पांक्ति लगवा लें परन्तु उसकी भी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। परन्तु नहीं क्यों हम लोग छोटे-2 स्वाथ्र्ाी के चक्कर में न्याय, नीति सब कुछ मूल जाते है। दूसरी बात जन सामान्य के सामने ही हम अपने मिशन व कार्यकर्त्ताओं के लिए उल्टा सीधा बोलने लगते है। यदि कुछ अव्यवस्था है तो शान्त मन से उसका समाधान निकालें आखिर हम सभी मिशन के स्वयं सेवक है। मैंने लगभग पाँच अश्वमेधों में डयूटी दी में कभी आहुति डालने नहीं गया अपितु पूरा समय साहित्य व व्यवस्था के लिए लगाया।
गायत्री
परिवार तभी एक महाशक्ति के रूप में उभर सकता है जब हमारे पास लगभग सवा लाख उच्च स्तरीय प्रतिभाशाली एवम् तपस्वी कार्यकर्त्ताओं काा एक सशक्त वर्ग उपलब्ध हो। मिशन के पास ढ़ार्इ लाख युवक युवतियों की एक विशाल सेना थी जिन्होंने पूरी एशिया में जनजागरण किया। इन्होंने बहुत विपरीत परिस्थितियों में काम किया। परन्तु अपने लक्ष्य पर डटे रहे। यही कारण है कि हिन्दू धर्म ने महात्मा बुद्ध को बीस कलाओं का अवतार स्वीकार किया। हमारे यह कहने भर से काम नही चलेगा कि हमारे गुरुदेव 24
कलाओं के अवतार है।
कैसे हम सवा लाख उच्च कोटि के साधक ढूढें़ व उन्हे कर्मक्षेत्र में उतारे? यह प्रश्न आँवल खेड़ा अर्द्ध महापूर्णाहुति से उठना प्रारम्भ हुआ था, परन्तु आज भी हम इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ है कि क्या हमने सवा लाख हीरों का चयन किया? इस पर विस्तृत चर्चा एवम् कार्य योजना बनाने की आवश्यकता है कि कैसे सवा लाख कार्यकत्ताओं को ढूंढ़ा जाय, उनको प्रशिक्षित कर पाँच आन्दोलनों (प्रचारात्मक, रचनात्मक, सगठनात्मक, साधनात्मक एंव संघर्षात्मक) को गति प्रदान की जाए। इस प्रकार चौबीस-2 हजार कार्यकर्त्ता हर आन्दोलन के लिए तैयार हो सकता है।
कठिनार्इ
यह है कि जैसे फसल उगने पर खर पतवार भी उग आती है वैस ही कोर्इ बड़ा मिशन उभझे पर चापलूस व निकयमें लोग भी उपजते है। ध्यानपूर्वक खोज-2 कर उनकी सफार्इ आवश्यक है। दूसरी बात जैसे यदि फौज खाली पड़े रहे उचित अभ्यास न करें तो जंग लग जाती है वैसे ही कार्यकर्त्ताओं की यदि परिव्रज्या अथवा उचित नियोजन न हो तो धीरे-2 वो बेकार होते जाते है। एक सावधानी और रखनी है जहाँ धन व प्रतिष्ठा बढ़ती है वहाँ अहकार व अरयाशी भी बढ़ सकती है। बड़े-2 आश्रम व मिशन इन्हीं दो के हावी होने पर समाप्त होने लगते है। यदि इतिहास उठाकर देखें तो श्री कृष्ण भगवान ने जो फौज कंस व अन्य असुरो के विनाश में लगायी वह अंहकारी व दुव्र्यसनी होकर प्रभु कृपा से वंचित हो गयी। महाभारत के महान मोर्चे पर पुनर्गठन हुआ व श्रेष्ठ पात्रों को पाण्डवों की ओर रखा गया बाकि सबको दुर्योधन के हवाले कर दिया गया।
सघन आत्म विशलेषण के द्वारा ही हम यह जान सकते है कि हमारे व्यस्त कार्यकाल में कोर्इ आसुरी तत्व हम पर हावी तो नहीं हुआ। नहीं साहब हमें तो अपने चम्मचों व व्यस्त कार्यो से ही फुरसत नहीं है। चम्मचे सदा हमारी प्रंशसा के पुल बाँधते रहते है। इसलिए मनीषी कहते है ‘निन्दक नियरे रााखिए’। हमारी युग निर्माण सेना में कोर्इ दोष दुर्गुण न उपजें यह हम सबका दायित्व है। सावधानी हटते ही गाजर घास की तरह दोष दुर्गुण बड़ी तेजी से बढ़ते है और एक बार हावी होने पर पीछा छुडाना कठिन हो जाता है।
