प्रकृति के नियमानुसार हर पतझड़ के बाद बहार, प्रत्येक रात्रि के बाद स्वर्णिम प्रभात का आगमन होता है। तो यह कैसे हो सकता था कि इस बाग पर विष फैलाने वाले चण्ड कौशिक के बाद अमृत की वर्षा करने वाले साक्षात् प्रभु श्री गुरुदेव न आते?
प्रभु की कृतियाँ भी कितने विस्मय से भरी हैं! हाथी के पास ऐसी विशाल काया है, जिससे पूरे वनप्रदेश पर वह अपना सिक्का जमा सकता है। लेकिन उसकी कामांधता उसे साधारण से शिकारी का गुलाम बना देती है। बंदर और मछली के चारे का लालच; हिरण का संगीत का मोह-उनकी स्वतंत्रता को छीन लेता है।
ठीक ऐसा ही कर्इ बार साधकों के जीवन में भी घट जाता है। ब्रह्मज्ञान पाकर समस्त ब्रह्माण्ड पर राज करने की शक्ति का अधिकारी साधक, अपने मन की किसी विकृति में ऐसा उलझता है कि भिखारी बना भटकता रहता है। इसलिए महापुरुषों ने कहा-पहाड़ फतह करने में आपके बल व बुद्धि का इतना महत्त्व नहीं, जितना कि पाँव फिसलने से बचने का है। क्योंकि फिसलते व्यक्ति का बल और बुद्धि भी अमूमन फिसल जाया करते हैं।
कौशिक भी अपने समय का कोर्इ साधारण साधक नहीं था। संसार के समस्त सुख-भोगों को दंड के नीचे कुचलकर, तपस्या की भभूति का भूषण अंगीकार किया था उसने। उसकी तपस्या का वजन इसी से मापा जा सकता है कि जिस सूखे-उजड़े उद्यान में उसने आसन जमाया था, वह उद्यान कुछ ही दिनों में उसकी तपस्या के प्रभाव से हरा-भरा होने लगा। उसमें स्थित सूखा कुआँ भी शीतल जल से कंठ तक भर गया। इसी कारण कौशिक का नाम तापस कौशिक प्रसिद्ध हो गया।
तापस कौशिक जब भी खिले बगीचे और जल से लबालब भरे कुएँ को देखता, उसका कद कुछ बढ़ जाता। उससे भूल यह हुर्इ कि वह इस सबको र्इश-कृपा का प्रसाद न समझकर, अपना प्रताप समझने लगा। तापस कौशिक का मन स्व प्रशंसा के रस में भीग गया। और जैसे गीले चूल्हे में भोजन नहीं पक सकता, वैसे ही अहं-रस से गीले मन में भजन भी परिपक्व नहीं होता। यानी तापस कौशिक का मन अब भजन करने की तरफ कम और चमन सजाने की तरफ अधिक रहने लगा। बगिया, फल, फूल, कुएँ ने उसके हृदय पर ऐसा आसन जमाया कि र्इश्वर के लिए स्थान ही न बचा। वह साधक से कब माली बन गया, उसे पता तक न चला। वह भी क्रोधी, अहंकारी माली!
