Sunday, October 6, 2013

Jeevan Sanghrash Book-New Matter part-3 (अहंकार से सावधान )

अहंकार से सावधान
     हे गुरुदेव, मुझ जैसे साधारण व्यक्ति व पापी को आपने सहारा दिया, ज्ञान दिया, संस्कार दिए, चिन्तन दिया, वातावरण दिया, राह की बाधाओं को दूर किया। मैं आपका परम Ïतज्ञ हँू। मुझे आपने अपना ब्रह्मबल रूपी दृढ़ आधार प्रदान किया जिस पर मैं खड़ा हँू। यदि यह आधार थोड़ा सा भी हट गया तो मैं भव सागर रूपी गहरी खार्इ में जा गिरूँगा अत: हे प्रभु! अपनी Ïपा रूपी छत्रछाया मुझ पर सदा बनाए रखना।
     दुनिया बड़ी विचित्र है यहाँ कोर्इ अन्धा है तो कोर्इ लंगडा, कोर्इ गूंगा है तो कोर्इ बहरा। सब आपस में झगड़ रहे हैं। हर कोर्इ अपने को श्रेष्ठ समझता है। अरे भार्इ! पूर्ण कोर्इ भी नही है पूर्ण बनने का प्रयास करो, इससे कम में सब बेकार है। अन्धा लंगडे की व लंगडा अन्धे की मदद करे इसी में भलार्इ है, नहीं तो अन्धा भी चोट खाएगा व लंगडा भी चोट खाएगा। यदि एक दूसरे की मदद नहीं करते तो दोनों मूर्ख हैं। भारत में मिशनों की भी यही स्थिति है।
     कोर्इ अच्छा गीत गाता है, कोर्इ अच्छा बोलता है, कोर्इ अच्छा लिखता है तो किसी का स्वास्थ्य बहुत अच्छा है। बताइए सुखी कौन? श्रेष्ठ कौन? किसी भी प्रश्न का उत्तर मूर्ख आराम से दे सकता है परन्तु विद्वान के लिए किसी भी निष्कर्ष पर पहँुचना बड़ा कठिन है। किसी के पास इस जन्म का अखजत सद्ज्ञान है तो किसी के पास पूर्वजन्मों के सत्कर्मो की पूँजी संचित है। कोर्इ समखपत है तो कोर्इ साधन सम्पन्न। हर कोर्इ अपना जीवन जी रहा है। किसी के पास कुछ नहीं है तो परिस्थितियों से जूझने का साहस है। उसको भी कम नहीं आंका जा सकता।
     जब मै छोटा था तो मुझे लगता था कि बड़े पद पर पहँुचकर व्यक्ति सुखी हो जाता है। अब देखता हँू कि सम्भवत गरीब अधिक सुखी है उसके पास कड़ी मेहनत के उपरान्त लगने वाली तीव्र भूख है, नींद है र्इश्वर पर भरोसा है। बड़े पद के साथ उसका अहं भी आता है उसके बन्धन भी आते है विलासिता पूर्ण जीवन भी आता है। स्वयं को बड़ा आदमी समझने का गौरव भी आता है हर कोर्इ बन्धन युक्त है कोर्इ किसी बन्धन से कोर्इ किसी से। हर कोर्इ दूसरे की ओर देखकर सोचता है यह अधिक सुखी दिखता है। जैसे-जैसे आदमी गहरा होता है, वह गम्भीर हो जाता है अन्यथा जरा सा कुछ हासिल हुआ और कूदना व्यक्ति ने प्रारम्भ किया। कथा में ताली क्या बजी कथावाचक अपनी कला पर फूल कर कुप्पा हो गए। सब कुछ वहीं से आया है वहीं चला जाएगा। विनम्रता से, सद्भावना के साथ जिज्ञासा भाव से परमात्मा की शरण में आकर अपना जीवनयापन करें इसी में प्रज्ञा का प्रकाश है।
     अहंकार एक भ्रम है, जो व्यक्ति के अंदर तब उत्पन्न होता है, जब वह स्वयं को श्रेष्ठ समझने लगता है ;स्वयं को शक्तिमान मानने लगता है वह ही सृष्टि का सबसे महत्त्वपूर्ण घटक है, उसके बिना कुछ भी नहीं हो सकता। अहंकारी व्यक्ति को स्वयं पर इतना घमंड हो जाता है कि वह स्वयं को दुनिया से अलग, सबसे विशिष्ट समझने लगता है जबकि ऐसा होता नहीं।