भारत में अनेक संस्थाएँ कार्य कर रही है परन्तु किसी का कोर्इ खास परिणाम समाज में सामने नहीं आ रहा है। इसके अनेक कारण है। कुछ संस्थाएँ तो पाखण्ड पर ही आधारित है उनमें बाहर मुखौटा बढ़िया लगा है बाते आत्मज्ञान व जनकल्याण की करते है परन्तु भीतर वेश्यावृत्ति व गुण्डागर्दी पाप रही है। वेश्यावृत्ति बिना गुण्डागर्दी के नहीं चल सकती। जो शोर मचाए उसे डरा दो, न माने तो मखा दो, फिर चाँदी ढूँस कर मीडिया, न्याय व्यवस्था को चुप रखो। कुछ संस्थाएँ व्यापार करने पर तुली है धन कमाना उनका मुख्य उद्देश्य है। स्वामी जी के दर्शन के लिए इतना धन देना होगा। देवमूर्ति के इतने पास से दर्शन का यह शर्त है। कुछ संस्थाएँ वास्तव में अच्छा उद्देश्य लेकर चलती है। लेकिन उनमें भी तरह-2 के भंवर बनने प्रारम्भ हो जाते है सामान्य कार्यकर्त्ता अपने भविष्य, ठीक सा घर, रोजी रोटी, बच्चों के खर्चे में अपना ध्यान उलझाए रहता है। इस चक्कर में वो पदाधिकारियों की चापलूसी करना प्रथम धर्म मानता है। पदाधिकारियों में अनेक प्रतिद्वन्द्वी उभरने लगते है।
विभिन्न
पदाधिकारियों का ध्यान अपनी गददी व मान सम्मान बनाने के चक्कर में उलझा रहता है। मिशन से जुडे़ वर्ग में काफी व्यक्ति यह सब सच्चार्इ जानते भी है परन्तु बिल्ली के गते में घण्टी बाँधने का साहस कोर्इ नहीं कर पाता। जब अच्छार्इ चुप रहती है बुरार्इ किसी भी रूप में हावी होने लगती है तो फिर कहीं न कहीं वह दबाव किसी न किसी छोटे बड़े विस्फोट के रूप में सामने आता है व सभी पदाधिकारियों की थूका फजीती होती है। मिशन से जुड़े लोगो की भी बदनामी होती है। आप तो उस मिशन से जुडे़ थे आप तो वहाँ की बड़ी प्रंशसा करते थे वहाँ तो ऐसा-2 हो गया है अपमान का घूँट सभी को पीना पड़ता है क्योंकि गलती सबकी है सामने अन्याय होते देख व्यक्ति कर्इ कारणों से चुप रहता है जिसमें एक बड़ा कारण उसका स्वार्थ होता है। मैं पचास लोगों को लेकर वहाँ जाऊँगा तो अच्छी रहने की व्यवस्था हो जाएगी।
मिशनों
के बरबाद होने से बचाने के लिए उससे जुडे़ हर परिजन को बड़ी पेनी नजर रखनी होती है अन्यथा एक कहावत प्रचलित है किसी भी मिशन की उम्र चार पीढ़ी तक (अर्थात् सो सवा सो) वर्ष होती है। पहली पीढ़ी लगभग 30
वर्ष उसका आधार तैयार करती है दूसरी पीढ़ी लगभग 30
वर्ष उसको उन्नति के चरम शिखर तक ले जाती है तीसरी पीढ़ी उसका उपभोग करती है व चौथी उसका नाश कर देती है। एक कार्यकर्त्ता की युवावस्था लगभग 30
वर्ष होती है अपने युवाकाल में ही मिशन के लिए सक्रिय रूप से कुछ कर सकता है सोच सकता है। उसके पश्चात् तो वह एक लकीर पर स्वयं को घसीटता रहता है कुछ ऐसा नहीं कर पाता कि समाज उसको याद रख सके।
कोर्इ भी मिशन तभी एक महाशक्ति के रूप में उभर सकता है जब उसके पास सशक्त कार्यकर्त्ता हो जो एक ओर तो मिशन को बढ़ाएँ फैलाएँ परन्तु दूसरी ओर ऐसे उभरते लोगों के रोके जो मान प्रतिष्ठा सुख सुविधा के लिए मिशन का उपभोग न कर ले जाएँ। अन्यथा एक ओर से छत पर रखी टंकी में पानी पूरी ताकत के साथ भरा जा रहा है तो दूसरे कोर्इ उसमें छेद करके उसको व्यर्थ बहा देते है। भरना कठिना है बहाना आसान है। जीवन्त, सशक्त, जागरूक व प्रतिभाशाली मरजीवडे किसी भी मिशन की शान होते है बाकी सब तो स्वयं आ जाता है। अपने मिशन के ऊपर उठाने के लिए हमें ऐसा कार्यकर्त्ता चाहिए जो युवा योद्धा व सन्यासी स्तर के हो। मात्र गाने, बजाने व अच्छा-2 बाँचने वालसे से हम मिशन को उस ऊँचार्इ तक नहीं उठा पाएँगे जिसकी आशा ने देव सत्ताओं से हमसे की थी। गुरुदेव एक बात कहा करते थे कि उनकी हालत उस मोर जैसी है जो अपने पंखों के देखता है तो बहुत प्रसन्न होता है परन्तु जब पैरो पर निगाह डालता है तो निराश हो जाता है। गुरुदेव कहते थे कि जब हम महाकाल की योजना को देखते है तो बड़ा उत्साह बड़ी ताकत महसूस देती है लेकिन जब उसे पूरा करने वाले वर्ग को देखते है तो बड़ी निराशा होती है कि कैसे यह पद, प्रतिष्ठा, मोह माया में उलझी सेना इतना बड़ा मिशन पूरा कर पाएगी।
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