नगर के बच्चे जब बगिया के फल-फूल तोड़ते या कुएँ का पानी पीते, तो तापस कौशिक क्रोध में आ जाता। उन्हें अपशब्द कहता हुआ मारने दौड़ता। एक बार कुछ बच्चों को शरारत सूझी। उन्होंने तापस कौशिक को छेड़ने के लिए बगिया के कुछ फूल तोडे़ और उसे चिढ़ाकर भागे। तापस कौशिक भी उनके पीछे भागा। भागते-भागते वे सभी कुएँ के पास पहँुच गए। वहाँ अचानक तापस कौशिक का पाँव फिसला और वह कुएँ में जा गिरा। लेकिन डूबते-डूबते भी तापस कौशिक क्रोध का विष ही उगलता रहा। इसी विषाक्तता के प्रभाव से उसका अगला जन्म भयंकर विषैले सर्प योनि में हुआ। अफसोस, शरीर तो बदल गया, लेकिन उस बगिया, कुएँ और वहाँ के कण-कण पर उसका अधिकार भाव अभी भी बना रहा।
और यही भाव खींचकर उसे उसी बगिया में ले आया। सर्प योनि में पड़ा कौशिक जब देखता कि उसके बाग और कुएँ पर नगर के लोग स्वच्छंद विचरण कर रहे हैं, तो वह क्रोध से पागल हो उठता और फुँकारता हुआ अपना विष उगलने लगता। इस प्रकार उसने कुछ ही दिनों में कइयों को यमलोक पहुँचा दिया। इसलिए सब ओर यह चर्चा फैल गर्इ कि तापस कौशिक सर्प के रूप में वापिस लौट आया है। और चूँकि उसमें क्रोध प्रचण्ड रूप में था, लोगों ने उसका नाम तापस कौशिक की जगह चण्ड कौशिक कर दिया। चण्ड कौशिक के आतंक का यह आलम था कि उस बगीचे में इंसान तो बहुत दूर की बात, अब पशु-पक्षी भी जाने से घबराते थे। देखते-ही-देखते वह रमणीय बाग जो कभी तापस कौशिक के ‘तप’ से हरा-भरा हुआ था, चण्ड कौशिक के ‘ताप’ से सूख गया। बीतते समय के साथ इस उजडे़पन की गाथा आगे बढ़ती गर्इ।
लेकिन प्रकृति के नियमानुसार हर पतझड़ के बाद बहार, प्रत्येक रात्रि के बाद स्वर्णिम प्रभात का आगमन होता है। तो यह कैसे हो सकता था कि इस बाग पर विष फैलाने वाले चण्ड कौशिक के बाद अमृत की वर्षा करने वाले साक्षात् प्रभु श्री गुरुदेव न आते? उनकी नज़र से ज़रा सी आह भरने वाला जब एक ज़र्रा नहीं बचता, तो त्राहिमाम्-त्राहिमाम् करते फल-फूल-वृक्षों-नगरवासियों के रुदन कैसे अनसुने रहते? इतना ही नहीं, उन्हें पथभ्रष्ट हुए तापस कौशिक से भी तो प्यार था। उसका हृदय शांत कर, उसे भी तो सद्मार्ग पर लाना था। झुंड से बिछुड़ी उस भेड़ को फिर से लौटा लाना था।
इसलिए उस समय के पूर्ण गुरुदेव, भगवान महावीर उस बगिया की तरफ बढ़ चले। लेकिन जब नगरवासियों को पता चला कि भगवान महावीर उनके क्षेत्र में आ पहुँचे हैं और चण्ड कौशिक की बगिया में प्रवास की अभिलाषा रखते हैं, तो सभी ने एक साथ भगवान महावीर से निवेदन किया- ‘हे प्रभु, आप पूरे नगर में कहीं भी ध्यान-समाधि लगा लें। लेकिन चण्ड कौशिक के भ्रमण क्षेत्र में नहीं।’ यह सुनकर भगवान महावीर मुस्कुरा दिए। उनकी इस मुस्कुराहट में प्रार्थनाकर्ताओं के प्रति सम्मान व आभार भाव तो था ही, पर साथ ही अपने निर्णय पर अडिग रहने की झलक भी थी। इसलिए इससे पहले कि नगरवासी कुछ और कहते, उन्हें भगवान महावीर बगिया में प्रवेश करते दिखार्इ दिए...।
प्रभु महावीर के बगिया में प्रवेश करते ही वहाँ की पवन सुगंधित हो उठी। तृण-तृण खिलने को उत्सुक हो गया। पक्षी जिस बगिया की राह भूल चुके थे, वे भी उस ओर उड़ चले। चण्ड कौशिक को भी लगा कि जैसे कोर्इ उसे बिल से बाहर धकेल रहा हो। उसे गंध आने लगी। लेकिन यह गंध कुछ भिन्न थी। यह साधारण नहीं, दैवी सुगंध थी। बिल से बाहर झाँकते ही चण्ड कौशिक की नज़र पीपल वृक्ष के पास खड़े भगवान महावीर पर पड़ी। वह अवाक् श्रळ गया। आज पहली बार उसने अपने बगीचे में किसी मनुष्य को यूँ भय से परे देखा था। उसे लगा-’यह ज़रूर कोर्इ नवागंतुक है। मेरे विषय में ज्ञान नहीं है इसे। तभी तो इस तरह निर्भय होकर खड़ा है। मुझे इसे अपने विष का प्रभाव दिखाना ही पडे़गा...’