     अहंकार व्यक्ति को किस दिशा की ओर ले जाता है इससे संबंधित एक सत्य घटना है। दक्षिण में मोरोजी पंत नामक एक बहुत बड़े विद्वान थे। उनको अपनी विद्या का बहुत अभिमान था। वे अपने समान किसी को भी विद्यवान नहीं मानते थे और सबको नीचा दिखाते रहते थे। एक दिन की बात है कि दोपहर के समय वे अपने घर से स्नान करने के लिए नदी पर जा रहे थे। मार्ग में एक पेड़ पर दो ब्रह्मराक्षस बैठे हुए थे। वे आपस में बातचीत कर रहे थे। एक ब्रह्मराक्षस बोला-ßहम दोनों तो इस पेड़ की दो डालियों पर बैठे हैं, पर यह तीसरी डाली खाली है, इस पर बैठने के लिए कौन आएगा?Þ तो दूसरा ब्रह्मराक्षस बोला-ßयह जो नीचे से जा रहा है न, यह आकर यहाँ बैठेगाऋ क्योंकि इसको अपनी विद्वता का बहुत अभिमान है।Þ उन दोनों के संवाद को मोरोजी पंत ने सुना तो वे वहीं रुक गए और विचार करने लगे कि हे भगवान! विद्या के अभिमान के कारण मुझे ब्रह्मराक्षस बनना पडे़गा और प्रेतयोनियों में जाना पड़ेगा। अपनी होने वाली इस दुर्गति से वे घबरा गए और मन ही मन संत ज्ञानेश्वर के प्रति शरणागत होकर बोले-ßमैं आपकी शरण में हँू, आपके सिवाय मुझे बचाने वाला कोर्इ नहीं है।Þ ऐसा सोचते हुए वे वहीं से आलंदी के लिए चल पड़े और जीवनपर्यन्त वहीं रहे। आलंदी वह स्थान है, जहाँ संत ज्ञानेश्वर ने जीवित समाधि ली थी। संत की शरण में जाने से उनका अभिमान चला गया और संतÏपा से वे भी संत बन गए।
     अहंकार हमारे जीवन में ऐसे छदम् रूप में आता है कि हम उसे पहचान ही नहीं पाते और धीरे-धीरे विचारों व भावनाओं का पोषण पाकर वह अपना रूप विकसित कर लेता है। जिस प्रकार जल से आधा भरा हुआ मटका सिर पर रखकर ले जाने पर छलकता हुआ जाता है और यह बताता है कि उसके अंदर जल भरा हुआ है जबकि जल से संपूर्ण रूप से भरा हुआ मटका छलकता नहीं है। उसी प्रकार अहंकारी व्यक्ति अपने अंदर के थोड़े से गुणों का इतना बखान करता है, जैसे वह ही सबसे गुणवान व सर्वोत्तम हो। बात-बात में यह जताता है कि उसके समान कोर्इ नहीं, वह ही सबसे अच्छा है, बाकी सब तो कितने बेकार हैं। इसलिए दूसरों की बुरार्इ करने में भी वह हिचकता नहीं हैऋ क्योंकि इससे वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सि( करने की कोशिश करता है। अहंकारी व्यक्ति अपनी शक्ति को व्यर्थ ही स्वयं को दूसरों से बड़ा सि( करने में गँवाता है। इसी से संबंधित एक प्रसंग भी है।
     दक्षिण भारत के एक बड़े ही ज्ञानी व तपस्वी साधु हुए हैं- सदाशिव ब्रह्मेंद्र स्वामी। ये अपने गुरु के आश्रम में वेदांत का अध्ययन कर रहे थे। उनका पूरा समय अध्ययन में ही बीतता था। एक दिन उनके गुरु-आश्रम में एक विद्वान पंडित जी पधारे और आश्रम में प्रवेश करते ही उनका सदाशिव स्वामी से किसी विषय पर विवाद हो गया। सदाशिव स्वामी ने देखते ही देखते उन पंडित महाशय के तर्कों को अपने तर्कों से तहस-नहस कर डाला। सदाशिव स्वामी की प्रचंड विद्वता के सामने उन विद्वान पंडित जी की एक न चली और स्थिति यहाँ तक आर्इ कि उन आगंतुक पंडित जी को ब्रह्मेंद्र स्वामी से क्षमा-याचना करनी पड़ी। इस घटना ने ब्रह्मेंद्र स्वामी को पुलकित कर दिया। उन्होंने बड़े ही उत्साहपूर्वक यह घटना अपने गुरुदेव को सुनार्इ और यह सोचा कि गुरुदेव प्रसन्न होकर उनकी पीठ थपथपाएँगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, बल्कि इसका ठीक विपरीत हुआ।