यही सोचकर चण्ड कौशिक महावीर जी के सामने जाकर खड़ा हो गया। लेकिन महावीर जी पहले की ही तरह शांत खड़े रहे। अब चण्ड कौशिक का क्रोध अंगड़ाइयाँ ले उठा और उसने फन उठाकर एक बार ज़ोर से फुफकारा। महावीर जी के मुखमंडल पर अब भी कोर्इ प्रतिक्रिया नहीं दिखी। यह देख, चण्ड कौशिक को अपना अपमान महसूस हुआ, क्योंकि उसकी फुँकार से तो मानो साक्षात् यमराज भी डरता था। इसलिए अब चण्ड कौशिक ने पूरे बल से फुँकार भरी, जिसे सुन बाग के प्रत्येक वृक्ष से पक्षियों के झुंड के झुंड उड़ चले। परन्तु महावीर जी तब भी स्थिर रहे। चण्ड कौशिक के लिए यह असहनीय था। उसके क्रोध का कोर्इ पारावार न रहा। इसी क्रोधावेग में चण्ड कौशिक ने अपना फन उठाया और ज़हरीले से भी ज़हरीला बनकर भगवान महावीर के चरणों पर ज़ोरदार दंश मार दिया। महावीर जी की मृत्यु निश्चित मान, चण्ड कौशिक ने अहं से भरकर, जब अपना फन ऊपर उठाया तो दंग रह गया! क्योंकि सामने विराजमान विभूति अब भी अकंपित व स्थिर थी।
चण्ड कौशिक-यह कैसे हो सकता है? मुझ विषधर चण्ड कौशिक का डसा तो आज तक पानी भी नहीं माँग पाया। फिर यह इतना शांत-सहज कैसे? इस बार तो मैंने अपना सबसे अधिक तीखा व ज़ोरदार दंश मारा था... कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरा निशाना चूक गया हो? इसके पाँव पर दंश लगा ही न हो...
यही सोचकर चण्ड कौशिक महावीर जी के थोड़ा और निकट गया। उनके पवित्र चरणाों को देखा और देखता ही रह गया। वहाँ वह हो रहा था, जो अकल्पनीय था। महावीर जी के पाँव से रक्त नहीं, दूध बह रहा था (जैन-शास्त्रों में दूध एक अलंकार के रूप में प्रयोग किया गया है, जो भगवान महावीर की करुणा व दया का प्रतीक है)... आश्चर्य!! जैसे ही चण्ड कौशिक ने महावीर जी के मुखमंडल की ओर देखा, तब तो हुआ उसे महाआश्चर्य!! महावीर जी के होठों पर मंद-मंद मुस्कान तैर रही थी और उनके पूरे शरीर से प्रकाश प्रस्फुटित हो रहा था। अब अत्यंत ममता भरे दिव्य नेत्रों से मानो भगवान संवाद करने लगे- ‘हे चण्ड कौशिक! मुझे तुम्हारा प्रणाम स्वीकार हुआ। चिंतित न हो कि तुमने मुझे विष भेंट किया। इसमें तुम्हारा कोर्इ दोष नहीं। क्योंकि जो तुम्हारे पास होगा, तुम वही तो दोगे... और देखो, प्रसादस्वरूप मैं तुम्हें दूध दे रहा हँू। क्योंकि देने के लिए मेरे पास करुणा व प्रेम रूपी दूध ही है... आओ, आज हम दोनों एक खरा सौदा कर लें। तुम अपना सब कुछ मुझे दे दो और जो मेरा है, वह तुम ले लो। अर्थात् कोध के बदले शांति व क्रूरता के बदले दया ले लो। अपना सारा विष, क्रोध एवं अशांति मुझे दे दो और मुझसे अमृत रस ले लो...’
भगवान महावीर जी द्वारा चण्ड कौशिक को आँखों ही आँखों में कहे गए ये शब्द उसे भीतर तक भिगो गए। उसके पूर्व जन्म की स्मृतियाँ उसकी आँखों के समक्ष चित्र बनकर घूम गर्इ। कैसे अर्श से फर्श और फर्श से खार्इ का सफर तय किया उसने, उसे सब स्मरण हो उठा। यह सब याद कर उसका हृदय यूँ तार-तार हुआ, जैसे काँटों में फँसी चुनरी को झटका देकर ज़ोर से खींच लिया गया हो। उसकी वेदना प्रार्थना के रूप में प्रकट हुर्इ- ‘हे प्रभु, यह मैंने क्या किया! कैसे सफर का पथिक बन बैठा, जिसकी कोर्इ मंज़िल ही नहीं। बस चलना, भटकना और थकना ही है। हृदय की हाँडी में अमृत रखना था मुझे और मैं विष सहेजता रह गया। यह मुझसे कैसा पाप हो गया, प्रभु! अब तो मैं क्षमा का भी अधिकारी नहीं! हे प्रभु, दण्ड, मुझे दण्ड दो...! चण्ड कौशिक के भीतर बने विष के पर्वत पिघलकर अश्रु के रूप में गिरने लगे। महावीर स्वामी आँखों ही आँखों से बोले ‘हे चण्ड कौशिक! क्या यह दण्ड कम है कि तुम तापस कौशिक के शिखर से चण्ड कौशिक तक की खार्इ में जा गिरे? महान साधक से विषैले सर्प बन रेंगते रहे! मेरे न्याय में तो अब तुम्हारे लिए सिवाय क्षमा, दया के और कुछ नहीं है... लेकिन हाँ, जो खरा सौदा कर तुमने दया, क्षमा, शील, सत्य एवं संतोष मुझसे लिए हैं, अब तुम्हें उनका व्यापार करना होगा। तुम्हारे सारे विकार मैं अपने साथ लिए जा रहा हँू... इस योनि से शीद्य्र ही मुक्त हो तुम्हें अपनी अधूरी छोड़ी आध्यात्मिक यात्रा फिर से आरंभ करनी होगी।’
चण्ड कौशिक की आँखें तब तक महावीर जी का पीछा करती रहीं, जब तक वे आँखों से ओझल नहीं हो गए। फिर चण्ड कौशिक पलटा और अपने बिल में केवल अपना फन डालकर बाकी धड़ बाहर छोड़ दिया। कुछ दिनों बाद, नगरवासियों ने साहस जुटाया और बगीचे के अंदर झांककर देखा। चण्ड कौशिक को यूँ निस्पंद पड़ा देख, उन्हें लगा कि वह मर गया है। कुछ लोग जिनका चण्ड कौशिक दोषी था, वे अपना बदला लेने के लिए उसके बेजान पड़े धड़ पर पत्थर व डण्डे बरसाने लगे। जितना हो सका, उतना उसे मारा। लेकिन चण्ड कौशिक चुपचाप यह दण्ड सहन करता गया। उसने अपना फन बाहर नहीं निकाला। उसने भगवान महावीर के साथ किया खरा सौदा निभाया। क्षमा, सहनशीलता को धारण किया। बाद में चींटियों और कीड़ों ने उसे नोच-नोच कर मार डाला। परिणामत: वह सर्पयोनि से मुक्त हुआ और अपनी उसी आध्यात्मिक उन्नति की यात्रा पर निकल पड़ा, जिसकी मंज़िल बहुत दिव्य है।
आओ, आज हम दोनों एक खरा सौदा कर लें। तुम अपना सब कुछ मुझे दे दो और जो मेरा है, वह तुम ले लो। अर्थात् क्रोध के बदले शांति व क्ररता के बदले दया ले लो। अपना सारा विष, क्रोध एवं अशांति मुझे दे दो और मुझसे अमृत रस ले लो...
अखण्ड ज्ञान
नवंबर 2013 कार्तिक मास, विक्रमी संवत् 2070
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