     उनके गुरु ने सदाशिव स्वामी को कड़ी फटकार लगार्इ। वे उनसे बोले- ßसदाशिव! श्रेष्ठ चिंतन की सार्थकता तभी है, जब उससे श्रेष्ठ चरित्र बने और श्रेष्ठ चरित्र तभी सार्थक है, जब वह श्रेष्ठ व्यवहार बनकर प्रकट हो। तुमने वेदांत का चिंतन तो किया, पर ज्ञाननिष्ठ साधक का चरित्र नहीं गढ़ सके और न ही तुम ज्ञाननिष्ठ साधक का व्यवहार करने में समर्थ हो पाए, इसलिए तुम्हारे अब तक के सारे अध्ययन-चिंतन को बस, धिक्कार योग्य ही माना जा सकता है।Þ गुरु का स्पष्ट उत्तर था अपनी विद्वता को, अपने ज्ञान का उपयोग चरित्र निर्माण में करो, अपने कु:संस्कारों को हटाकर अपनी साधना बढ़ाने में करो। विद्वता द्वारा दूसरे को तर्क-वितर्क में पराजित कर यदि हम अपने अहं का पोषण करने लगेंगे तो हमारी आध्यात्मिक उन्नति का द्वार बन्द हो जाएगा।
     अहंकार हमें परमात्मा से दूर करता है और इसीलिए अगर किसी व्यक्ति को अहंकार होता है तो उसका अहंकार नष्ट करने के लिए कोर्इ न कोर्इ ऐसा उपक्रम भी अवश्य होता है, जिसके कारण उसका अहंकार चूर-चूर हो जाता है। जन्मशताब्दीं समारोह का हमारे अपने ही गढ़ में असफल हो जाने का एक कारण हमारा बढ़ता हुआ अहं भी हो सकता है जिस कारण शक्तिपीठों पर हम लड़ते झगड़ते व एक दूसरे के नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं। इतिहास में अनेकों ऐसे व्यक्ति हुए हैं, जो बहुत अहंकारी हुए है, जैसे-रावण, कंस, महमूद गजनवी, सिकंदर, हिटलर आदि। इन सबकी दुर्गति से हम यही सीख सकते हैं कि अहंकार हमें किसी काम का नहीं छोड़ता है, बल्कि हमारी क्षमताओं को नष्ट ही करता है।
सद्गुरु की सामथ्र्य
     गुरु बिन, कौन लगावे पार।
     गुरु के बिना तरी नहीं जाए, भवसागर की धारû
                “ाड् विकार को बोझा भारी, डुबो न दे मझधार।
                गुरु की नाव मिले बैठन को, तो दे पार उतारû
                गुरु बिन, कौन लगावे पारû
     गुरु कषाय-कल्मष को काटे, करे ज्ञान को वार।
     निखवकार हो जाए जीवन, हो जाए उ(ारû
     गुरु बिन, कौन लगावे पारû
                गुरु को ज्ञान अनमोल-संपदा, लें जीवन में धार।
                सब अज्ञान-तिमिर मिट जाए, हो जाए उजयारû
                गुरु बिन, कौन लगावे पारû
     निशि-दिन करें ज्ञान की चर्चा, है आनंद अपार।
     जितनी बाँटो, उतनी बढ़ती, ठगें नहीं बटमारû
     गुरु बिन, कौन लगावे पारû
                आओ! गुरु चरनन में बैठें, पी चरणामृत धार।
                लोक और परलोक सुधारें, ज्ञान-भक्ति को सारû
                गुरु बिन, कौन लगावे पारû
     स्वयं ब्रह्म हैं गुरु हमारे, फिर कैसी तकरार।
     कुछ भी बाहर नहीं गुरु से, निराकार-सरकारû
     गुरु बिन, कौन लगावे पारû


                                                 -मंगलविजय ‘विजयवर्गीय’

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